राम राम,
हे ग्राम देवता, भूति ग्राम !
तुम पुरुष पुरातन, देव सनातन, पूर्णकाम,
शिर पर शोभित वर छत्र तड़ित स्मित घन श्याम,
वन पवन मर्मरित-व्यजन, अन्न फल श्री ललाम,
तुम कोटि बाहु, वर हलधर, वृष वाहन बलिष्ठ ।
मित असन, निर्वसन, क्षीणोदर, चिर सौम्य शिष्ट;
शिर स्वर्ण शस्य मंजरी मुकुट गणपति वरिष्ठ,
वाग्युद्ध वीर, क्षण क्रुद्ध धीर, नित कर्म निष्ठ ।
पिक बयनी मधुऋतु से प्रति वत्सर अभिनंदित,
नव आम्र मंजरी मलय तुम्हें करता अर्पित ।
प्रावृट् में तव प्रांगण घन गर्जन से हर्षित,
मरकत कल्पित नव हरित प्ररोहों में पुलकित !
शशि मुखी शरद करती परिक्रमा कुंद स्मित,
वेणा में खोंसे काँस, कान में कुँई लसित ।
हिम तुमको करता तुहिन मोतियों से भूषित,
बहु सोन कोक युग्मों से तव सरि-सर कूजित ।
अभिराम तुम्हारा बाह्य रूप, मोहित कवि मन,
नभ के नीलम संपुट में तुम मरकत शोभन !
पर, खोल आज निज अंतःपुर के पट गोपन
चिर मोह मुक्त कर दिया, देव ! तुमने यह जन !
राम राम,
हे ग्राम देवता, रूढि धाम !
तुम स्थिर, परिवर्तन रहित, कल्पवत् एक याम,
जीवन संघर्षण विरत, प्रगति पथ के विराम,
शिक्षक तुम, दस वर्षो से में सेवक, प्रणाम ।
कवि अल्प, उडुप मति, भव तितीर्षु-दुस्तर अपार,
कल्पना पुत्र में, भावी द्रष्टा, निराधार,
सौन्दर्य स्वप्नचर, - नीति दंडधर तुम उदार,
चिर परंपरा के रक्षक, जन हित मुक्त द्वार ।
दिखलाया तुमने भारतीयता का स्वरूप,
जन मर्यादा का स्त्रोत शून्य चिर अंध कूप,
जग से अबोध, जानता न था मैं छाँह धूप,
तुम युग युग के जन विश्वासों के जीर्ण स्तूप !
यह वही अवध ! तुलसी की संस्कृति का निवास !
श्री राम यहीं करते जन मानस में विलास !
अह, सतयुग के खँडहर का यह दयनीय ह्रास !
वह अकथनीय मानसिक दैन्य का बना ग्रास !!
ये श्रीमानों के भवन आज साकेत धाम !
संयम तप के आदर्श बन गए भोग काम !
आराधित सत्व यहाँ, पूजित धन, वंश, नाम !
यह विकसित व्यक्तिवाद की संस्कृति ! राम राम !!
श्री राम रहे सामंत काल के ध्रुव प्रकाश,
पशुजीवी युग में नव कृषि संस्कृति के विकास;
कर सके नहीं वे मध्य युगों का तम विनाश,
जन रहे सनातनता के तब से क्रीत दास !
पशु-युग में थे गणदेवों के पूजित पशुपति,
थी रुद्रचरों कुंठित कृषि युग की उन्नति ।
श्री राम रुद्र की शिव में कर जन हित परिणति,
जीवन कर गए अहल्या की, थे सीतापति !
वाल्मीकि बाद आए श्री व्यास जगत वंदित,
वह कृषि संस्कृति का चरमोन्नत युग था निश्चित;
बन गए राम तब कृष्ण, भेद मात्रा का मित,
वैभव युग की वंशी से कर जन मन मोहित !
तब से युग युग के हुए चित्रपट परिवर्तित,
तुलसी ने कृषि मन युग अनुरूप किया निर्मित ।
खोगया सत्य का रूप, रह गया नामामृत,
जन समाचरित वह सगुण बन गया आराधित !
गत सक्रिय गुण बन रूढ़ि रीति के जाल गहन
कृषि प्रमुख देश के लिए होगए जड़ बंधन ।
जन नही, यंत्र जीवनोपाय के अब वाहन,
संस्कृति के केन्द्र न वर्ग अधिप, जन साधारण !
