हाय, मानवी रही न नारी लज्जा से अवगुंथित,
वह नर की लालस प्रतिमा, शोभा सज्जा से निर्मित !
युग युग की वंदिनी, देह की कारा मे निज सीमित,
वह अदृश्य अस्पृश्य विश्व को, गृह पशु सी ही जीवित !
सदाचार की सीमा उसके तन से है निर्धारित,
पूत योनि वह मूल्य चर्म पर केवल उसका अंकित;
अंग अंग उसका नर के वासना चिह्न से मुद्रित,
वह नर की छाया, इंगित संचालित, चिर पद लुंठित !
वह समाज की नही इकाई, - शून्य समान अनिश्चित,
उसका जीवन मान मान पर नर के है अवलंबित ।
मुक्त ह्रदय वह स्नेह प्रणय कर सकती नहीं प्रदर्शित,
दृष्टि, स्पर्श, संज्ञा से वह होजाती सहज कलंकित !
योनि नही है रे नारी, वह भी मानवी प्रतिष्ठित,
उसे पूर्ण स्वाधीन करो, वह रहे न नर पर अवसित ।
द्वन्द्व क्षुधित मानव समाज पशु जग से भी है गर्हित,
नर नारी के सहज स्नेह से सूक्ष्म वृत्ति हो विकसित ।
आज मनुज जग से मिट जाए कुत्सित, लिंग विभाजित
नारी नर की निखिल क्षुद्रता, आदिम मानों पर स्थित ।
सामूहिक-जन-भाव-स्वास्थ्य से जीवन हो मर्यादित,
नर नारी की ह्रदय मुक्ति से मानवता हो संस्कृत ।