१६.
राग नटनारायन
बलि गइ बालरुप मुरारि।
पाइँ पैंजनि रटति रुन झुन, नचावति नँद नारी ॥१॥
कबहुँ हरि को लाइ अँगुरी चलन सिखवती ग्वारि।
कबहुँ हृदै लगाइ हित करि, लेति अंचल डारि ॥२॥
कबहुँ हरि कौं चितै चूमति, कबहुँ गावति गारि।
कबहुँ लै पीछे दुरावति, ह्याँ नही बनवारि ॥३॥
कबहुँ अँग भूषन बनावति, राइ-नोन उतारि।
’ सूर ’ सुर नर सबै मोहे, निरखि यह अनुहारि ॥४॥
१७.
राग सुहौ
आँगन स्याम नचावही जसुमति नँदरानी।
तारी दै दै गावही मधुरी मृदु बानी ॥१॥
पाइन नुपुर बाजही कटि किंकिन कूजै।
नान्ही एडियनि अरुनता फल बिंब न पूजै ॥२॥
जसुमति गान सुनै स्त्रवन, तब आपुन गावै।
तारि बजावत देखही, पुनि आपु बजावै ॥३॥
केहरि नख उर पर रुरै सुठि सोभाकारी।
मनौ स्याम घन मध्य मैं नव ससि उजियारी ॥४॥
गभुआरे सिर केस है बर घूँघरवारे।
लटकन लटकत भाल है, बिधु मधि गन तारे ॥५॥
कठुला कंठ चिबुक तरैं, मुख दसन बिराजैं।
खंजन बिच सुक आनि कैं मनु पर्यौ दुराजैं ॥६॥
जसुमति सुतै नचावही, छबि देखति जिय तैं।
सूरदास प्रभु स्याम कौ मुख टरत न हिय तैं ॥७॥
१८.
राग आसावरी
अद्भुत इक चितयौ हौं सजनी, नंद महर कैं आँगन री।
सो मैं निरखि अपनपौ खोयौ, गई मथानी मागन री ॥१॥
बाल दसा मुख कमल बिलोकत, कछु जननी सौं बोलैं री।
प्रघटति हँसत दँतुलि मनु सीपज दमकि दुरे दल ओलैं री ॥२॥
सुंदर भाल तिलक गोरोचन मिलि मसि बिंदुका लाग्यौ री।
मनु मकरंद अँचे रुचि कै अलि सावक सोइ न जाग्यौ री ॥३॥
कुंडल लोल कपोलन झलकत, मनु दरपन मैं झाई री।
रही बिलोकि बिचारि चारु छबि, परमिति कहूँ न पाई री॥४॥
मंजुल तारन की चपलाई, चित चतुराई करषै री।
मनौ सरासन धरैं काम कर भौंह चढै सर बरषै री ॥५॥
जलधि थकित जनु काग पोत कौ कूल न कबहूँ आयौ री।
ना जानौं किहि अंग मगन मन, चाहि रही नहि पायौ री ॥६॥
कहँ लगि कहौं बनाइ बरनि छबि, निरखत मति गति हारी री।
’ सूर ’ स्याम के एक रोम पै देउँ प्रान बलिहारी री ॥७॥
१९.
आजु गई हौं नंद भवन मैं, कहा कहौ गृह चैन री ।
चहूँ और चतुरंग लच्छमी, कोटिक दुहियत धेन री ॥१॥
घूमि रही जित तित दधि मथनी, सुनत मेघ धुनि लाजै री।
बरनौ कहा सदन की सोभा, बैकुंठा तै राजै री ॥२॥
बोलि लई नव बधू जानि जहँ खेलत कुँवर कन्हाई री।
मुख देखत मोहिनी सी लागी, रुप न बरन्यो जाई री ॥३॥
लटकन लटकि रह्यौ भ्रू ऊपर, रँग-रँग मनि-गन पोहे री।
मानो गुरु सनि सुक्र एक ह्वै, लाल भाल पै सोहे री ॥४॥
गोरोचन कौ तिलक, निकटही काजर-बिंदुका लाग्यौ री।
मनौ कमल कौ पी पराग अलि साबक सोई न जाग्यौ री ॥५॥
बिधु आनन पै दीरघ लोचन, नासा लटकत मोती री।
मानौ सोम संग करि लीने, जानि आपने गोती री ॥६॥
सीपज माल स्याम उर सोहै, बिच बघनह छबि पावै री।
मनौ द्वैज ससि नखत सहित है उपमा कहत न आवै री ॥७॥
सोभा सिंधु अंग अंगनि प्रति बरनत नाहिन ओर री।
जित देखौ मन भयौ तही कौ, मनौ भरे कौ चोर री ॥८॥
नरनौ कहा अंग अँग सोभा, भरी भाव जल रास री।
लाल गुपाल बाल छबि बरनत कबि कुल करिहैं हास री ॥९॥
जो मेरी अँखियनि रसना होती, कहती रुप बनाइ री।
चिर जीवै जसुधा कौ ढोटा, सूरदास बलि जाइ री ॥१०॥
२०.
