जन पर्व मकर संक्रांति आज
उमड़ा नहान को जन समाज
गंगा तट पर, सब छोड़ काज ।
नारी नर कई कोस पैदल
आरहे चले लो, दल के दल,
गंगा दर्शन को पुण्योज्वल !
लड़के, बच्चे, बूढे, जवान,
रोगी, भोगी, छोटे, महान,
क्षेत्रपति, महाजन औ' किसान ।
दादा, नानी, चाचा, ताई,
मौसा, फूफी, मामा, माई,
मिल ससुर, बहू, भावज, भाई ।
गा रही स्त्रियाँ मंगल कीर्तन,
भर रहे तान नव युवक मगन,
हँसते, बतलाते बालक गण ।
अतलस, सिंगी, केला औ' सन
गोटे गोखुरू टँगे, - स्त्री जन
पहनी छीटें, फुलवर, साटन
बहु काले, लाल, हरे, नीले,
बैंगनी, गुलाबी, पट पीले,
रँग रँग के हलके, चटकीले ।
सिर पर है चँदवा शीशफूल,
कानों में झुमके रहे झूल,
बिरिया, गलचुमनी, कर्णफूल ।
माथे के टीके पर जन मन,
नासा में नथिया, फुलिया, कन,
बेसर, बुलाक, झुलनी, लटकन ।
गल में कटवा, कंठा, हँसली,
उर में हुमेल, कल चंपकली,
जुगनी, चौकी, मूँगे नकली ।
बाँहो में बहु बहुँटे, जोशन,
बाजूबँद, पट्टी, बाँक सुषम,
गहने ही गँवारिनों के धन !
कँगने, पहुँची, मृदु पहुँचो पर
पिछला, मँझुवा, अगला क्रमतर
चूड़ियाँ, फूल की मठियाँ वर ।
हथफूल पीथ पर कर के धर,
उँगलियाँ मुँदरियों से सब भर,
आरसि अँगूठे में देकर-
वे कटि में चल करधनी पहन,
पाँवों में पायजेब, झाँझन,
बहु छड़े, कड़े, बिछिया, शोभन, -
यों सोने चाँदी से झंकृत,
जातीं वे पीतल गिलट खचित,
बहु भाँति गोदना से चित्रित ।
ये शत, सहस्त्र नर नारी जन
लगते प्रह्रष्ट सब मुक्त, प्रमन,
है आज न नित्य कर्म बंधन !
विश्वास मूढ, निःसंशय मन,
करने आए ये पुण्यार्जन,
युग युग से मार्ग भ्रष्ट जनगण ।
इनमें विश्वास अगाध, अटल,
इनको चाहिए प्रकाश नवल,
भर सके नया जो इनमें बल !
ये छोटी बस्ती में कुछ क्षण
भर गए आज जीवन स्पंदन-
प्रिय लगता जनगण सम्मेलन ।