१८६.
राग सारंग
बंसी बैर परी जु हमार ।
अधर पियूष अंस सबहिनि कौ
इन पीयौ सब दिन निज न्यारे ॥१॥
इक धुनि हरि मन हरति माधुरी,
दूजे बचन हरति अनियारे ।
बाँस बंस हिय बेध महा सठ,
अपने छिद्र न जानत गारे ॥२॥
सौंप्यौ सुपति जानि ब्रज कौ पति,
सो अपनाइ लियौ रखवारे ।
सब दिन सही अनीति सूर प्रभु,
श्रीगुपाल जिय अपने धारे ॥३॥
१८७.
राग बिरागरौ
मुरली स्याम अधर नहि टारत ।
बारंबार बजावत, गावत, उर तैं नाहि बिसारत ॥१॥
यह तौ अति प्यारी है हरि की, कहति परस्पर नारी ।
याक बस्य रहत है ऐसे गिरि गोबरधन धारी ॥२॥
लटकि रहत मुरली पर ठाढे, राखत ग्रीव नवाइ ।
सूर स्याम बस ताके डोलत, पलक नही बिसराइ ॥३॥
१८८.
राग रामकली
मुरली क बस स्याम भए री ।
अधरनि तैं नहि करत निनारी, वाके रंग रए री ॥१॥
रहत सदा तन सुधि बिसराएँ, कहा करन धौं चाहति ।
देखी, सुनी न भई आजु लौं, बाँस बँसुरिया दाहति ॥२॥
स्यामै निदरि, निदरि हमहू कौं, अबही तैं यह रुप ।
सुनौ सूर हरि कौ मुह पाएँ बोलति बचन अनूप ॥३॥
१८९.
राग जैतश्री
मुरली स्याम कहाँ तैं पाई ।
करत नाहिं अधरनि तैं न्यारी, कहा ठगोरी ल्याई ॥१॥
ऐसी ढीठि मिलतही ह्वै गइ, उनके मन ही भाई ।
हम देखत वह पियत सुधा रस, देखौ री अधिकाई ॥२॥
कहा भयौ मुँह लागी हरि के, बचनन लिए रिझाई ।
सूर स्याम कौं बिबस करावति, कहा सौति सी आई ॥३॥
१९०.
राग गूजरी.
स्याम मुरली कै रंग ढरे ।
कर पल्लव ताकौं पौढावत, आपुन रहत खरे ॥१॥
बारंबार अधर रस प्यावत, उपजावत अनुराग ।
जे बस करत देव मुनि गंधब्र, ते करि आनी धौं जाइ ।
बन मैं रहति डरी को जानै, कब आनी धौं जाइ ।
सूरज प्रभु की बडी सुहागिनि, उपजी सौति बजाइ ॥३॥