६१.
राग धनाश्री
गोपी तजि लाज संग स्याम रंग भूली।
पूरन मुख चंद देखि नैन कोइँ फूली ॥१॥
कैधौं नव जलद स्वाति चातक मन लाए।
कैधौं बारि बूँद सीप हृदैं हरष पाए ॥२॥
रबि छबि कैधौं निहारि पंकज बिकसाने।
कैधौं चक्रवाकि निरखि पतिहि रति माने ॥३॥
कैधौं मृग जूथ जुरो, मुरली धुनि रीझे।
सूर स्याम मुख मंडल छबि कैं रस भीजे ॥४॥
६२.
राग सोरठ
बडौ निठुर बिधना यह देख्यौ
जब तैं आजु नंदनंदन छबि बार-बार करि पेख्यौ ॥१॥
नख, अँगुरी, पग, जानु, जंघ, कटि रचि कीन्हौ निरमान।
हृदै, बाहु, कर, अंस अंग अँग, मुख सुंदर अति बान ॥२॥
अधर, दसन, रसना रस बानी, स्त्रवन, नैन, अरु भाल।
सूर रोम प्रति लोचन देतौ, देखत बनत गुपाल ॥३॥
सूरदासजीके शब्दोमे गोपियाँ आपसमे कह रही हे- सखी ! जबसे आज बार-बार नन्दनन्दनकी शोभा देखी है, तबसे यह विधाता बडा निष्ठुर दिखाई पड रहा है । उसने मोहनके नख, अँगुलियाँ, चरण, पिंडलियाँ, जाँघे एवं कमरका निपुणताके साथ निर्माण किया; वक्षःस्थल, भुजाएँ, हाथ, कंधे, मुख तथा अंग-प्रत्यंग बडी ही सुन्दर और सुडौल, ओठ, दाँत, जिह्वाकी रसभरी वाणी, कान, नेते और ललाट ( सब सुन्दर ) रचे । किंतु हमारे प्रत्येक रोममें वह आँखे ( भी ) देता, तब ( कही ) ( ऐसे सुन्दर ) गोपालको देखते बनता । ( दो आँखे तो जिस अंगपर लगती है, वहीकी हो जाती है । पूरा शरीर देखनेको मिलता ही नही । ) ॥६२॥
६३.
राग गूजरी
स्याम अँग जुबती निरखि भुलानी।
कोउ निरखति कुंडल की आभा, इतनेहिं माझ बिकानी ॥१॥
ललित कपोल निरखि कोउ अटकी, सिथिल भई ज्यौं पानी।
देह गेह की सुधि नहिं काहू, हरषित कोउ पछितानी ॥२॥
कोउ निरखति अधरनि की सोभा, फुरति नहीं मुख बानी ॥३॥
कोउ चक्रित भईं दसन चमक पै, चकचौंधी अकुलानी।
कोउ निरखति दुति चिबुक चारु की, सूर तरुनि बिततानी ॥४॥
६४.
राग सारंग
ऐसौ गोपाल निरखि तन मन धन वारौं।
नव किसोर, मधुर मुरति, सोभा उर धारौं ॥१॥
अरुन तरुन कमल नैन, मुरली कर राजै।
ब्रज जन मन हरन बेनु मधुर मधुर बाजै ॥२॥
ललित बर त्रिभंग सु तनु बनमाला सोहै।
अति सुदेस कुसुम पाग कौं को है ॥३॥
चरन रुनित नूपुर, कटि किंकिन कल कुजै।
मकराकृत कुंडल छबि सूर कौन पूजै ॥४॥
६५.
