१५६.
मुरली धुनि स्त्रवन सुनत भवन रहि न परै।
ऐसी को चतुर नारि, धीरज मन धरै ॥१॥
सुर, नर, मुनि सुनत सुधि न, सिव समाधि टरै।
अपनी गति तजत पवन, सरिता नहिं ढरै ॥२॥
मोहन सुख मुरली मन मोहिनि बस करै।
सूरदास सुनत स्त्रवन सुधा सिंधु भरै ॥३॥
१५७.
राग कान्हरौ
( माई री ) मुरली अति गरब काहू बदति नाहिं आजु।
हरि के मुख कमल देस पायौ सुख राजु ॥१॥
बैठति कर पीठि ढीठि अधर छत्र छाँहि।
राजति अति चँवर चिकुर सुरद सभा माहि ॥२॥
जमुना के जलै नाहिं जलधि जान देति।
सुरपुर तैं सुर बिमान यह बुलाइ लेति ॥३॥
स्थावर चर, जंगम जड करति जीति जीति।
बिधि की बिधि मेटि करति अपनी नइ रीति ॥४॥
बंसी बस सकल सूर, सुर नर मुनि नाग।
श्रीपति हू सुधि बिसरी, याही अनुराग ॥५॥
१५८.
राग गौरी
मुरली मोहे कुँवर कन्हाई।
अँचवति अधर सुधा बस कीन्हे
अब हम कहा करैं री माई ॥१॥
सरबस लै हरि धर्यो सबन कौ,
औसर देति न होति अघाई।
गाजति, बाजति, चढी दुहूँ कर,
अपने सबद न सुनत पराई ॥२॥
जिहिं तन अनल दह्यौ अपनी कुल,
तासौं कैसे होत भलाई।
अब सुनि सूर कौन बिधि कीजै,
बन की ब्याधि माझ धर आई ॥३॥
१५९.
राग मलार.
मुरली तऊ गुपालै भावति।
सुनि री सखी, जदपि नँदलाल नाना भाँति नचावति ॥१॥
राखति एक पाइ ठाढौ करि, अति अधिकार जनावति।
कोमल तन आग्या करवावति, कटि टेढी ह्वै आवति ॥२॥
अति आधीन सुजान कनौडे गिरिधर नार नवावति।
आपुन पौढी अधर सिज्जा पै कर पल्लव पलुटावति ॥३॥
भृकुटी कुटिल, नैन, नासा पुट हम पै कोप करावति।
सूर प्रसन्न जानि एकौ छिन धर तै सीस डुलावति ॥४॥
१६०.
स्याम तुम्हारी मदन मुरलिका नेसुक सी जग मोह्यो।
जेते जीव, जंतु जल थल के, नाद स्वाद सब पोह्यो ॥१॥
जे तप ब्रत किए तरनि सुता तट, पन गहि पीठि न दीन्ही।
ता तीरथ तप के फल लैंके स्याम सुहागिनि कीन्ही ॥२॥
धरनि, धरी, गोबरधन राख्यौ कोमल पानि अधार।
अब हरि लटकि रहत टेढे ह्वै तनक मुरलि के भार ॥३॥
धन्य सुघरी सील कुल छाँडे, राँची वा अनुराग।
अब हरि सींचि सुधा रस मेटत तन के पहले दाग ॥४॥
निदरि हमै अधरनि रस पीवति, पढी दूतिका भाइ।
सूरदास कुंजनि तै प्रगटी, चेरि सौति भइ आइ ॥५॥