रोमांचित हो उठे आज नव वर्षा के स्पर्शो से ?
छोटे से आँगन मेरे, तुम रीते थे वर्षो से !
नव द्र्वा के हरे प्ररोहों से अब भरे मनोहर
मरकत के टुकडे से लगते तुम विजड़ित भू उर भर !
जन निवास से दूर, नीड़ म वन तरुओं के छिपकर,
भू उरोज-से उभरे इस एकांत मौन भीटे पर
कोमल शाद्वल अंचल पर लेटा मै स्मित चिन्तापर,
जीवन की हँसमुख हरीतिमा को देखूँ आँखे भर !
एक ओर गहरी खाई में सोया तरुग्रो का तम
केका रव से चकित, बखेरे सुख स्वप्नो का संभ्रम !
और दूसरी ओर मंजरित आम्र विपिन कर मुखरित
मधु में पिंक, पावस में पी-खग करे ह्रदय को हर्षित !
हरित भरित वन नीम उच्छवसित शाखाओं का विह्वल
वक्षभार, हाँ, रहे झुकाए मेरे ऊपर कोमल !