चाँदी की चौड़ी रेती
फिर स्वर्णिम गंगा धारा,
जिसके निश्चल उर पर विजड़ित
रत्न छाय नभ सारा !
फिर बालू का नासा
लम्बा ग्राह तुंड सा फैला,
छितरी जल रेखा-
कछार फिर गया दूर तक मैला !
जिस पर मछुओं की मँड़ई,
औ तरबूजों के ऊपर,
बीच बीच में, सरपत के मूँठे
खग-से खोले पर !
पीछे, चित्रित विटप पाँति
लहराई सांध्य क्षितिज पर
जिससे सट कर
नील धूम्र रेखा ज्यों खिची समांतर ।
बर्ह पुच्छ-से जलद पंख
अंबर में बिखरे सुंदर
रंग रंग की हलकी गहरी
छायाएँ छिटका कर ।
सब से ऊपर निर्जन नभ में
अपलक संध्या तारा,
नीरव औ निःसंग,
खोजता सा कुछ, चिर पथहारा !
साँझ, - नदी का सुना तट,
मिलता है नही किनारा,
खोज रहा एकाकी जीवन
साथी, स्नेह सहारा !