८१.
राग नट
माधौ जू के बदन की सोभा।
कुटिल कुंतल कमल प्रति मनु मधुप रस लोभा ॥१॥
भ्रकुटि इमि नव कंज पर जनु सरत चंचल मीन।
मकर कुंडल छबि किरन रबि परसि बिगसित कीन ॥२॥
सुरभि रेनु पराग रंजित, मुरलि धुनि अलि गुंज।
निरखि सुभग सरोज मुदित मराल सम सिसु पुंज ॥३॥
दसन दामिनि बीच मिलि मनु जलद मध्य प्रकास।
निगम बानी नेती क्यौं कहि सकै सूरदास ॥४॥
८२.
देखि री देखि मोहन ओर।
स्याम सुभग सरोज आनन चारु चित के चोर ॥१॥
नील तनु मनु जलद की छबि, मुरलि सुर घन घोर।
दसन दामिनि लसति बसननि, चितवनी झकझोर ॥२॥
स्त्रवन कुंडल, गंड मंडल उदित ज्यौं रबि भोर।
बरहि मुकुट बिसाल माला, इंद्र धनु छबि थोर ॥३॥
धातु चित्रित भेष नटवर, मुदित नवल किसोर।
सूर स्याम सुभाइ आतुर, चितै लोचन कोर ॥४॥
८३.
राग कल्यान
माधौ जू के तन की सोभा कहत नही बनि आवै।
अँचवत सादर दुहुँ लोचन पुट, मन नाही तृपितावै ॥१॥
सघन मेघ अति स्याम सुभग बपु, तडित बसन, बनमाल।
सिर सिखंड, बन धातु बिराजत सुमन सुरंग प्रबाल ॥२॥
कछुक कुटिल कमनीय सघन अति गोरज मंडित केस।
अंबुज रुचि पराग पर मानौ राजत मधुप सुदेस ॥३॥
कुंडल लोल कपोल किरन गन, नैन कमल दल मीन।
अधर मधुर मुसुकानि मनोहर, करत मदन मन हीन ॥४॥
प्रति प्रति अंग अनंग कोटि छबि, सुनि सखि परम प्रबीन।
सूर दृष्टि जहँ जहाँ परति, तहँ तही रहति ह्वै लीन ॥५॥
८४.
राग हमीर
चितवनि मैं, कि चंद्रिका मैं, किधौं मुरली माझि ठगौ री।
देखत, सुनत मोहैं, जिहि सुर, नर, मुनि, मृग और खगौ री ॥१॥
जब तैं दृष्टि परे मन मोहन, गृह मेरो मन न लगौ री।
सूर स्याम बिनु छिनु न रहौं मैं, मन उन हाथ पगौ री ॥२॥
८५.
राग कल्यान
लाल की रुप माधुरी, निरखि नैकु सखी री।
मनसिज मन हरनि हाँसि, साँवरौ सुकुमार रासि,
नख सिख अंग-अंग निरखि सोभा सींव नखी री ॥१॥
रँगमँगि सिर सुरँग पाग, लटकि रही बाम भाग,
चंपकली कुटिल अलक बीच-बीच रखी री।
आयत दृग अरुन लोल, कुंडल मंडित कपोल,
अधर दसन दीपति छबि क्यौंहुँ न जाति लखी री ॥२॥
अभयद भुजदंड मूल पीन अंस सानुकूल,
कनक मेखला दुकूल दामिनी धरषी री।
उर पै मंदार हार, मुक्ता लर बर सुढार,
मत्त द्विरद गति तियनि की देह-दसा करषी री ॥३॥
मुकुलित बय नव किसोर, वचन रचन चितै चोर,
माधुरी प्रकास मंजरी अनूप चखी री।
सूर स्याम अति सुजान, गावत कल्यान तान,
सप्त सुरनि कल तिहि पर मुरलिका बरषी री ॥४॥
( सखी कहती है- ) श्रीमाधवजीके मुखकी शोभा इस प्रकार है-घुघराली अलके ऐसी लगती हैं, मानो ( दो ) नवीन कमलोपर चंचल मछलियाँ चल रही हों और मकराकृत कुण्डलोंकी शोभा सूर्यकी किरणोंके समान है, जिन्होंने स्पर्श करके नेत्ररुप कमलोंको प्रफुल्लित किया है । श्यामसुन्दरका मुख-कमल गायोंके खुरोसे उडी धूलिरुप परागसे सुशोभित है, तथा मुरलीकी ध्वनि भौंरोकी गुंजार है । उस ( श्यामसुन्दरके मुखरुपी ) मनोहर कमलको देखकर हंसोके समान गोपबालकोंका समूह आनन्दित हो रहा है । विद्युतके समान दाँतोकी कान्ति मध्यमे मिलकर ऐसी लगती है मानो बादलमे ( विद्युतका ) प्रकाश हो । जिनके प्रति वेदवाणी भी ’ नेति-नेति ’ कहती है, उनका वर्णन सूरदास कैसे कर सकता है ॥८१॥
