मो सम कौन कुटिल खल कामी ।
जिन तनु दियो ताहि बिसरायो, ऐसो नमकहरामी ॥१॥
भरि-भरि उदर विषयको धायो, जैसे सूकर-ग्रामी ।
हरिजन छाँड़ि हरि विमुखनकी, निसि-दिन करत गुलामी ॥२॥
पापी कौन बढ़ो जग मोते, सब पतितनमें नामी ।
‘सूर’ पतितको ठौर कहाँ है, तुम बिनु श्रीपति स्वामी ॥३॥