तुम भाव प्रवण हो ।
जीवन प्रिय हो, सहनशील, सह्रदय हो, कोमल मन हो ।
ग्राम तुम्हारा वास रूढ़ियों का गढ है चिर जर्जर,
उच्च वंश मर्यादा केवल स्वर्ण-रत्नप्रभ पिंजर ।
जीर्ण परिस्थितीयाँ ये तुम में आज हो रही बिम्बित,
सीमित होती जाती हो तुम, अपने ही में अवसित ।
तुम्हे तुम्हारा मधुर शील कर रहा अजान पराजित,
वृद्ध हो रही हो तुम प्रतिदिन, नही हो रही विकसित ।
नारी की सुंदरता पर मै होता नही विमोहित,
शोभा का ऐश्वर्य मुझे करता अवश्य आनंदित ।
विशद स्त्रीत्व का ही मै मन में करता हँ नित पूजन,
जब आभा देही नारी आह्लाद प्रेम कर वर्षण
मधुर मानवी की महिमा से भू को करती पावन ।
तुम में सब गुण है -तोड़ो अपने भय कल्पित बंधन,
जड़ समाज के कर्दम से उठकर सरोज सी ऊपर
अपने अंतर के विकास से जीवन के दल दो भर ।
सत्य नही बाहर नारी का सत्य तुम्हारे भीतर,
भीतर ही से करो नियंत्रित जीवन को, छोड़ो डर !