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श्रीकृष्ण माधुरी - पद ४६ से ५०

इस पदावलीके संग्रहमें भगवान् श्रीकृष्णके विविध मधुर वर्णन करनेवाले पदोंका संग्रह किया गया है, तथा मुरलीके मादकताका भी सरस वर्णन है ।


४६.
राग केदारी
देखि री देखि आनंद कंद ।
चित्त चातक प्रेम घन, लोचन चकोरन चंद ॥१॥
चलित कुंडल गंड मंडल झलक ललित कपोल।
सुधा सर जनु मकर क्रीडत इंदु डह डह डोल ॥२॥
सुभग कर आनन समीपै मुरलिका इहिं भाइ।
मनु उभै अंभोज भाजन लेत सुधा भराइ ॥३॥
स्याम देह दुकूल दुति मिलि लसति तुलसी माल।
तडित घन संजोग मानौ स्त्रोनिका सुक जाल ॥४॥
अलक अबिरल, चारु हास बिलास, भृकुटी भंग।
सूर हरि की निरखि सोभा भई मनसा पंग ॥५॥

४७.
राग मलार
देखौ, माई, सुंदरता कौ सागर।
बुधि बिबेक बल पार न पावत,
मगन होत मन नागर ॥१॥
तन अति स्याम अगाध अंबुनिधि,
कटि पट पीत तरंग।
चितवत चलत अधिक रुची उपजति,
भँवर परति सब अंग ॥२॥
नैन मीन, कमराकृत कुंडल,
भुज सरि सुभग भुजंग।
मुक्ता माल मिली मानौ द्वै,
सुरसरि एकै संग ॥३॥
कनक खचित मनिमय आभूषन, मुख स्त्रम कन सुख देत।
जनु जलनिधि मथि प्रगट कियौ ससि,
श्री अरु सुधा समेत ॥४॥
देखि सरुप सकल गोपी जन,
रहीं बिचारि बिचारि।
तदपि सूर तरि सकीं न सोभा, रही प्रेम पचि हारि ॥५॥

४८.
राग भैरवी
जैसी जैसी बातै करै कहत न आवै री।
सावरो सुंदर कान्ह अति मन भावै री ॥१॥
मदन मोहन बेनु मृदु, मृदुल बजावै री।
तान की तरंग रस, रसिक रिझावै री ॥२॥
जंगम थावर करै, थावर चलावै री।
लहरि भुअंग त्यागि सनमुख आवै री ॥३॥
ब्योम यान फूल अति गति बरसावै री।
कामिनि धीरज धरै, को सो कहावै री ॥४॥
नंदलाल ललना ललचि ललचावै री।
सूरदास प्रेम हरि हियैं न समावै री ॥५॥

४९.
राग कल्यान
बने बिसाल अति लोचन लोल।
चितै चितै हरि चारु बिलोकनि,
मानौ माँगत है मन ओल ॥१॥
अधर अनूप, नासिका सुंदर,
कुंडल ललित, सुदेस कपोल।
मुख मुसुक्यात महा छबि लागति,
स्त्रवन सुनत सुठि मीठे बोल ॥२॥
चितवति रहति चकोर चंद ज्यौं,
नैकु न पलक लगावति डोल।
सूरदास प्रभु कैं बस ऐसे,
दासी सकल भईं बिनु मोल ॥३॥

५०.
राग धनाश्री
ब्रज जुबती हरि-चरन मनावैं।
जे पद कमल महामुनि दुरलभ, सपनेहूँ नहिं पावैं ॥१॥
तन त्रिभंग, जुग एक पग ठाढे, इक दरसाएं।
अंकुस कुलिस ध्वजा जौ परघट, तरुनी मन भरमाए ॥२॥
वह छबि देखि रहीं इकटकही, मन मन करत बिचार।
सूरदास मनु अरुन कमल पै सुषमा करति बिहार ॥३॥

( गोपी कहती है- ) सखी ! देख, आनन्दकन्दको देख तो ? ये चित्तरुपी चातकके लिये प्रेमसे बने हुए मेघ और नेत्ररुपी चकोरोंके लिये चन्द्रमा है । गण्डस्थल ( कानोंके नीचेका भाग ) पर हिल रहे कुण्डलोंकी झलक सुन्दर कपोलोंपर पड रही है । ऐसा प्रतीत होता है मानो अमृतके सरोवरोंमे ( दो ) मगरोंको खेलते देखकर ( उनके भयसे ) चन्द्रमा थर-थर काँप रहा हो । मुखके पास मनोहर हथोंमे मुरली इस प्रकार सुशोभित है मानो दो कमलके बर्तनोंमे ( वह ) अमृत भरवा रही हो । श्याम शरीर तथा पिताम्बरकी कान्तिसे मिलकर तुलसीकी माला इस प्रकार शोभित है मानो बिजलीसे युक्त मेघमे तोतोंके समूहकी पंक्ति बाँध रखी हो । घनी अलके, बडा सुन्दर विलासपूर्वक हँसना और टेढी ( धनुषाकार ) भौंहे है । सूरदासजी कहते हैं कि श्यामकी ( यह ) शोभा देखकर मनकी गति पंगु हो गयी । ( मन निश्चल हो गया ) ॥४६॥