उच्छिष्ट युगों का आज सनातनवत् प्रचलित,
बन गई चिरंतन रीति नीतियाँ, - स्थितियाँ मृत ।
गत संस्कृतियाँ थी विकसित वर्ग व्यक्ति आश्रित,
तब वर्ग व्यक्ति गुण, जन समूह गुण अब विकसित ।
अति मानवीय था निश्चित विकसित व्यक्तिवाद,
मनुजों में जिसने भरा देव पशु का प्रमाद ।
जन जीवन बना न विशद, रहा वह निराह्लाद,
विकसित नर नर-अपवाद नही, जन-गुण-विवाद ।
तब था न वाष्प, विद्युत का जग में हुआ उदय,
ये मनुज यंत्र, युग पुरुष सहस्त्र हस्त बलमय ।
अब यंत्र मनुज के कर पद बल, सेवक समुदय,
सामंत मान अब व्यर्थ, - समृद्ध विश्व अतिशय ।
अब मनुष्यता को नैतिकता पर पानी जय,
गत वर्ग गुणों को जन संस्कृति में होना लय;
देशों राष्ट्रों को मानव जग बनना निश्चय,
अंतर जग को फिर लेना वहिर्जगत आश्रय ।
राम राम,
हे ग्राम्य देवता, यथा नाम ।
शिक्षक हो तुम, मै शिष्य, तुम्हे सविनय प्रणाम ।
विजया, महुआ, ताड़ी, गाँजा पी सुबह शाम
तुम समाधिस्थ नित रहो, तुम्हें जग से न काम !
पंडित, पंडे, ओझा, मुखिया औ' साधु, संत
दिखलाते रहते तुम्हें स्वर्ग अपवर्ग पंथ ।
जो था, जो है, जो होगा- सब लिख गए ग्रंथ,
विज्ञान ज्ञान से बड़े तुम्हारे मंत्र तंत्र ।
युग युग से जनगण, देव ! तुम्हारे पराधीन,
दारिद्र्य दुःख के कर्दम में, कृमि सदृश लीन !
बहु रोग शोक पीड़ित, विद्या बल बुद्धि हीन,
तुम राम राज्य के स्वप्न देखते उदासीन !
जन अमानुषी आदर्शो के तम से कवलित,
माया उनको जग, मिथ्या जीवन, देह अनित;
वे चिर निवृत्ति के भॊगी, -त्याग विराग विहित,
निज आचरणों में नरक जीवियों तुल्य पतित !
वे देव भाव के प्रेमी, पशुओं से कुत्सित,
नैतिकता के पोषक, - मनुष्यता से वंचित;
बहु नारी सेवी, - पतिव्रता ध्येयी निज हित,
वैधव्य विधायक, - बहु विवाह वादी निश्चित ।
सामाजिक जीवन के अयोग्य, ममता प्रधान,
संघर्ष विमुख, अटल उनको विधि का विधान ।
जग से अलिप्त वे, पुनर्जन्म का उन्हे ध्यान,
मानव स्वभाव के द्रोही, श्वानों के समान ।
राम राम,
हे ग्राम देव, लो ह्रदय थाम,
अब जन स्वातंत्र्य युद्ध की जग मे धूम धाम ।
उद्यत जनगण युग क्रांति के लिए बाँध लाम,
तुम रूढ़ि रीति की खा अफीम, लो चिर विराम !
यह जन स्वातंत्र्य नही, जनैक्य का वाहक रण,
यह अर्थ राजनीतिक न, सांस्कृति संघर्षण ।
युग युग की खंड मनुजता, दिशि दिशि के जनगण
मानवता में मिल रहे, - ऐतिहासिक यह क्षण !
नव मानवता में जाति वर्ग होंगे सब क्षय,
राष्ट्रों के युग वृत्तांश परिधि मे जग की लय ।
जन आज अहिंसक, होंगे कल स्नेही, सह्रदय,
हिन्दु, ईसाई, मुसलमान- मानव निश्चय ।
मानवता अब तक देश काल के थी आश्रित,
संस्कृतियाँ सकल परिस्थितियों से थी पीड़ित ।
गत देश काल मानव के बल से आज विजित,
अब खर्व विगत नैतिकता, मनुष्यता विकसित ।
छायाएँ हे संस्कृतियाँ, मानव की निश्चित,
वह केन्द्र, परिस्थितियो के गुण उसमे बिम्बित ।
मानवी चेतना खोल युगों के गुण कवलित
अब नव संस्कृति के वसनोम से होगी भूषित ।
विश्वास धर्म, संस्कृतियाँ, नीति रीतियाँ गत
जन संघर्षण में होगी ध्वंस, लीन, परिणत ।
बंधन विमुक्त हो मानव आत्मा अप्रतिहत
नव मानवता का सद्य करेगी युग स्वागत ।
राम राम,
हे ग्राम देवता, रूढिधाम !
तुम पुरुष पुरातन, देव सनातन, पूर्ण काम,
जड़वत्, परिवर्तन शून्य, कल्प शत एक याम,
शिक्षक हो तुम, मे शिष्य, तुम्हें शत प्रणाम ।