( माधौ ) तनक सौ बदन, तनक से चरन भुज,
तनक से कर पर तनक सौ माखन।
तनक सी बात कहै, तनक तनकि रहै,
तनक सौ रिझि रहै, तनक से साधन ॥१॥
तनक कपोल, तनक सी दँतुली, तनक हँसनि पै हरत सबनि मन।
तनकै तनक जु ’ सूर ’ निकट आवै,
तनक कृपा कै दीजै तनकै सरन ॥२॥
श्रीनन्दपत्नी बालवेषधारी श्यामपर बलिहारी जाती है, वे उन्हे नचाती है, ( जिससे मोहनके ) चरणोंके नूपुर रुनझुन शब्द कर रहे है । कभी व्रजरानी हरिको अँगुली पकडाकर चलना सिखलाती हैं और कभी प्रेमपूर्वक हृदयसे लगा लेती है तथा अञ्चलसे ढक लेती है । कभी मोहनको देखकर चूमती है, कभी गाली गाती है, कभी पकडकर पीछे छिपा देती है ( और गोपियोंसे हँसती हुई कहती है- ) ’ वनमाली यहाँ नही है । ’ कभी अंगोमे आभूषण सजाकर राई-नोन उतारती है । सूरदासजी कहते है कि ( भगवान श्रीकृष्णका ) यह रुप देखकर सभी देवता एवं मनुष्य मोहित हो जाते है ॥१६॥
नन्दरानी यशोदाजी श्यामसुन्दरको आँगनमे नचा रही है और ( साथ-साथ ) ताली बजा-बजाकर मधुर कोमल स्वरमे गा रही है । ( मोहनके ) चरणोमे नूपुर बज रहे है तथा कमरमे किंकिणी शब्द कर रही है । नन्ही नन्ही एडियोमे इतनी लालिमा है कि ( पका हुआ ) बिम्बफल भी उसकी समता नही कर पाता । मैया यशोदाजीका गान जब कानोसे सुनते है, तब वे स्वयं भी गाने लगते है और उन्हे ताली बजाते देख स्वयं भी ताली बजाते है । ( नाचनेके कारण ) अत्यधिक शोभा देनेवाला बघनखा वक्षस्थलपर ( इस प्रकार ) झूल रहा है मानो श्याम मेघोंके बीचमे नवीन ( द्वितीयाका ) चन्द्रमा प्रकाश फैला रहा हो । मस्तकपर सुन्दर गर्भ-समयके ( कोमल ) घुँघराले केश है और ललाटपर लटकन इस प्रकार लटक रहा है जैसे चन्दमाके बीचमे तारागण हों । ठुड्डीके नीचे गलेमे कठुला है तथा मुखमे दाँत शोभा दे रहे हैं । ( नेत्रोंके मध्यमे नासिका ऐसी शोभा पा रही है ) मानो दो खञ्ज्न पक्षियोंके बीचमे आकर तोता ( इस ) दुविधामे पड गया है ( कि वह उडे या बैठा रहे ) ॥१७॥
( कोई गोपी दुसरी गोपीसे कहती है- ) ’ सखी ! ( जब ) मैं ( नन्दरानीसे ) मथानी माँगने गयी, तब वहाँ नन्दजीके आँगनमे एक अद्भुत दृश्य देखा और उसे देखकर मैंने अपनापन ही खो दिया ( अपने-आपको ही भूल गयी ) । ( माता ) अपने पुत्रके बाल्यभावयुक्त मुखकमलको जब देखती थी, तब मोहन ( भी ) मातासे कुछ ( अस्पष्ट ) बोलते थे । हँसते समय दँतुलियाँ इस प्रकार प्रकट होकर छिप जाती थी मानो मोती चमककर फिर कमलदलकी आडमे छिप गये हों । सुन्दर ललाटपर गोरोचनके तिलकसे सटकर ( ही ) कज्जलकी बेंदी लगी थी । वह ऐसी लगती थी मानो रुचिपूर्वक ( कमलका ) मकरन्द पीकर भौंरेका बच्चा सोया हो, अभी जगा न हो । कपोलोंपर चञ्चल कुण्डल ऐसे झलकते थे जैसे दर्पणमे उनका प्रतिबिम्ब पड रहा हो । उस सुन्दर छटाको देखकर मै सोचती रह गयी परंतु उस ( शोभा ) की थाह कही मिलती ही न थी । मञ्जुल नेत्रोके गोलकोंकी चपलता चित्तकी चतुरता ( चञ्चलता ) को खींच लेती थी । ( साथ ही ) तनी हुई भौंहोको देखकर ऐसा लगता था मानो कामदेव धनुष हाथमे ले, डोरी चढाकर बाणोंकी वर्षा कर रहा हो । जैसे समुद्रपर उडते हुए जहाजके कौवेको थक जानेपर कभि किनारा नही मिलता, वैसे ही मेरे मनका पत नही ( कि वह श्यामके ) किस अंगमे मग्न ( लीन ) हो गया; उसे मैं ढूंढकर हार गयी,पर पा न सकी । उस शोभाका विस्तारसे कहाँतक वर्णन करुँ, उसे तो देखते ही बुद्धि कुण्ठित हो गयी है । श्यामसुन्दरके एक रोमपर मै अपने प्राण न्योछावर कर देना चाहती हूँ ॥१८॥
