बंधन नही रही अहिंसा आज जनों के हित,
वह मनुजोचित निश्चित, कब? जब जन हो विकसित ।
भावात्मक आज नही वह; वह अभाव वाचक
उसका भावात्मक रूप प्रेम केवल सार्थक ।
हिंसा विनाश यदि; नही अहिंसा मात्र सृजन,
वह लक्ष्य शून्य अब भर न सकी जन में जीवन;
निष्क्रिय उपचेतन ग्रस्त एक देशीय परम,
सांस्कृतिक प्रगति से रहित आज, जन हित दुर्गम ।
हे सृजन विनाश सृष्टि के आवश्यक साधन
यह प्राणि शास्त्र का सत्य नही, जीवन दर्शन ।
इस द्वन्द्व जगत में द्वन्द्वातित निहित संगति,
हे जीव जीव का जीवन, - रोक न सका प्रगति ।
भव तत्व प्रेम साधन है उभय विनाश, सृजन,
साधन बन सकते नही सृष्टि गति में बंधन !