( गोपी कहती है- ) सखी ! ( श्यामसुन्दरके इस ) सौन्दर्यरुप सागरको देखो, बुद्धिमानोंका मन भी ( अपनी ) बुद्धिके विचार-बलसे ( इसका ) पार ( किनारा ) न पाकर ( उस सौंदर्य-सागरमे ) मग्न हो ( डूब ) जाता है । ( आपका ) अगाध समुद्रकी भाँति अत्यन्त श्याम शरीर है, कटिदेशका पीताम्बर तरंग है, जिस समय ( चारो ओर ) देखते हुए चलते है, उस समय उनके प्रति अधिकाधिक अनुराग उत्पन्न होता है । उनका इस प्रकार चलना ही सागरके सम्पूर्ण अंगोमे पडते हुए भँवर है । नेत्र मछलियाँ है, कुण्डल मगरके समान है और सुन्दर भुजाएँ सर्पोंकी समता कर रही हैं तथा मोतियोंकी माला ऐसी लगती है मानो दो गंगाकी धाराएँ एक साथ मिल रही हो । सोनेके संयोगसे बने हुए मणिमय आभूषण और मुखपर और मुखपर पसीनेकी बूँदे इस प्रकार आनन्द दे रही है मानो समुद्र-मन्थन करके लक्ष्मी और अमृतके साथ चंद्रमा प्रकट किया गया हो । सूरदासजी कहते हैं- सभी गोपियाँ ( मोहनके ) स्वरुपको देखकर बार-बार विचार करके तथा प्रेमपूर्वक प्रयत्न करके थक गयी, तो भी उस शोभाका किनारा न पा सकी ( उसीमे मुग्ध होकर निमग्न हो गयी ) ॥४७॥
( गोपी कहती है- ) सखी ! साँवला सुन्दर कन्हाई हृदयको अन्यत प्रिय लगता है । वह जैसी-जैसी बाते करता है, उनका वर्णन नही हो सकता । वह मदनमोहन अत्यन्त मृदुल स्वरमें वंशी बजाता है और ( उसकी ) तान-तरंगोके रससे रसिकोंको रिझाता-प्रसन्न करता है । चर ( पशु-पक्षी आदि ) को जड ( के समान निश्चेष्ट ) और जड ( वृक्षादि ) को चला देता ( द्रवित कर देता ) है । सर्प भी लहर ( विष तथा कुटिल गति ) छोडकर ( उनके ) सम्मुख आ जाता है । आकाशसे ( देवताओंके ) विमान अत्यन्त वेगसे पुष्पोकी वर्षा करते है । ऐसी कौन-सी नारी है, जो ( मोहनको देखकर ) धैर्य रख सके और धैर्यधारिणी कहला सके । सूरदासजी कहते है कि श्यामसुन्दर व्रजकी गोपियोंपर ( स्वयं ) मुग्ध होकर उन्हे भी मोहित करते है, ( जिससे ) उनके हृदयमे मोहनका प्रेम समाता नही ॥४८॥
श्रीहरिके विशाल एवं चञ्चल नेत्र बहुत ही भले लगते है, सुन्दर चितवनसे देख-देखकर वे मानो मनको रुपमें माँग रहे है। अनुपम ओठ, सुन्दर नाक, मनोहर कुण्डल, सुघर कपोल, मुसकराते समय मुखकी बडी शोभा होती है तथा उनके शब्द कानोंमें सुननेपर बहुत ही मोठे लगते है। जैसे चकोर चन्द्रमाको बिना हिले-डुले अपलक देखता रहता है। सूरदासजी कहते है, उसी प्रकार मेरे स्वामीके वशमें हो गयी हैं मानो सब-की-सब उनकी बिना मूल्यकी दासी हो ॥४९॥

जो चरण-कमल महामुनियोंको भी दुर्लभ हैं, स्वप्नमें भी जिन्हे वे नही पाते, व्रज-युवतियाँ ( उन्ही ) श्रीहरिके चरणोंको मनाती ( सामने देख रही ) है । शरीरको ( घुटने, कमर तथा गर्दन- ) तीन स्थानोंसे टेढा करके दोनों पिंडलियोंको सटाकर एक चरणपर खडे तथा दूसरे चरणतलके अंकुश, व्रज, ध्वज तथा यवादि चिह्न प्रत्यक्ष दिखाते हुये ( व्रजकी ) युवतियोंका मन मोहित कर रहे हैं । सूरदासजी कहते है कि इस शोभाको वे एकटक देख रही है और मन-ही-मन विचार ( उत्प्रेक्ष ) करती हैं कि मानो अरुण कमलपर साक्षात सुषमा ( सौन्दर्यकी अधिष्ठात्री देवी ) ही क्रीडा कर रही हो ॥५०॥


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Last Updated : November 19, 2010

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