( कोई गोपी कहती है- सखी ! ) आज मै नन्द-भवनमे गयी थी, सो उस घरके आनन्दका क्या वर्णन करु? वहाँ चारो ओर चारो प्रकारकी लक्ष्मी ( सम्पत्ति, सुन्दरता, कीर्ति और अनुकूल स्वजन ) दीख पडती थी और करोडो गाये दुही जा रही थी । जहाँ-तहाँ दहीकी मथानियाँ घूम रही थी, जिनका शब्द सुनकर मेघ-गर्जना भी लज्जित हो जाती है । उस भवनकी शोभा क्या वर्णन करुँ, वह तो वैकुण्ठसे भी अधिक शोभित था । ( यशोदाजीने मुझे ) नयी बहू समझकर वहाँ बुला लिया, जहाँ कुँवर कन्हाई खेल रहे थे । उनका मुख देखते ही मुझे तो मोहिनी-सी लग गयी । ( मै मुग्ध हो गई, जिससे ) उस रुपका वर्णन नही हो सकता । भौंहतक लटकन लटक रहा था, जिसमे अनेक रंगोकी मणियाँ पिरोई हुई थी । वे ऐसी लगती थीए मानो लाल ( कुँवर ) के ललाटपर बृहस्पति, शनि और शुक्र एकत्र होकर शोभा दे रहे हो । गोरोचनके तिलकके पास ही कज्जलका बिन्दु ( डिठौना) लगा था मानो कमलका पराग चाटकर भौंरेका बच्चा सो गया है और अभी जगा नही है। चन्द्रमुखपर बडे-बडे नेत्र है; नाकमे मोतियोंकी बाली झूल रही है मानो चन्द्रमाने अपने सम्बन्धी ( अपने पिता समुद्रसे उत्पन्न छोटे भाई ) समझकर उन्हे साथ ले लिया हो । श्यामके वक्षस्थलपर मोतियोंकी माला शोभित है और उसके बीचमे बघनखा ( ऐसी ) शोभा दे रहा है मानो द्वितीयाका चन्द्रमा नक्षत्रोंके साथ हो; किंतु ( उसकी ) यह उपमा भी ठीक नही कही जा सकती । अंग-प्रत्यंगकी शोभा समुद्रके समान अपार होनेके कारण ( उसका ) वर्णन करते हुए अन्त नही मिलता । जहाँ देखती थी, मन वहींका हो जाता था मानो भरे ( धन-धान्यसे पूर्ण ) घरका चोर हो ( जो एक-से-एक बढकर वस्तुओंको अदल-बदल करनेके कारण कुछ भी चुरा न सके ) अंग-प्रत्यंगकी शोभा का वर्णन क्या करुं मानो भाव ( प्रेम ) की जलराशि भरी हो। गोपाललालकी बालोचित शोभाका वर्णन करनेमे तो कविकुलका उपहासमात्र बनना होगा ( कि अवर्णनीय वर्णनका मैंने दुस्साहस किया है ) । यदि मेरी आँखोको जिह्वा होती तो अवश्य उस रुपका भलीभाँति वर्णन कर सकती थी । ( क्योंकि देखा तो नेत्रोंने है । मैं तो इतना ही कहती हूँ- ) यशोदाका ( वह ) लाल चिरंजीवी हो ! ( जिसपर ) सूरदास बलिहारी है ॥१९॥
श्यामसुंदरका छोटा-सा मुख, छोटे-छोटे चरण और भुजाएँ है और छोटे-से हाथपर तनिक-सा मक्खन लिये है । ( वे ) छोटे-छोटे वाक्य बोलते हैं, तनिक-सी बातपर रुठ जाते हैं, ( देखनेमें ) छोटे-से तो वे है ही, तनिक-से साधनसे प्रसन्न हो जाते है । छोटे-से ( उनके ) कपोल है, छोटी-छोटी दँतुलियाँ हैं ( और ) तनिक-से हँसनेपर सबका मन हरण कर लेते है । सूरदासजी कहते है कि प्रभु ! यदि तनिकमे भी तनिक ( मैं ) आपके पास आ ( सम्मुख हो ) जाऊँ तो तनिक कृपाकर तनिक-सी शरण दे दीजियेगा ॥२०॥