जोतो हे कवि, निज प्रतिभा के
फल के निष्ठुर मानव अंतर
चिर जीर्ण विगत की खाद डाल
जन-भूमि बनाओ सम सुंदर ।
बोओ, फिर जन मन में बोओ,
तुम ज्योति पंख नव बीज अमर,
जग जीवन कै अंकुर हँस हँस
भू को हरीतिमा से दे भर !
पृथ्वी से खोद निराओ, कवि,
मिथ्या विश्वासों के तृण खर,
सींचो अमृतोपम वाणी की
धारा से मन, भव हो उर्वर !
नव मानवता का स्वर्ण-शस्य-
सौन्दर्य लवाओ जन-सुखकर,
तुम जग गृहिणी, जीवन किसान,
जन हित भंडार भरो निर्भर !