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श्रीकृष्ण माधुरी - पद १७१ से १७५

`श्रीकृष्ण माधुरी` पदावलीके संग्रहमें भगवान् श्रीकृष्णके विविध मधुर वर्णन करनेवाले पदोंका संग्रह किया गया है, तथा मुरलीके मादकताका भी सरस वर्णन है ।


१७१.
रास रस मुरली ही तैं जान्यौ।
स्याम अधर पै बैठि नाद कियौ, मारग चंद हिरान्यौ ॥१॥
धरनि जीव जल थल के मोहे, नभ मंडल सुर थाके।
तृन द्रुम सलिल पवन गति भूले, स्त्रवन सब्द पर्‍यौ जाके ॥२॥
बच्चौ नाहि पाताल रसातल, कितक उदै लौं भान।
नारद सारद सिव यह भाषत, कछु तनु रहयौ न स्यान ॥३॥
यह रस रास उपायौ, सुन्यौ न देख्यौ नैन।
नारायन धुनि सुनि ललचाने, स्याम अधर रस बेनु ॥४॥
कहत रमा सौं सुनि सुनि प्यारी, बिहरत है बन स्याम।
सूर कहाँ हम कौं वैसौ सुख, जो बिलसति ब्रज बाम ॥५॥

१७२.
जीती जीती है रन बंसी।
मधुकर सूत बदत, बंदी पिक, मागध मदन प्रसंसी ॥१॥
मथ्यौ मान बल दर्प, महीपति जुबति जूथ गहि आने।
धुनि कोदंड ब्रह्मंड भेद करि, सुर सनमुख सर ताने ॥२॥
ब्रह्मादिक, सिव, सनक सनंदन, बोलत जै जै बाने।
राधा पति सरबस अपनौ दै, पुनि ता हाथ बिकाने ॥३॥
खग मृग मीन सुमार किए सब जड जंगम जित भेष।
छाजत छत, मद मोह कवच कटि, छूटे नैन निमेष ॥४॥
अपनी अपनी ठकुराइति की काढति है भुव रेख।
बैठी पानि पीठि गर्जति है, देति सबनि अवसेष ॥५॥
रवि कौ रथ लै दियौ सोम कौं, षट दस कला समेत।
रच्यौ जन्य रस रास राजसू बृंदा बिपिन निकेत ॥६॥

१७३.
राग जैतश्री
सुनिए, सुनिए हो धरि ध्यान, सुधा रस मुरली बाजै।
स्याम अधर पै बैठि बिराजति, सप्त सुरन मिलि साजै ॥१॥
बिसरी सुधि बुधि गति सबहिनि, सुनि बेनु मधुर कल गान।
मन गति पंगु भईं ब्रज जुबती, गंध्रब मोहे तान ॥२॥
खग मृग थके फलनि तृन तजि क, बछरा पियत न छीर।
सिद्ध समाधि थके चतुरानन लोचन मोचत नीर ॥३॥
महादेव की नारी छूटी, अति ह्वै रहे अचेत।
ध्यान टर्‍यौ, धुनि सौं मन लाग्यौ, सुर मुनि भए सचेत ॥४॥
जमुना उलटि बही अति ब्याकुल, मीन भए हैं, रहे इकटक लौलीन ॥५॥
इंद्रादिक, सनकादिक, नारद, सारद, सुनि आबेस।
घोष तरुन आतुर उठि धाईं तजि पति पुत्र अदेस ॥६॥
श्रीवृंदाबन कुंज कुंज प्रति अति बिलास आनंद।
अनुरागी पिय प्यारी के सँग रस राँचैं सानंद ॥७॥
तिहूँ भुवन भरि नाद प्रकास्यौ, गगन धरनि पाताल।
थकित भए तारागन सुनि कैं, चंद भयौ बेहाल ॥८॥
नटवर भेष धरैं नँद नंदन निरखि बिबस भयौ काम।
उर बनमाल चरन पंकज लौं, नील जलद तन स्याम ॥९॥
जटित जराव मकर कुंडल छबि, पीत बसन सोभाइ ॥
बृंदाबन रस रास माधुरी निरखि सूर बलि जाइ ॥१०॥

१७४.
राग गौरी
छबीले, मुरली नैक बजाउ।
बलि बलि जात सखा यह कहि कहि, अधरसुधा रस प्याउ ॥१॥
दुरलभ जनम लहब बृंदाबन, दुरलभ प्रेम तरंग।
ना जानिए बहुरि कब ह्वै है स्याम ! तिहारौ संग ॥२॥
बिनती करत सुबल श्रीदामा, सुनै स्याम दै कान।
या रस कौ सनकादि सुकादिक करत अमर मुनि ध्यान ॥३॥
कब पुनि गोप भेष ब्रज धरिहौ, फिरिहौ सुरभिनि साथ।
अपनी अपनी कंध कमरिया, ग्वालनि दई डसाइ।
सौंह दिवाइ नंद बाबा की रहे सकल गहि पाइ ॥५॥
सुनि सुनि दीन गिरा मुरलीधर चितए मृदु मुसकाइ।
गुन गंभीर गुपाल मुरलि प्रिय लीन्ही तबै उठाइ ॥६॥
धरि कैं अधर बैंन मन-मोहन कियौ मधुर धुनि गान।
मोहे सकल जीव जल थल के, सुनि वारे तन पान ॥७॥
चलत अधर भृकुटी कर पल्लव, नासा पुट जुग नैन।
मानो नर्तक भाव दिखावत, गति लै नायक मैन ॥८॥
चमकत मोर चंद्रिका माथे, कुंचित अलक सुभाल।
मानौ कमल कोष रस चाखन उडि आई अलि माल ॥९॥
कुण्डल लोल कपोलनि झलकत, ऐसी सोभा देत।
मानौ सुधा सिंधु मैं क्रीडत मकर पान के हेत ॥१०॥
उपजावत गावत गति सुंदर, अनाघात के ताल।
सरबस दियौ मदन मोहन कौं प्रेम हरषि सब ग्वाल ॥११॥
लोलित बैजंती चरनन पै, स्वासा पवन झकोर।
मनो गरबि सुरसरि बहि आई ब्रह्म कमंडल फोरि ॥१२॥
डुलति लता नहिं, मरुत मंद गति सुनि सुंदर मुख बैन।
खग, मृग, मीन अधीन भए सब, कियौ जमुन जल सैन ॥१३॥
झलमलाति भृगु पद की रेखा, सुभग साँवरे गात।
मनु षट बिधु एकै रथ बैठे, उदै कियौ अधिरात ॥१४॥
बाँके चरन कमल, भुज बाँके, अवलोकनि जु अनूप।
मानौ कलप तरोवर बिरवा अवनि रच्यौ सुर भूप ॥१५॥
अति सुख दियौ गुपाल सबनि कौ, सुखदायक जिय जान।
सूरदास चरनन रज माँगत, निरखत रुप निधान ॥१६॥

१७५.
राग सारंग
रीझत ग्वाल, रिझावत स्याम।
मुरली बजावत, सखन बुलावत,
सुबल सुदामा लै लै नाम ॥१॥
हँसत सखा सब तारी दै दै,
नाम हमारौ मुरली लेत।
स्याम कहत अब तुमहु बुलावौं,
अपने कर तै ग्वालनि देत ॥२॥
मुरली लै लै सब बजावत,
काहू पै नहिं आवै रुप।
सूर स्याम तुम्हरे बाजत,
कैसी देखौ राग अनूप ॥३॥

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Last Updated : September 06, 2011

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