खड़ा द्वार पर, लाठी टेके,
वह जीवन का बूढा पंजर,
चिमटी उसकी सिकुड़ी चमड़ी
हिलते हड्डी के ढाँचे पर ।
उभरी ढीली नसे जाल सी
सूखी ठठरी से है लिपटी,
पतझर में ठूंठे तरु से ज्यों
सूनी अमरबेल हो चिपटी ।
उसका लंबा डील डौल है,
हट्टी कट्टी काठी चौड़ी,
इस खँडहर में बिजली सी
उन्मत्त जवानी होगी दौड़ी !
बैठी छाती की हड्डी अब,
झुकी रीढ़ कमठा सी टेढ़ी,
पिचका पेट, गढ़े कंधो पर,
फटी बिवाई से है एड़ी ।
बैठ, टेक धरती पर माथा,
वह सलाम करता है झुककर,
उस धरती से पाँव उठा लेने को
जी करता है क्षण भर !
घुटनों से मुड़ उसकी लंबी
टाँगे जाँघे सटी परस्पर,
झुका बीच में शीश, झुरियों का
झांझर मुख निकला बाहर ।
हाथ जोड़, चौड़े पंजो की
गुँथी अँगुलियों को कर सन्मुख,
मौन त्रस्त चितवन से,
कातर वाणी से वह कहता निज दुख ।
गर्मी के दिन, धरे उपरनी सिर पर,
लुंगी से ढाँपे तन-
नंगी देह भरी बालों से,-
वन मानुस सा लगता वह जन ।
भूखा है - पैसे पा, कुछ गुनमुना
खड़ा हो, जाता वह घर,
पिछले पैरों के बल उठ
जैसे कोई चल रहा जानवर !
काली नारकीय छाया निज
छोड़ गया वह मेरे भीतर,
पैशाचिक सा कुछ - दुःखों से
मनुज गया शायद उसमें मर !