विज्ञान ज्ञान बहु सुलभ, सुलभ बहु नीति धर्म,
संकल्प कर सके जन, इच्छा अनुरूप कर्म ।
उपचेतन मन पर विजय पा सके चेतन मन,
मानव को दो यह शक्ति पूर्ण जग के कारण !
मनूजों की लघु चेतना मिटे, लघु अहंकार,
नव युग के गुण से विगत गुणों का अंधकार ।
हो शांत जाति विद्वेष, वर्ग गत रक्त समर,
हो शांत युगों के प्रेत, मुक्त मानव अंतर ।
संस्कृत हो सब जन, स्नेही हो, सह्रदय सुंदर,
संयुक्त कर्म पर हो संयुक्त विश्व निर्भर ।
राष्ट्रों से राष्ट्र मिले, देशों से देश आज,
मानव से मानव, हो जीवन निर्माण काज ।
हो धरणि जनों की, जगत स्वर्ग - जीवन का घर,
नव मानव को दो प्रभु ! भव मानवता का वर !