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वह बुड्‌ढा

सुमित्रानंदन पंत - वह बुड्‌ढा

ग्रामीण लोगोंके प्रति बौद्धिक सहानुभूती से ओतप्रोत कविताये इस संग्रह मे लिखी गयी है। ग्रामों की वर्तमान दशा प्रतिक्रियात्मक साहित्य को जन्म देती है।


खड़ा द्वार पर, लाठी टेके,

वह जीवन का बूढा पंजर,

चिमटी उसकी सिकुड़ी चमड़ी

हिलते हड्‌डी के ढाँचे पर ।

उभरी ढीली नसे जाल सी

सूखी ठठरी से है लिपटी,

पतझर में ठूंठे तरु से ज्यों

सूनी अमरबेल हो चिपटी ।

उसका लंबा डील डौल है,

हट्टी कट्टी काठी चौड़ी,

इस खँडहर में बिजली सी

उन्मत्त जवानी होगी दौड़ी !

बैठी छाती की हड्‌डी अब,

झुकी रीढ़ कमठा सी टेढ़ी,

पिचका पेट, गढ़े कंधो पर,

फटी बिवाई से है एड़ी ।

बैठ, टेक धरती पर माथा,

वह सलाम करता है झुककर,

उस धरती से पाँव उठा लेने को

जी करता है क्षण भर !

घुटनों से मुड़ उसकी लंबी

टाँगे जाँघे सटी परस्पर,

झुका बीच में शीश, झुरियों का

झांझर मुख निकला बाहर ।

हाथ जोड़, चौड़े पंजो की

गुँथी अँगुलियों को कर सन्मुख,

मौन त्रस्त चितवन से,

कातर वाणी से वह कहता निज दुख ।

गर्मी के दिन, धरे उपरनी सिर पर,

लुंगी से ढाँपे तन-

नंगी देह भरी बालों से,-

वन मानुस सा लगता वह जन ।

भूखा है - पैसे पा, कुछ गुनमुना

खड़ा हो, जाता वह घर,

पिछले पैरों के बल उठ

जैसे कोई चल रहा जानवर !

काली नारकीय छाया निज

छोड़ गया वह मेरे भीतर,

पैशाचिक सा कुछ - दुःखों से

मनुज गया शायद उसमें मर !

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References :

जनवरी' ४०

Last Updated : October 11, 2012

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