अब आधा जल निश्चल, पीला,-
आधा जल चंचल औ' नीला-
गीले तन पर मृदु संध्यातप
सिमटा रेशम पट सा ढीला ।
ऐसे सोने के साँझ प्रात,
ऐसे चाँदी के दिवस रात,
ले जाती बहा कहाँ गंगा
जीवन के युग क्षण, - किसे ज्ञात !
विश्रुत हिम पर्वत से निर्गत,
किरणोज्वल चल कल उर्मि निरत,
यमुना, गोमती आदि से मिल
होती यह सागर में परिणत ।
यह भौगोलिक गंगा परिचित,
जिसके तट पर बहु नगर प्रथित,
इस जड़ गंगा से मिली हुई
जन गंगा एक और जीवित !
वह विष्णुपदी, शिव मौलि स्त्रुता,
वह भीष्म प्रसू औ' जह्नु सुता,
वह देव निम्नगा, स्वर्गंगा,
वह सगर पुत्र तारिणी श्रुता ।
वह गंगा, यह केवल छाया,
वह लोक चेतना, यह माया,
वह आत्म वाहिनी ज्योति सरी,
यह भू पतिता, कंचुक काया ।
वह गंगा जन मन से निःसृत,
जिसमें बहु बुदबुद युग नर्तित,
वह आज तरंगित, संसृति के
मृत सैकत को करने प्लावित ।
दिशि दिशि का जन मत वाहित कर,
वह बनी अकूल अतल सागर,
भर देगी दिशि पल पुलिनों में
वह नव जीवन की मृद् उर्वर !
अब नभ पर रेखा शशि शोभित,
गंगा का जल श्यामल, कंपित,
लहरों पर चाँदी की किरणें
करती प्रकाशमय कुछ अंकित !