हिंदी सूची|हिंदी साहित्य|भजन|सूरदास भजन|श्रीकृष्ण माधुरी| पद २०६ से २१० श्रीकृष्ण माधुरी पद १ से ५ पद ६ से १० पद ११ से १५ पद १६ से २० पद २१ से २५ पद २६ से ३० पद ३१ से ३५ पद ३६ से ४० पद ४१ से ४५ पद ४६ से ५० पद ५१ से ५५ पद ५६ से ६० पद ६१ से ६५ पद ६६ से ७० पद ७१ से ७५ पद ७६ से ८० पद ८१ से ८५ पद ८६ से ९० पद ९१ से ९५ पद ९६ से १०० पद १०१ से १०५ पद १०६ से ११० पद १११ से ११५ पद ११६ से १२० पद १२१ से १२५ पद १२६ से १३० पद १३१ से १३५ पद १३६ से १४० पद १४१ से १४५ पद १४६ से १५० पद १५१ से १५५ पद १५६ से १६० पद १६१ से १६५ पद १६६ से १७० पद १७१ से १७५ पद १७६ से १८० पद १८१ से १८५ पद १८६ से १९० पद १९१ से १९५ पद १९६ से २०० पद २०१ से २०५ पद २०६ से २१० पद २११ से २१७ श्रीकृष्ण माधुरी - पद २०६ से २१० `श्रीकृष्ण माधुरी` पदावलीके संग्रहमें भगवान् श्रीकृष्णके विविध मधुर वर्णन करनेवाले पदोंका संग्रह किया गया है, तथा मुरलीके मादकताका भी सरस वर्णन है । Tags : shrikrishnasuradasश्रीकृष्णसूरदास पद २०६ से २१० Translation - भाषांतर २०६.राग सारंगयह मुरली मोहिनी कहावै ।सप्त सुरनि मधुरी कहि बानी जल थल जीव रिझावै ॥१॥उहिं रिझए सुर अस्रु कपट रचि, तिन कौं बस्य करावै ।पुट एकै इत मद उत अमृत आपु अँचै अँचवावे ॥२॥याके गुन ए सब सुख पावत, हम कौं बिरह बढावै ।सूरदास याकी यह करनी स्यामै नीकें भावै ॥३॥२०७.मुरली तै हरि हमैं बिसारी ।बन की व्याधि कहा यह आई, देति सबै मिलि गारी ॥१॥घर घर तैं सब निठुर कराईं महा अपत यह नारी ।कहा भयौ जौ हरि मुख लागी, अपनी प्रकृति न टारी ॥२॥सकुचित हौ याकौं तुम काहैं, कहौ न बात उघारी ।नोखी सौति भई यह हम कौं, औरु नाहिं कहुँ कारी ॥३॥इनहू तैं अरु निठुर कहावति, जो आई कुल जारी ।सूरदास ऐसी को त्रिभुवन, जैसी यह अनखारी ॥४॥२०८.राग मारु आई कुल दाहि निठुर मुरली यह माई ।याकौं रीझे गुपाल, काहूँ न लखाई ॥१॥जैसी यह करनि करी, ताहि यह बडाई ।कैसे बस रहत भए, यह तौ टुनहाई ॥२॥दिन दिन यह प्रबल होति, अधर अमृत पाई ।मोहन कौं इहिं तौ कुछ मोहिनी लगाई ।सूरज प्रभ कौं ता बिनु और नहिं सुहाई ॥४॥२०९.राग बिलावल मुरली हरि कौं अपनौ करि लीन्हौ माई ।जोइ कहै सोई करैं अति हरष बढाई ॥१॥घर बन सँग लीन्हे फीरैं, कहुँ करत न न्यारी ।राधा आधा अंग है, ताहू ते प्यारी ॥२॥सोवत जागत चलत हूँ, बैठत रस वासौं ।दूरि कौन सौं होइगी, लुबधे हरि जासौं ॥३॥अब काहे कौं झखति हौ, वह भई लडैती ।सूर स्याम की भावती वह अतिर्हि चढैती ॥४॥२१०.मुरली भई रहति लडबौरी ।देखति नाहिं रैनिहू बासर, कैसी लावति ढोरी ॥१॥कर पै धरी अधर के आगैं राखति ग्रीव निहोरी ।पूरत नाद स्वाद सुख पावत, तान बजावत गौरी ॥२॥आयसु लिए रहत ताही कौ, डारी सीस ठगोरी ।सूर स्याम की बुधि चतुराई, लीन्ही सबै अँजोरी ॥३॥ N/A References : N/A Last Updated : September 06, 2011 Comments | अभिप्राय Comments written here will be public after appropriate moderation. Like us on Facebook to send us a private message. TOP