११६.
राग धनाश्री
हरि मुख निरखति नागरि नारि।
कमल नैन के कमल बदन पै बारिज डारिय वारि ॥१॥
सुमति सुंदरी सरस पिया रस लंपट माँडी आरि।
हरि जोहारि जु करत बसीठी, प्रथमै प्रथम चिन्हारि ॥२॥
राखति ओट कोटि जतनन करि झाँपति अंचल झारि।
खंजन मनौ उडन कौं आतुर सकत न पंख पसारि ॥३॥
देखि सरुप स्याम सुंदर कौ, रही न पलक सम्हारि।
देखौ सूरज अधिक सूर तन अजौं न मानी हारि ॥४॥
११७.
हरि मुख किधौं मोहनी माई।
बोलत बचन मंत्र सौ लागत, गति मति जाति भुलाई ॥१॥
कुटिल अलक राजति भ्रुव ऊपर जहाँ तहाँ बगराई।
स्याम फाँसि मन करष्यौ हमरौ, अब समुझी चतुराई ॥२॥
कुंडल ललित कपोलन झलकत, इन की गति मैं पाई।
सूर स्याम जुबती मन मोहन ऐ सँग करत सहाई ॥३॥
११८.
राग नट
निरखत रुप नागरि नारि।
मुकुट पै मन अटकि लटक्यौ, जात नहिं निरवारि ॥१॥
स्याम तन की झलक आभा चंद्रिका झलकाइ।
बार बार बिलोकि थकि रहिं, नैन नहिं ठहराइ ॥२॥
स्याम मरकत मनि महानग सिखा निरतत मोर।
देखि जलधर हरष उर मैं, नाहिं आनँद थोर ॥३॥
कोउ कहति सुर चाप मानौ गगन भयौ प्रकास।
थकित ब्रज ललना जहाँ तहँ, हरष कबहुँ उदास ॥४॥
निरखि जो जिहि अंग राँची, तही रही भुलाइ।
सूर प्रभु गुन रासि सोभा रसिक जन सुखदाइ ॥५॥
११९.
राग बिहागरौ
देखि री, देखि सोभा रासि।
काम पटतर कह दीजै, रमा जिन की दासि ॥१॥
मुकुट सीस सिखंड सोहै, निरखि रहिं ब्रज नारि।
कोटि सुर कोदंड आभा झिरकि डारैं वारि ॥२॥
केस कुंचित बिथुरि भ्रुव पै बीच सोभा भाल।
मनौ चंदै अबल जान्यौ, राहु घेर्यौ जाल ॥३॥
चारु कुंडल सुभग स्त्रवनन को सकै उपमाइ ॥४॥
सुभग मुख पै चारु लोचन, नासिका इहि भाँति।
मनौ खंजन बीच सुक मिलि बैठे है इक पाँति ॥५॥
सुभग नासा तर अधर छबि रस धरैं अरुनाइ।
मनौ बिंब निहारि सुक भ्रुव धनुष देखि डराइ ॥६॥
हँसत दसनन चमकताई, ब्रज कन रचि पाँति।
दामिनी, दारिम नही सरि कियौ, मन अति भ्राँति ॥७॥
चिबुक बर चित बित चुरावत, नवल नंद किसोर।
सूर प्रभु की निरखि सोभा भईं तरुनी भोर ॥८॥
१२०.
