नाथ ! थारे सरणे आयोजी ।
जचे जिसतरां, खेल खिलाओ, थे मन चायो जी ॥१॥
बोझो सभी उतर् यो मनको, दुख बिनसायो जी ।
चिन्ता मिटी, बड़े चरणोंको सहारो पायो जी ॥२॥
सोच फिकर अब सारो थारे ऊपर आयो जी ।
मैं तो अब निश्विन्त हुयो अन्तर हरखायो जी ॥३॥
जस अपजस सब थारो, मैं तो दास कुहायो जी ।
मन भँवरो थारे चरण कमलमें जा लिपटायो जी ॥४॥