( गोपी कहते है- ) ’ देख, सखी ! मोहनके मुखकी ओर देख । मनोहर नील कमलके समान सुन्दर मुखवाले श्यामसुन्दर चित्तके चोर है । नील शरीरकी मेघके समान आभा है ( और उनकी ) मुरलीका शब्द मेघगर्जन-जैसा है, दाँतो और पीताम्बरके रुपमे मानो विद्युतका प्रकाश हो रहा है ( तथा आपकी ) चितवन ही मानो उस बिजलीके झटके या धक्केके समान है । कानोंके कुण्डल गण्डस्थलपर ऐसे शोभित है मानो प्रातःकालका सूर्य उदित हुआ हो और मयूरपिच्छके मुकुट तथा लंबी ( घुटनोंतक लटकती ) वनमालाके सामने तो इन्द्रधनुषकी शोभा भी कम ही है । ( गेरु आदि ) धातुओंसे चित्रित श्रेष्ठ नटके समान वेषमे ये नवलकिशोर आनन्दपूर्वक आ रहे है । सूरदासजी कहते है कि गोपियाँ श्यामसुन्दरके ऐसे रुपको आँखोकी कोरसे स्वाभाविकरुपमे ही आतुर ( अधीर ) होकर देखती हैं ॥८२॥
( गोपी कहती है- ) माधवजीके शरीरकी शोभा का वर्णन करते नही बनता, दोनो नेत्ररुपी दोनेसे आदरपूर्वक उसका पान करनेपर भी मन तृप्त नही होता। घने मेघके समान अत्यंत सुन्दर श्याम शरीर है, विद्युतके समान वस्त्र है, वनमाला धारण किये है । मस्तकपर मयूरपिच्छ है, ( शरीरमे ) वनकी धातुएँ घिसकर लगायी गयी है, जो बहुत ही भली लगती है । उत्तम रंगके पुष्प तथा कोमल लाल-लाल किसलय ( अंगोपर ) बिराज रहे है । ( मुखपर ) गायोंके खुरोंसे उडी धूलिसे विभूषित अत्यन्त कमनीय घुँघराले घने केश कुछ ऐसी शोभा दे रहे है मानो कमलके परागपर रुचि रखनेवाले ( परागके लिये लालायित ) भौंरे उत्तम ढंगसे मँडराते शोभा दे रहे हो । चञ्चल कुण्डलोंकी किरणोंका समूह कपोलोंपर पड रहा है, कमलकी पँखुडियो तथा मछलियोंके समान नेत्र हैं, अधरोंकी मनोहर मधुर मुस्कराहट कामदेवके भी मनको छोटा बना देनेवाली है ( उस मुस्कुराहटको देखकर कामदेव भी लजा जाता है । ) अरी परम प्रवीण सखी ! सुन, उनके अंग-अंगपर करोडो कामदेवकी शोभा खेल रही है । सूरदासजी कहते है कि ( गोपियोंकी ) दृष्टि जिस-जिस अंगपर पडती है, वही-वही निमग्न हो रहती है ॥८३॥
( गोपी कह रही है- ) सखी ! ( न जाने ) उनकी चितवनमे या चन्द्रिकामें अथवा मुरलीमें ( कौन-सी ऐसी ) मोहिनी है, जिसके देखते-सुनते सुर, नर, मुनि, और पक्षी मोहित हो जाते है । मनमोहन जबसे दृष्टि पडे है, तभीसे मेरा मन घरमें कभी नही लगा है । सूरदासके ( इष्ट ) श्यामसुन्दरके बिना मैं एक क्षण भी नही रह सकती, मेरा मन उनके हाथ पग गया ( उनमे ही अनुरक्त हो गया ) है ॥८४॥
( गोपी कह रही है- ) सखी ! तनिक गोपाल लालकी रुपमाधुरी तो देख । कामदेवका भी मन हरण करनेवाला हास्य है, ( यह ) साँवला सुकुमारताकी राशि है, नखसे चोटीतक देख तो, इसका अंग-प्रत्यंग शोभाकी सीमाको पार कर गया है । मस्तकपर नारंगी ( नारंगी-जैसे रंगवाली ) पगडी बायीं ओर लटक रही है तथा घुँघराली अलकोंके बीच-बीचमे चम्पाकी कलियाँ सजायी गयी है । बडे-बडे अरुनारे चञ्चल नेत्र है, कपोल कुण्डलोंसे शोभित हो रहे है; ( लाल-लाल ) ओठोंकी आभा दाँतोपर इस प्रकार पड रही है कि उनकी शोभा किसी भी प्रकारसे समझी नही जा सकती । भुजद्ण्डका मूल भाग ( कंधेसे मिला हुआ अंश ) अभयका स्थान ( सबको अभय देनेवाला ) और मोटे कंधे बडे सुडौल ( अंगके अनुरुप ) तथा सोनेकी करधनी और पीताम्बरका पटुका विद्युतको भी कान्तिहीन करनेवाले है । वक्षस्थलपर पारिजातके पुष्पोंकी माला तथा सुडौल मोतियोंकी उत्तम माला है तथा ( उनकी ) मतवाले हाथीकी-सी चाल व्रजस्त्रियोंकी देहकी सुधिको खींच लेनेवाली ( उन्हे मोहित कर लेनेवाली ) है । खिलती हुई नयी किशोरावस्था, चित्तको चुरानेवाली वाक्य-रचना ( बोलनेकी शैली ) रुप-माधुर्यकी प्रकाशमान अनुपम मञ्जरीका स्वाद तो ले । सूरदासजी कहते है कि अत्यंत चतुर श्यामसुन्दर कल्याणराग गा रहे है, उसकी तानपर वंशी सातो स्वरोंकी सुन्दर वर्षा कर रही है ॥८५॥