९६.
देखि सखि ! हरि को मुख चारु।
मनो छिडाइ लियौ नँद नंदन वा ससि कौ सत सारु ॥१॥
रुप तिलक, कच कुटिल, किरन छबि कुंडल कल बिस्तारु।
पत्रावलि परिवेष, सुमन सरि मिल्यौ मनौ उड दारु ॥२॥
नैन चकोर बिहंग सूर सुनि, पिवत न पावत पारु।
अब अंबर ऐसौ लागत है, जैसी जूठौ थारु ॥३॥
९७.
राग कान्हरौ
देखि री ! हरि के चंचल तारे।
कमल मीन कौ कहँ एती छबि,
खंजनहू न जात अनुहारे ॥१॥
वह लखि निमिष नवत मुरली पर,
कर मुख नैन भए इकचारे।
मनु जलरुह तजि बैर मिलत बिधु,
करत नाद बाहन चुचुकारे ॥२॥
उपमा एक अनुपम उपजति,
कुंचित अलक मनोहर भारे।
बिडरत बिझुकि जानि रथ तैं मृग,
जनु ससंकि ससि लंगर सारे ॥३॥
हरि प्रति अंग बिलोकि मानि रुचि,
व्रज बनितानि प्रान धन वारे।
सूर स्याम मुख निरखि मगन भइँ,
यह बिचारि चित अनत न टारे ॥४॥
९८.
राग सोरठ
हरि मुख निरखत नैन भुलाने।
ए मधुकर रुचि पंकज लोभी, ताहि तैं न उडाने ॥१॥
कुंडल मकर कपोलनि के ढिंग जनु रबि रैनि बिहाने।
भ्रुव सुंदर, नैननि गति निरखत, खंजन मीन लजाने ॥२॥
अरुन अधर, दुज कोटि बज्र दुति, ससि घन रुप समाने।
कुंचित अलक, सिलीमुख, मिलि मनु लै मकरंद उडाने ॥३॥
तिलक ललाट, कंठ मुकुतावलि भूषन मनियन साने।
सूर स्याम रस निधि नागर के, क्यों गुन जात बखाने ॥४॥
९९.
राग केदारौ
देखि री, नवल नंदकिसोर ।
लकुट सौं लपटाई ठाढे, जुबती जन मन चोर ॥१॥
चारु लोचन, हँसि बिलोकनि, देखि कैं चित भोर।
मोहिनी मोहन लगावत, लटकि मुकुट झकोर ॥२॥
स्त्रवन धुनि सुनि नाद पोहत करत हिरदै फोर।
सूर अंग त्रिभंग सुंदर छबि निरखि तृन तोर ॥३॥
१००.
राग कान्हरौ
ब्रज बनिता देखति नँद नन्दन।
नव घन नील बरन, ता ऊपर खौर कियौ तन चंदन ॥१॥
करन बरन तन पीत पिछौरी, उर भ्राजति बनमाल।
निरमल गगन सेत बादर पै, मनौ दामिनी जाल ॥२॥
मुक्ता माल बिपुल बग पंगति, उडत एक भई जाति।
सूर स्याम छबि निरखत जुबती हरष परस्पर होति ॥३॥
( गोपी कह रही है - ) सखी ! हरिके सुन्दर मुखको देख, मानो नन्दनन्दन ( के मुख ) ने ( उस आकाशस्थित ) चन्द्रमाका सच्चा ( यथार्थ ) सार भाग ( पूरा-का पूरा ) छीन लिया हो । ( चन्द्रके ) सौन्दर्यको ( आपके ) तिलकने, श्यामताको कुटिल कचों ( टेढी अलकावलियों ) ने किरणोंकी शोभाको सुन्दर बडे कुण्डलोंने प्रभा ( तेज ) जो ( कपोलोंपर की गयी ) गेरुकी रचनाने ( छीन लिया ) और ( आपके कानोंके पास झूलते हुए ) फूलोंके तुर्रे ऐसे सुन्दर लग रहे है मानो तारागण ( आकाशसे ) टूटकर ( उनकी ) बराबरी करनेको आ मिले हो । सूरदासजी, ( मेरे ) नेत्ररुप चकोर पक्षी ( इस मुखचन्द्रका ) अमृत पान करते हुए थकते नही, अब ( तो ) आकाश ( चन्द्र ) ऐसा लगता है, जैसे जूठा थाल ( हो ) ॥९६॥
