पूस - निशा का प्रथम प्रहर - खिड़की से बाहर
दूर क्षितिज तक स्तब्ध आम्र वन सोया क्षण भर
दिन का भ्रम होता पूनो ने तृण तरुओं पर
चाँदी मढ़ दी है, भू को स्वप्नों से जड़कर !
चारु चंद्रिकातप से पुलकित निखिल धरातल
चमक रहा है, ज्यों जल में बिम्बित जग उज्वल !
स्पष्ट दीखते - खिड़की की जाली में विजड़ित
कटहल, लीची, आम, घूक गेंदुर से कंपित;
फाटक औ हाते के खंभे, बगिया के पथ,
आधी जगत कुँए की, कुरिया की छाजन श्लथ;
अस्पताल का भाग, मेहराबें दरवाजे,
स्फटिक सदृश जो चमक रहे चूने से ताजे ।
औ टेढ़ी मेड़्ही दिगंत रेखा के ऊपर
पास पास दो पेड़ ताड़ के खड़े मनोहर !
आधी खिड़की पर अगणित ताराओं से स्मित
हरित धरा के ऊपर नीलांबर छायांकित ।
कचपचिया (कृत्तिका) सामने शोभित सुंदर-
मोती के गुच्छे सी - भरणी ज्यों त्रिकोण वर !
पास रोहिणी, प्रिय मिलनातुर, बाँह खोलकर,
सेंदुर की बेंदी दे, जुडुओं को गोदी भर ।
लुब्ध दृष्टि लुब्धक, समीप ही छोड़ रहा शर
आदि काल से मृग पर मृग शिर सहज मनोहर ।
उधर जड़े पुखराज लाल-से गुरु औ मंगल
साथ-साथ, जिनमें अवश्य गुरु सबसे उज्वल !
हस्ता है प्रत्यक्ष कठिन वृश्चिक का मिलना,
वह शायद आर्द्रा, कहता हिमजल सा हिलना ।
ज्योति फेन सी स्वर्गंगा नभ बीच तरंगित,
परियों की माया सरसी सी छायालोकित;
ज्वलित पुंज ताराओं के बाष्पों से सस्मित,
नीलम के नभ में रत्न प्रभु पुल सी निर्मित ।
खोज रहा हू कहाँ उदित सप्तर्षि गगन में
अरुंधती को लिए साथ, विस्मित से मन में !
प्रश्न चिह्न-से जो अनादि से नभ में अंकित,
उत्तर में स्थिर ध्रुव की ओर किए चिर इंगित,
पूछ रहे हो संसृति का रहस्य ज्यों अविदित,-
'क्या है वह ध्रुव सत्य? गहन नभ जिससे ज्योतित!'
ज्योत्सना में विकसित सहस्त्रदल भू पर, अंबर
शोभित ज्यों लावण्य स्वप्न अपलक नयनों पर !
यह प्रतिदिन का दृश्य नहीं, छल से वातायन
आज खुल गया अप्सरियों के जग में मोहन !
चिर परिचित माया बल से बन गए अपरिचित,
निखिल वास्तविक जगत कल्पना से ज्यों चित्रित !
आज असुंदरता, कुरूपता भव से ओझल,
सब कुछ सुंदर ही सुंदर, उज्वल ही उज्वल !
एक शक्ति से, कहते, जग प्रपंच यह विकसित,
एक ज्योति कर से समस्त जड़ चेतन निर्मित;
सच है यह आलोक पाश में बँधे चराचर
आज आदि कारण की ओर खींचते अंतर !
क्षुद्र आत्म पर भूल, भूत सब हुए समन्वित,
तण, तरु से तारालि - सत्य है एक अखंडित !
मानव ही क्यों इस असीम समता से वंचित ?
ज्योति भीत, युग युग से तमस विमूड, विभाजित !!