२०१.
राग कल्यान.
बाँस बंस बंसी बस सबै जगत स्वामी ।
जाके बस सुर, नर, मुनि, ब्रह्मादिक गुन गुनि गुनि,
बासर निसि कथत निगम नेति नेति बानी ॥१॥
जाकी महिमा अपार, सिव न लहत वार पार,
करता संसार सार ब्रह्म रुप ए हैं ।
सूर नंद सुवन स्याम, जे कहियत अनँत नाम,
अतिही आधीन बस्य, मुरली के ते हैं ॥२॥
२०२.
राग कान्हरौ
जा दिन तैं मुरली कर लीनी ।
ता दिन स्त्रवननि सुनि सुनि सखि !
मन की बात सबै लै दिनी ॥१॥
लोक बेद कुल लाज कानि तजि,
औ मरजाद बचन मिति खीनी ।
तबही तैं तन सुधि बिसराई,
निसि दिनि रहति गुपाल अधीनी ॥२॥
सरद सुधा निधि सरद अंस ज्यौं,
सींचति अमी प्रेम-रस भीनी ।
ता ऊपर सुभ दरस सूर प्रभु,
श्री गुपाल लोचन गति छीनी ॥३॥
२०३.
राग नट
मुरली तौ यह बास की ।
बाजति स्वास नहिं, जानति,
भई रहति पिय पास की ॥१॥
चेतन कौ चित हरति अचेतन,
भूखी डोलति माँस की ।
सूरदास सब व्रजवासिनि सौं,
लिए रहति है गाँस की ॥२॥
२०४.
राग मलार
बाँसुरी बिधि हू तें परबीन ।
कहिए काहि, को ऐसौ, कियौ जगत आधीन ॥१॥
चारि बदन उपदेश बिधाता, थापी थिर चर नीति ।
आठ बदन गरजति गरबीली, क्यों चलिहै यह रीति ॥२॥
बिपुल बिभूति लही चतुरानन एक कमल करि थान ।
हरि कर कमल जुगल पै बैठी, बाढ्यौ यह अभिमान ॥३॥
एक बेर श्रीपति के सिखए उन आयौ गुरु ग्यान ।
याकें तौ नँदलाल लाडिलौ लग्यौ रहत नित कान ॥४॥
एक मराल पीठि आरोहन बिधि भयौ प्रबल प्रसंस ।
इन तौ सकल बिमान किए गोपी जन मानस हंस ॥५॥
श्रीबैकुंठनाथ पुर बासी चाहत जा पद रैनु ।
ताकौं मुख सुखमय सिंघासन, करि बैठि यह एनु ॥६॥
अधर सुधा पी कुल व्रत टार्यौ, नाहिं सिखा नहिं ताग ।
तदपि सूर या नंद सुवन कौ याही सौं अनुराग ॥७॥
२०५.
राग कल्याण
मुरली नहिं करत स्याम अधरनि तैं न्यारी ।
ठाढे ह्वै एक पाँइ रहत तनु त्रिभंग करत
भरत नाद, मुरली, सुनि बस्य पुहुमि सारी ॥१॥
थावर चर चर थावर, जंगम जड जड जंगम,
सरिता उलटै प्रबाह, पवन थकित भारी ।
सुनि सुनि मुनि थकित तान, स्वेद गए ह्वै पषान,
तरु डाँगर धावत खग मृगनि सुधि बिसारी ॥२॥
उकठे तरु भए पात, पाथर पै कमल जात,
आरज पथ तज्यौ नात, ब्याकुल नर नारी ।
रीझे प्रभु सूर स्याम, बंसी रव सुखद धाम ,
बासरहू जाम नाहिं जाति कतहुँ टारी ॥३॥