राग सोरठ
तन मन नारि डारति वारि।
स्याम सोभा सिंधु जान्यौ अंग अंग निहारी ॥१॥
पचि रहीं मन ग्यान करि करि लहतिं नाहिन तीर।
स्याम तन जल रासि पूरन, महा गुन गंभीर ॥२॥
पीतपट फहरानि, मानौ लहरि उठति अपार।
निरखि छबि थकि तीर बैठी, कहूँ वार न पार ॥३॥
चलत अंग त्रिभंग करि कैं, भौंहे भाव कैं, भौंहे भाव चलाइ।
मनौ बिच बिच भँवर डोलत, चित परत भरमाइ ॥४॥
स्त्रवन कुंडल मकर मानौ, नैन मीन बिसाल।
सलिल झलकानि रुप आभा, देखि री नँदला ॥५॥
बाहु दंड भुजंग मानौ जलधि मध्य बिहार।
मुक्त माला मनौ सुरसरि ह्वै चली द्वै धार ॥६॥
अंग अँग भूषन बिराजत, कनक मुकुट प्रभास।
उदधि मथि मनु प्रगट कीन्हौ श्री सुधा परगास ॥७॥
चकित भइँ तिय निरखि सोभा देह गति बिसराइ।
सूर प्रभु छबि रासि नागर, जानि जाननिराइ ॥८॥
( व्रजकी ) चतुर स्त्रियाँ श्यामके मुखको निहारती है और कहती है कि इन कमललोचनके कमल-मुखपर कमलोंको न्योछावर कर दिया जाय । ( इधर ) ये उत्तम बुद्धिवाली सुन्दरियाँ है और ( उधर ) वे रसीले प्रियतम ( मोहन ) रसके लोभी है; अतः दोनोंने झगडा ठान रखा है, पहिले-पहिले पहिचान करनेके लिये श्यामसुन्दर प्रणाम करते स्वयं ( परिचय देते ) दूतका काम कर रहे है । ( उधर गोपी ) अनेक प्रयत्न करके अपने नेत्रोंके आडमे रखती है, अञ्चल झाड ( खींचकर घूँघटसे ) उन्हे ( कुछ इस भाँति ) ढकती है, मानो ( नेत्ररुपी ) खञ्जन उडनेको आकुल होकर भी पंख नही फैला पाते हो । ( वह गोपी ) श्यामसुन्दरके स्वरुपको देखकर पलक मारना भूल गयी । सूरदासजी कहते है, देखो तो इतनेपर भी उसमे अत्यधिक शूरता है, जिससे वह अब भी हार नही मानती ( नेत्रोंको रोकनेके प्रयत्नमे अभी भी लगी है ) ॥११६॥
( गोपी कह रही है- ) सखी ! श्यामका मुख है अथवा मोहिनी ? ये जब ( उस मुखसे ) कुछ बोलते है, तब ( उनके ) शब्द मन्त्रकी भाँति लगते ( प्रभाव करते ) है, ( जिसके कारण ) सारी गति ( क्रियाशक्ति ) और बुद्धि ( विचारशक्ति ) भूल जाती है । भौंहेके ऊपर जहाँ-तहाँ बिखरी घुँघराली अलके शोभा दे रही है, इन्हींमे फँसाकर श्यामने हमारा मन खींच लिया है, इनकी चतुरता अब मैने समझी । मनोहर कपोलोंपर कुण्डल झलक रहे ( आभा डाल रहे ) है, इनका भेद भी मैं पा गयी । सूरदासजी कहते है कि ये युवतियोंका मन मोहित करनेवाले श्यामसुन्दरके साथ रहकर उनकी सहायता करते है ॥११७॥
चतुर नारियाँ ( मोहनका ) रुप देख रही है । ( उनका ) मन मुकुटपर अटककर वही लटक गया ( स्थिर हो गया ), अब वहाँसे छुडाये नही छुटता । श्यामके शरीरकी झलक ( प्रकाश ) मे चंद्रिकाकी आभा प्रतिबिम्बित हो रही है, जिसे बार-बार देखकर वे मुग्ध हो रही है; किंतु नेत्र वहाँ ( चकाचौंधके मारे ) स्थिर नही होते । श्यामसुन्दर मरकत मणिके बडे पर्वत है और उनके मस्तकपर पिच्छके रुपमे मानो मोर नाच रहा है, जिसे देखकर जलधर ( बादल ) के हृदयमे आनन्दकी सीमा नही है, अत्यन्त हर्ष है । ( श्यामसुन्दरको इस भाँति देखकर ) कोई गोपी कहती है- मानो यह इन्द्रधनुष आकाशमे प्रकट हुआ है । व्रजकी स्त्रियाँ जहाँ-तहाँ ( स्थान-स्थानपर ) मुग्ध खडी, कभी ( मोहनके पास आनेपर ) हर्षित और कभी ( दूर जानेपर ) उदास हो जाती है । जिसने जिस अंगको देखा, वह वही अनुरक्त होकर आत्मविस्मृत हो रही । सूरदासजी कहते है- मेरे प्रभु गुणों एवं शोभाकी राशि है और रसिकजनोंको सुख देनेवाले है ॥११८॥
