२६.
सखि री, नंद नंदन देखु।
धूरि धूसर जटा जुटली, हरि किएँ हर भेषु ॥१॥
नील पाट पिरोइ मनि गन फनिंग धोखैं जाइ।
खुनखुना कर हँसत हरि, हर नचत डौंरु बजाइ ॥२॥
जलज माल गुपाल पहिरैं, कहा कहौं बनाइ।
मुंड माला मनौ हर गर ऐसी सोभा पाइ ॥३॥
स्वाति सुत माला बिराजत स्याम तन इहिं भाइ।
मनौ गंगा गौरि डर हर लई कंठ लगाइ ॥४॥
केहरी नख निरखि हिरदैं रहि नारि बिचारि।
बाल ससि मनु भाल तैं लै उर धर्यौ त्रिपुरारी ॥५॥
देखि अंग अनंग झिझक्यौ, नंद सुत हर जान।
’ सूर ’ के हिरदै बसौ नित स्याम सिव कौ ध्यान ॥१६॥
२७.
देखो माई ! दधि सुत मैं दधि जात।
एक अचंभौ देखि सखी री, रिपु मैं रिपु जु समात ॥१॥
दधि पै कीर, कीर पै पंकज, पंकज के द्वै पात ।
यह सोभा देखत पशु पालक फूले अंग न मात ॥२॥
बारंबार बिलोकि सोचि चित नंद महर मुसुक्यात।
यहै ध्यान मन आनि स्याम कौ सूरदास बलि जात ॥३॥
२८.
बिहरत बिबिध बालक संग।
डगनि डगमग पगनि डोलत धूरि धूसर अंग ॥१॥
चलत मग, पग बजति पैंजनि, परसपर किलकात।
मनौ मधुर मराल छौना बोलि बैन सिहात ॥२॥
तनक कटि पै कनक करधनि छीन छबि चमकाति।
मनौ बासव बलि पठाए जीव कबि कछु कहत ॥४॥
ललित लट छिटकाति मुख पै, देति सोभा दून।
मनु मयंकै अंक लीन्हौ सिंहिका कैं सून ॥५॥
कबहुँ द्वारैं दौरि आवत, कबहुँ नंद निकेत।
’ सूर ’ प्रभु कर गहति ग्वालिनि चारु चुंबन हेत ॥६॥
२९.
राग सूहौ बिलावल
देखि माई, हरि जू की लोटनि। यह छबि निरखि रही नँदरानी,
अँसुवा ढरि ढरि परत करोटनि ॥१॥
परसत आनन मनु रबि-कुंडल,
अंबुज स्त्रवत सीप सुत जोटनि।
चंचल अधर, चरन कर चंचल,
मंचल अंचल गहत बकोटनि॥२॥
लेति छुडाइ महरि कर सौं कर,
दूरि भई देखति दुरि ओटनि।
सूर निरखि मुसुकाइ जसोधा
मधुर मधुर बोलति मुख होटनि॥३॥
३०.
राग बिलावल
भोर भएँ निरखत हरि कौ मुख
प्रमुदित जसुमति, हरषित नंद।
दिनकर किरन कमल ज्यौं बिकसत
निरखत उर उपजत आनंद ॥१॥
बदन उधारि जगावति जननी,
जागौ, बलि गइ, आनँद कंद ।
मनौ मथत सुर सिंधु, फेन फटि
दयौ दिखाई पूरन चंद ॥२॥
जाकौं ईस सेष ब्रह्मादिक
गावत नेति नेति स्त्रुति छंद।
सो गुपाल ब्रज मैं सुनि सुरज
प्रघटे पूरन परमानंद ॥३॥
( कोई गोपी कहती है- ) सखी ! नन्दनन्दको देखो ! धूलिसे मटमैले और जटाके समान उलझी लटोंवाले श्रीहरि ऐसे लगते हैं मानो उन्होंने शंकरजीका वेष धारण किया हो । नीले रेशम ( के धागे ) मे मणियाँ पिरोकर पहनायी गयी है, जो भ्रमसे सर्प-सी प्रतीत होती है । हाथमे खुनखुना ( झुनझुना ) लिये श्याम हँस रहे हैं मानो शंकरजी डमरु बजाकर नाचते हो । गोपालने गलेमें कमलोकी माला पहिन रखी है, उसे भलीभाँति कैसे वर्णन करुँ । वह ऐसी शोभा दे रही है मानो शिवके गले मे मुण्डोंकी माला हो । मोतियोंकी माला श्यामके वक्षस्थलपर इस प्रकार सुशोभित है मानो पार्वतीके भयसे ( भीत ) गंगाजीको शंकरजीने गले लगा लिया हो । ( मोहनके ) हृदयपर बघनखा देखकर गोपियाँ ( इस प्रकार ) सोच रही हैं मानो शंकरजीने बाल ( द्वितीयाके ) चन्द्रमाको ललाटसे उतारकर हृदयपर रख लिया हो । नन्दनन्दनके अंगोको देख और उन्हे शंकर समझकर कामदेव भी झिझक गया ( संकुचित हो गया ) है । सूरदासके हृदयमे इस श्याम ( साँवले ) शंकरका ध्यान नित्य निवास करे ॥२६॥
