खोलो वासना के वसन,
नारी नर !
वाणी के बहु रूप, बहु वेश, बहु विभूषण
खोलो सब, बोलो सब
एक वाणी, - एक प्राण, एक स्वर !
वाणी केवल भावो विचारों की वाहन,
खोलो भेद भावना के मनोवसन
नारी नर !
खोलो जीर्ण विश्वासों, संस्कारो के शीर्ण वसन,
रूढ़ियों, रीतियो, आचारों के अवगुंठन,
छिन्न करो पुराचीन संस्कृतियों के जड़ बंधन,
जाति वर्ण, श्रेणि वर्ग से विमुक्त जन नूतन
विश्व सभ्यता का शिलान्यास करे भव शोभन;
देश राष्ट्र मुक्त धरणि पुण्य तीर्थ हो पावन ।
मोह पुरातन का वासना है, वासना दुस्तर
खोलो सनातनता के शुष्क वसन,
नारी नर !
समरांगण बना आज मानव उपचेतन मन,
नाच रहे युग युग के प्रेत जहाँ छाया-तन;
धर्म वहाँ, कर्म वहाँ, नीति रीति रूढ़ि चलन,
तर्क वाद, सत्व न्याय, शास्त्र वहाँ, षद् दर्शन;
खंड खंड मे विभक्त विश्व चेतना प्रांगण,
भित्तियाँ खड़ी है वहाँ देश काल की दुर्धर !
ध्वंस करो, भ्रंश करो, खँडहर है ये खँडहर,
खोलो विगत सभ्यता के क्षुद्र वसन
नारी नर !
नव चेतन मनुज आज करे धरणि पर विचरण,
मुक्त गगन में समूह शोभन ज्यो तारागण;
प्राणो प्राणो में रहे ध्वनित प्रेम का स्पंदन,
जन से जन में रे बहे, मन से मन में जीवन;
मानव हो मानव- हो मानव में मानवपन
अन्न वस्त्र से प्रसन्न, शिक्षित हो सर्व जन;
सुंदर हो वेश, सब के निवास हो सुंदर,
खोलो परंपरा के कुरुप वसन,
नारी नर !