सुंदर मुख की बलि बलि जाउँ।
लावनिनिधि, गुन निधि, सोभा निधि,
निरखि निरखि जीवत सब जाउँ ॥१॥
अंग अंग प्रति अमित माधुरी,
प्रघटित रस रुचि ठावहिं ठाउँ।
तामैं मृदु मुसुक्यानि मनोहर,
न्याइ कहत कबि मोहन नाउँ ॥२॥
नैन सैन दै दै जब हेरत
ता छबि पर बिनु मोल बिकाउँ।
सूरदास प्रभु मदनमोहन छबि
सोभा की उपमा नहिं पाउँ ॥३॥
गोपियाँ लज्जा छोडकर श्यामसुन्दरके रंग ( प्रेम ) में ( अपने-आपको ) भूल उनके संग हो गयी और ( उनके ) पूर्णचन्द्रके समान मुखको देखकर उनके नेत्ररुपी कुमुदिनियाँ फूल ( खिल ) उठी । ऐसा लगता था मानो स्वाती नक्षत्रके नवीन मेघमें चातकोंने अपना चित्त लगा लिया हो अथवा ( स्वातीकी ) वर्षाका बिन्दु पाकर मुक्ता-सीप मनमे हर्षित हो उठे हो, अथवा सूर्यकी शोभा देखकर आनन्द मनाया हो, अथवा वंशीकी ध्वनिपर रीझकर मृगोंका दल एकत्र हो गया हो । सूरदासजी कहते है कि वे ( सब इस प्रकार ) श्यामसुन्दरके मुखमण्डलकी शोभाके आनन्दमें निमग्न हो गयी ॥६१॥
सूरदासजीके शब्दोमे गोपियाँ आपसमे कह रही हे- सखी ! जबसे आज बार-बार नन्दनन्दनकी शोभा देखी है, तबसे यह विधाता बडा निष्ठुर दिखाई पड रहा है । उसने मोहनके नख, अँगुलियाँ, चरण, पिंडलियाँ, जाँघे एवं कमरका निपुणताके साथ निर्माण किया; वक्षःस्थल, भुजाएँ, हाथ, कंधे, मुख तथा अंग-प्रत्यंग बडी ही सुन्दर और सुडौल, ओठ, दाँत, जिह्वाकी रसभरी वाणी, कान, नेते और ललाट ( सब सुन्दर ) रचे । किंतु हमारे प्रत्येक रोममें वह आँखे ( भी ) देता, तब ( कही ) ( ऐसे सुन्दर ) गोपालको देखते बनता । ( दो आँखे तो जिस अंगपर लगती है, वहीकी हो जाती है । पूरा शरीर देखनेको मिलता ही नही । ) ॥६२॥
व्रजकी युवतियाँ श्यामके अंगको देखकर ( अपने-आपको ) भूल गयी । कोई कुण्डलकी कान्ति देख इतनेमे ही बिक गयी है ( मोहित हो गई है ) । कोई मनोहर कपोल देखकर स्तब्ध हो ऐसी द्रवित हो गयी जैसे जल हो। किसीको शरीरका और भवनका स्मरण ही नही है, कोई आनन्दित हो रही है और कोई ( पूरा श्रीअंग न देख पानेपर ) पश्चात्ताप कर रही है । कोई सुन्दर नाक ही देखती रह गयी, इसका किसीको पता नही लगा । कोई ओठोंकी शोभा देखती थी; पर उसके मुखसे ( उनके वर्णन करनेके लिये ) शब्द ही नही निकल पा रहे थे । कोई दाँतोकी चमकपर ही चकित हो उसकी चकाचौंधसे व्याकुल हो उठी, है, कोई सुन्दर ठुड्डीकी कान्ति देख रही है । सूरदासजी कहते है कि सभी व्रजयुवतियाँ ( प्रेमसे ) बेचैन हो रही है ॥६३॥
( कोई सखी कहती है, सखी ! ) ऐसे गोपालको देखकर उनपर तन, मन और धन-सर्वस्व न्यौछावर कर इन नवीन किशोरकी मधुर मूर्तिकी शोभा हृदयमें रख लूँ । ( उस मधुर मूर्तिके ) पूर्ण विकसित लाल कमलके समान नेत्र हैं, हाथमें मुरली शोभित है । व्रजके लोगोंका चित्त हरण करनेवाली ( वह ) वंशी अत्यन्त मधुर स्वरसे बज रही है । उस सुन्दर श्रेष्ठ त्रिभंगयुक्त शरीरपर वनमाला शोभित है, अत्यन्त सुन्दर कुसुंभी पगडीकी उपमायोग्य कौन-सा पदार्थ है । चरणोंमे नूपुर रुनझुन करते है, कमरमें किंकिणी सुन्दर ध्वनि कर रही है । सूरदासजी कहते है कि ( उनके ) मकराकृत कुण्डलोंकी छटाको कौन पहुँच सकता है ॥६४॥
( मोहनके ) सुन्दर मुखकी शोभापर बार-बार बलिहारी जाती हूँ । उस लावण्यकी निधि, गुणोंकी निधि तथा शोभाकी निधिको देख-देखकर ही सारा गोकुल गाँव जी रहा है । अंग-प्रत्यंगका अपार माधुर्य स्थान-स्थानपर सरस रुचि उत्पन्न कर रहा है, उसमे भी ( उनकी ) मनोहर मन्द मुसकानके कारण कविगुण इनका ’ मोहन ’ नाम यथार्थ ही कहते है । आँखोसे संकेत करके जो देखते है, उस शोभापर तो बिना मूल्यके बिक जाती हूँ । सूरदासजी कहते हैं- ( मैं अपने ) स्वामी मदनमोहनकी छटा एवं सौन्दर्यकी ( कही ) उपमा नहीं पाता हूँ ॥६५॥