( कोई गोपी कहती है- ) ’ सखी ! श्रीहरिके चन्द्र-मुखमे दधि ( पुत्रके अंदर पिताको ) जाते देखो । दूसरा आश्चर्य यह देखो कि शत्रु ( चन्द्र ) में शत्रु ( राहु ) प्रवेश कर रहा है ( मुख-चन्द्रमे श्यामवर्ण हाथरुप राहु समा रहा है ) । दधि ( दही-सने मुख ) पर तोता ( नासिका ), तोतेपर ( दो ) कमल ( नेत्र ) और उन कमलोके दो पत्ते ( कान ) है । यह शोभा देखते हुए गोप इतने प्रफुल्लित हो रहे है कि शरीरमे उमंग समाती नही । बार-बार देख और चित्तमे ( अपने लालकी छटाका ) विचार करके व्रजराज नन्दजी मुसकरा रहे है । ’ सूरदासजी श्यामसुन्दरके इसी रुपका चित्तमे ध्यान लाकर उनपर बलिहारी जाते है ॥२७॥
अनेक बालकोंके साथ ( श्याम ) खेल रहे हैं । ( वे ) डगमग ( लडखडाती ) चालसे पाँव-पाँव चल रहे है, परंतु ठीकसे चल नही पाते । शरीर धूलि ( लगने ) से मटमैला हो गया है । मार्गमे चलते समय चरणोंके नूपुर बजनेपर एक-दूसरेको देख ( कुछ इस भाँति ) किलकारी सी कमरमें सोनेकी किंकिणी पतली-सी शोभा लिये ( इस तरह ) चकम रही है मानो ( काली ) कसौटीपर स्वर्णरेखा-सी लिपटी हो । दो पूर्ण विकसित कमल मनोहर कानोंके पीछे छिपे ( खोंसे ) हुए ( इस प्रकार ) चमक रहे हैं मानो इंद्रने ( राजा ) बलिके ( पास ) कुछ कहनेको बृहस्पति और शुक्राचार्यको भेजा हो । सुन्दर अलके मुखपर बिखरी दरवाजेतक दौड आते है और कभी नन्द-भवनमे चले जाते है । सूरदासजी कहते है कि गोपियाँ सुन्दर चुम्बनके लिये मेरे स्वामीका हाथ पकड लेती हैं ॥२८॥
( गोपी कहती है- ) सखी ! श्यामसुन्दरका ( रिसियाकर ) लोटना तो देखो, श्रीनन्दरानी इस शोभाको निहार रही हैं । ( मोहनके ) नेत्ररुपी प्यालोंसे आँसू ढुलक-ढुलक पडते है मानो कुण्डलरुपी दो सूर्य-बिम्ब मुखको छूनेपर एक जोडी-दो ( नेत्ररुपी ) कमल मोती टपका रहे है । ओठ चञ्चल हैं, चरण और हाथ ( भी ) चञ्चल हैं, और मचलते हुए माताका अञ्चल दाँतोंसे खींचते है । व्रजरानी अपना हाथ उनके हाथसे छुडा दूर जाकर आडमे छिपकर देखती है ( कि अब उनका लाल क्या करता है ) । सूरदासजी कहते हैं- यशोदाजी ( पुत्रको रोते तथा लोटते ) देखकर मुसकराती हुई मुख और ओठोंमे ही ( बहुत धीरे-धीरे ) कुछ मधुर-मधुर शब्द बोलती हैं ॥२९॥
प्रातःकाल होनेपर श्यामसुन्दरका मुख देखते हुए यशोदाजी आनन्दित और नन्दजी ( उसी प्रकार ) हर्षित हो रहे हैं, जैसे सूर्यकी किरणोंसे कमलको खिला देखकर हृदयमे आनन्द होता है । माता मुख खोलकर जगाती हुई कह रही हैं- ’ आनन्दकन्द ! मैं तुमपर बलिहारी जाती हूँ जागो ! ’ ( उस समय ऐसी शोभा होती है ) मानो सुरोद्वारा समुद्र-मन्थनके समय फेन फट जानेपर पूर्ण चन्द्रमा दिखलायी पडा हो । जिसके गुण शंकरजी, शेषनाग और ब्रह्मादि देवता गाते है तथा वेदोंके मन्त्र ’ नेति-नेति ’ ( ऐसा नही, वैसा नही ) कहकर ( निषेधमुखसे ) वर्णन करते है, सूरदासजी कहते है, सुना है व्रजमे वे ही पूर्ण परमानन्द गोपालके रुपमे प्रकट हुए है ॥३०॥