सब दिन होत न एक समान, होत न एक समान ॥
एक दिन राजा हरिश्चन्द्र घर, सम्पत्ति मेरु समान ।
कबहुँक दास स्वपच गृह बस कर, अम्बर गहत मसान ॥ १ ॥
कबहुँक राम जानकीके संग, विचरत पुष्प विमान ।
कबहुँक रुदन करत हम देखे, माधो सघन-उद्यान ॥ २ ॥
राजा युधिष्ठिर धरम-सिंहासन, अनुचर श्रीभगवान ।
कबहुँक द्रौपदी रुदन करत है, चीर दुशासन ठान ॥ ३ ॥
कबहुँक दुल्हा बनत बराती, वहुँ दिशि मंगल गान ।
कबहुँक मृत्यु होत पल छिनमें, कर लम्बे पद यान ॥ ४ ॥
कबहुँक जननीं जनत अंक विधि, लिखत लाभ अरु हानि ।
‘सूरदास’ यों सब जग झूठो, विधना अंक प्रमान ॥ ५ ॥