( गोपी कह रही है- ) ’ सखी ! श्यामकी चञ्चल पुतलियाँ देख । कमल और मछलियोंमे इतनी शोभा कहाँ है, खञ्जन भी इनके समान नही कहे जा सकते । क्षणभरके लिये देख ! वंशीपर झुके हुए हाथ, मुख और नेत्र एक आधारपर लगे है मानो ( हाथरुपी ) कमल शत्रुता छोडकर ( मुखरुपी ) चन्द्रमासे मिल रहा हो और चन्द्रमा शब्द करता हुआ अपने वाहन ( नेत्ररुप मृग ) को पुचकार रहा हो । घुँघराली घनी मनोहर अलकोंपर एक अनुपम उपमा सूझती है मानो चन्द्रमाने अपने रथके मृगोको डरकर बिदकते ( चौंकते ) देख और आशंकित होकर ( कि ये भाग न खडे हो ) जाल फैला दिया हो । ’ हरिके प्रत्येक अंगको देख और उसपर मुग्ध होकर व्रजकी स्त्रियोंने प्राणरुपी धन न्योछावर कर दिया । सूरदासजी कहते है कि श्यामका मुख देखकर वे आनन्दमग्न हो गयी, उनका चित्त उसीके चिन्तनमे डूब गया, वहाँसे हटाये नही हटता ॥९७॥
( गोपी कहती है- ) श्रीहरिका मुख देखकर नेत्र ( अन्यत्र हटना ) भूल गये है । ये कमल-रसके लोभी भ्रमर है, इसीसे ( मुखकमलसे ) उडते नही । कपोलोंके पास मकराकृत कुण्डल ऐसे लगते है मानो रात्रि बीतनेपर सूर्य उगे हो । सुन्दर भौंहेकी मटकन तथा नेत्रोंकी गति देखकर खञ्जन और मछलियाँ भी लज्जित हो जाती है । लाल-लाल ओठ है; करोडो हीरोंके समान प्रभायुक्त दाँत है, जिन्हे देख ( लज्जित हो ) कर चन्द्रमा बादलोंमे छिप गया है और घुँघराली अलके ऐसी है मानो भौंरेंका झुंड एकत्र होकर पुष्परस लेकर उड रहा हो । ललाटपर तिलक है, गलेमे मोतियोंकी लडी है, मणिजटित आभूषण है । सूरदासजी कहते है- ( ऐसे ) रसके निधान चतुरचुडामणि श्यामसुन्दरके गुण, भला, ( कोई ) कैसे वर्णन कर सकता है ॥९८॥
( गोपी कह रही है- ) ’ सखी ! नवल नन्दकिशोरको देख, ( जो ) ये युवतियोंके मनको चुरानेवाले ( किस प्रकार ) लाठीसे लिपटकर खडे है । इनके मनोहर नेत्रोंसे हँसते हुए देखनेकी भंगी देखकर चित्त मुग्ध हो जाता है और ये मोहन मुकुटकी झकोरके साथ लटककर कुछ मोहिनी-सी डाल जाते है । कानोंमे पैठकर इनकी यह वंशी -ध्वनि हृदयको बेध देती है ( उसमे छेद कर देती है, उसे अपनेमे गूँथ लेती है ) । सूरदासजी कहते है- त्रिभंगसुन्दर ( श्यामके ) श्रीअंगकी शोभा देखकर गोपियाँ ( उसे नजरसे बचानेके लिये ) तृण तोडती है ॥९९॥
व्रजकी स्त्रियाँ नन्दनन्दनको देख रही है- वे नवीन मेघके समान नीलवर्ण है और उसपर वे शरीरमे चन्दनका लेप किये है । स्वर्णके रंगका पीला पटुका शरीरपर है और वक्षःस्थलपर वनमाला शोभा दे रही है मानो निर्मल आकाशमे श्वेत बादलोंके ऊपर वद्युतका जाल फैला हो । मोतियोंकी माला विशाल बगुलोकी पंक्तिके समान है, जो उडते हुए एक होकर शोभा दे रही है । सूरदासजी कहते है- श्यामकी छटा देख युवतियाँ परस्पर ( उसका वर्णन करके ) आनन्दित हो रही है ॥१००॥