( गोपी कह रही है- ) सखी ! इस शोभाराशिको देख, उनकी तुलना कामदेवसे किस प्रकार की जाय, जिनकी लक्ष्मी सेविका है ! मस्तकपर मयूरपिच्छका मुकुट शोभित है, जिसे व्रजकी स्त्रियाँ देख रही है और करोडो इन्द्रधनुषकी कान्तिको भी तिरस्कार करती ( उनपर ) न्योछावर कर फेंक रही है । भौंहोंतक बिखरे हुए घुँघराले केश ललाटके मध्यमे ऐसे शोभित है, मानो चन्द्रमाको निर्बल समझकर ( पकडनेके लिये ) राहुने जालसे घेर लिया हो । मनोहर कानोंमे सुन्दर कुण्डल है, उनकी उपमा कौन दे सकता है । करोडो-करोडो सूर्योंकी कला और शोभा भी उन ( कुण्डलो ) को देखकर भ्रममे पड जाती है । सुन्दर मुखपर मनोहर नेत्र एवं नासिका इस प्रकार फब रही है । मानो दो खञ्जनोंके मध्य तोता मिलकर एक पंक्तिमे बैठा हो । मनोहर नासिकाके नीचे सरस अरुणिमा लिये ओठोंकी ऐसी छटा है, मानो बिम्बफलको देखकर तोता उसे लेना चाहता हो, किंतु ( पासमे ही ) भौंहेरुपी धनुष देखकर डर रहा हो । हँसते समय दाँत ऐसे चकमते है, मानो हीरेके कणोंकी पंक्ति हो । विद्युत और अनारके दाने भी उनकी तुलनामे नही ठहरते, प्रत्युत मनमे अत्यन्त भ्रान्त हो जाते है । नवल नन्दकिशोरकी श्रेष्ठ ठुड्डी चित्तरुपी धनको चुरा लेती है । सूरदासजी कहते है, मेरे स्वामीकी शोभा देखकर व्रजतरुणियाँ प्रेममे विभोर हो गयी ॥११९॥
( व्रजकी ) नारियाँ ( मोहनपर अपना ) तन-मन न्योछावर कर देती है । अंग-प्रत्यंग निहारकर उन्होने समझ लिया कि श्याम शोभाके समुद्र है । चित्तमे उपाय सोच-सोचकर वे हार गयी; किन्तु ( उसका ) किनारा नही पाती है; ( क्योकि ) श्यामका शरीर महान गुणरुपसमूहरुपी गम्भीर जलराशिसे परिपूर्ण है । पीताम्बरका फहराना क्या है, मानो श्यामशोभा सिन्धुमे अपार लहरे उठ रही हो । इस शोभाको देख वे हारकर किनारे बैठ गयी; ( क्योकि ) इसका तो कही वार-पार ( तट ) उन्हे नही दीख पडता । मन-मोहन अंगोको त्रिभंग बनाकर ( तिरछे झुककर ) चलते हुए ( जब ) भौंहोंको भावसे चलाते ( मटकाते ) है, तब मानो ( ऐसा लगता है कि उस शोभासागरके ) बीचबीचमे भँवर पड रहे हो, जिनमे चित्त भ्रममे पड जाता ( मुग्ध होकर डूब जाता ) है । कानोंके कुण्डल मानो ( उस शोभा-सागरके ) मगर है, नेत्र बडे-बडे मत्स्य है, रुपकी जो कान्ति झलक रही है, वही जल है । ऐसे नन्दलालको सखी ! देख । दोनो धाराओंमे विभक्त होकर प्रवाहित हो चली है । अंग-प्रत्यंगमे आभूषण शोभित है, स्वर्णका मुकुट प्रकाशित हो रहा है, मानो समुद्रका मन्थन करके लक्ष्मी और अमृतका प्रकाश प्रकट कर दिया गया हो । ( व्रज- ) नारियाँ इस शोभाको देखकर आश्चर्यचकित हो गयी, यहाँतक कि वे अपने शरीरकी दशा भी भूल गयी । सूरदासजी कहते है- मेरे स्वामी शोभाकी राशि है, परम चतुर है, उन्हे भाव समझानेवालोंका स्वामी जानना चाहिये ॥१२०॥