अररर.............
मचा खूब हुल्लड़ हुड़दंग,
घमक घमाघम रहा मृदंग,
उछल कूद, बकवाद, झड़प में
खल रही खुल ह्रदय उमंग
यह चमार चौदस का ढंग ।
ठनक कसावर रहा ठनाठन,
थिरक चमारिन रही छनाछन,
झूम झूम बाँसुरी करिंगा
बजा रहा, बेसुध सब हरिजन,
गीत नृत्य के सँग है प्रहसन !
मजलिस का मसखरा करिंगा,
बना हुआ है रंग बिरंगा,
भरे चिरकुटों से वह सारी
देह, हँसाता खूब लफंगा,
स्वाँग युद्ध का रच बेढंगा !
बँधा चाम का तवा पीठ पर,
पहुँचे पर बद्धी का हंटर,
लिए हाथ में ढाल, टेडुही
दुमुँहा सी बलखाई सुंदर,-
इतराता वह बन मुरलीधर !
जमीदार पर फबती कसता,
बाम्हन ठाकुर पर है हँसता,
बातों में वक्रोकित, काकु औ
श्लेष बोल जाता वह सस्ता,
कल काँटा को कह कलकत्ता ।
घमासान हो रहा है समर,
उसे बुलाने आए अफसर,
गोला फट कर आँख उड़ा दे,
छिपा हुआ वह, उसे यही डर,
खौफ न मरने का रत्ती भर ।
'काका' उसका है साथी नट,
गदके उस पर जमा पटापट,
उसे टाकता- 'गोली खाकर
आँख जायगी, क्यों बे नटखट?
भुन न जायगा भुनगे सा झट?'
'गोली खाई ही है!' चल हट!'
'कई,- भाँग की!' वा; मेरे भट!'
सच, काका !' 'भगवान राम,
सीसे की गोली!' रामधे?' 'विकट!'
गदका उस पर पड़ता चटपट ।
वह भी फौरन बद्धी कस कर
काका को देता प्रत्युत्तर,
खेत रह गए जब सब रण में
वह तब निधड़क, गुस्से में भर,
लड़ने को निकला था बाहर !
खट्टू उसके गुन पर हरिजन,
छेड़ रहा वंशी फिर मोहन,
तिरछी चितवन से जन मन हर
इठला रही चमारिन छन् छन्
ठनक कसावर बजता ठन ठन !
ये समाज के नीच अधम जन,
नाच कूद कर बहलाते मन,
वर्णो के पद दलित चरण ये
मिटा रहे निज कसक औ कुढन,
कर उछृंखलता, उद्धतपन ।
अररर...................
शोर, हँसी, हुल्लड़, हुडदंग,
धमक रहा धाग्ड़ाङ मृदंग,
मार पीट, बकवास, झडप में
रंग दिखाती महुआ, भंग
यह चमार चौदस का ढंग !