१४१.
राग कान्हरौ
( सजनी ) एई हैं गोपाल गुसाई।
नंद महर के ढोडा, जिनकी सुनियत बहुत बडाई ॥१॥
यह सुरुप नैननि भरि देखौ बडे भाग निधि पाई।
चंद चकोर, मेघ चातक लौं, अवलोकौ मन लाई ॥२॥
सुंदर स्याम सुदेस पीतपट, चन्दन चरचित कीन्हें।
नटबर भेष धरैं मन मोहन, कंध दसन गज लीन्हें ॥३॥
नूपुर चारु चरन, कटि किंकिनि, बनमाला उर सौहे।
कर कंकन मनि कंठ मनोहर, जुबती जन मन मौहे ॥४॥
कुंडल स्त्रवन, सरोज बिलोकनि, कुटिल अलक अलिमाल।
चंद बदन, अवचित जु अमी रस, धन्य धन्य ब्रजबाल ॥५॥
चंद चकोर, स्वाति चातक ज्यौं, अवलोकति सत भाए।
सूरदास प्रभु दुष्ट बिनासन माधौ मथुरा आए ॥६॥
१४२.
देखौ माई ! आवत घनस्याम।
दामिनि ज्यौं पीतांबर सोहत, मोहित कोटिन काम ॥१॥
घूँघरवारी अलक मनोहर मंडित गोपद धूरि।
तिन के निकट प्रगट कुंडल दुति, मनु नव घन में सूर ॥२॥
बनमाला जो हिय कंजनि की, इंद्रधनुष की भाँति।
मुक्तामाला अनूपम राजति, ज्यौं जलधर बग पाँति॥३॥
माथें मुकुट मोर ज्यों निरतत, मुरली सब्द रसाल।
सूरदास प्रभु मेघ स्याम घन, चातक सब ब्रजबाल ॥४॥
१४३.
कहँ लौं कहौं सखि ! सुंदरताई।
मोर पच्छ माथे पैं राजत, फेरत कमल, अंग सुख दाई ॥१॥
पहिरे पीतांबर है ठाढे, बहु बिधि ( सुंदर ) ठाट बनाई।
मुरली अधर मधुर धुनि बाजति, नए मेघ मानौ घहराई ॥२॥
सिर पै लाल पागरी बाँधे, उर मुक्तन की माल रुराई।
जुगल प्रबाह सुरसरी धारा, निरखत कलिमल गए हिराई ॥३॥
बैजंती लटकति चरननि लौं, हंस कीर रहे बैठि लजाई।
सौभा सिंधु, पार नहिं जाकौ, सिव बिरंचि सोचत अधिकाई ॥४॥
बडे भाग प्रगटे जसुदा कैं, घर बैठेंही नव निधि आई।
सूरदास प्रभु नंद अनंदित तिहूँ लोक छिति छबि न समाई ॥५॥
१४४.
राग गूजरी
बसौ मेरे नैननि मैं यह जोरी।
सुंदर स्याम कमल दल लोचन, सँग बृषभानु किसोरी ॥१॥
मोर मुकुट, मकराकृत कुंडल, पीतांबर झकझोरी।
सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस कौ, का बरनौ मति थोरी ॥२॥
१४५.
जब हरि मुरल अधर ।
थिर चर, चर थिर, पवन थकित रहै, जमुना जल न बहत ॥१॥
खग मोहै, मृग जूथ भुलाही, निरखि मदन छबि छरत।
पसु मोहैं, सुरभी बिथकित, तृन दंतनि टेकि रहत ॥२॥
सुक सनकादि सकल मुनि मोहैं, ध्यान न तनक गहत।
सूरदास भाग हैं तिन के, जे या सुखै लहत ॥३॥