१११.
राग रामकली
मनोहर है नैननि की भाँति।
मानौ दूरि करत बल अपने सरद कमल की काँति ॥१॥
इंदीबर राजीव कुसेसय जीते सब गुन जाति।
अति आनंद सुप्रौढा तातै बिकसत दिन औ राति ॥२॥
खंजरीट, मृग, मीन बिचारे उपमा कौं अकुलाति।
चंचल चारु चपल अवलोकन चितै न एक समाति ॥३॥
जब कहुँ परत निमेषै अंतर, जुग समान पल जाति।
सूरदास वह रसिक राधिका निमि पै अति अनखाति ॥४॥
११२.
आजु सखि ! देख स्याम नए ( री ) ।
निकसे आनि अचानक अबही, इत फिरि फिरि चितए (री ) ॥१॥
मैं तब तैं पछिताति यहै, तन नैन न बहुत भए ( री ) ।
जौं बिधना इतनी जानत है, कित दृग दोइ दए ( री ) ॥२॥
सब दै लेउँ लाख लोचन, कहुँ जो कोउ करत नए ( री )।
हरि प्रति अंग बिलोकन कौं मैं प्रन करि कैं पठए ( री ) ॥३॥
अपने चौंप बहुत कहँ पइए, ए हरि संग गए ( री ) ।
थके चरन सुनि सूर मनौ गुन मदन बान बिधाए ( री ) ॥४॥
११३.
राग गूजरी
देखि री, हरि के चंचल नैन।
खंजन मीन मृगज चपलाई नहिं पटतर इक सैन ॥१॥
राजिव दल, इंदीबर सतदल कमल, कुसेसय जाति।
निसि मुद्रित, प्रातहि वे बिकसत, ए बिकसित दिन राति ॥२॥
अरुन, सेत, स्मित झलक पलक प्रति को बरनै उपमाइ।
मनु सरसुति, गंगा, जमुना मिलि आस्त्रम कीन्हौ आइ ॥३॥
अवलोकनि जलधार तेज अति, तहाँ न मन ठैराइ।
सूर स्याम लोचन अपार छबि उपमा सुनि सरमाइ ॥४॥
११४.
राग सोरठ
देखि सखी ! मोहन मन चोरत।
नैन कटाच्छ बिलोकनि मधुरी, सुभग भृकुटि बिबि मोरत ॥१॥
चंदन खौर ललाट स्याम कें, निरखत अति सुखदाई।
मनौ एक सँग गंग जमुन नभ, तिरछी धार बहाई ॥२॥
मलजय भाल, भ्रकुटि रेखा की कबि उपमा इक पाई।
मानौ अर्धचंद्र तट अहिनी सुधा चुरावन आई ॥३॥
भ्रकुटी चारु निरखि ब्रज सुंदरि यह मन करति बिचार।
सूरदास प्रभु सोभा सागर, कोउ न पावत पार ॥४॥
११५.
राग रामकली
देखि री, देखि कुंडल लोल।
चारु श्रवनन ग्रहन कीन्हे, झलक ललित कपोल ॥१॥
बदन मंडल सुधा सरबर, निरखि मन भयौ भोर।
मकर क्रीडत गुप्त परगट, रुप जल झकझोर ॥२॥
नैन मीन, भुवंगिनी भ्रुव, नासिका थल बीच।
सरस मृगमद तिलक सोभा लसति है लगि कीच ॥३॥
मुख बिकास सरोज मानौ जुबति लोचन भृंग।
बिथुरि अलकैं, परी मानौ प्रेम लहरि तरंग ॥४॥
स्याम तनु छबि अमृत पूरन, रच्यौ काम तडाग ।
सूर प्रभु की निरखि सोभा ब्रज तरुनि बडभाग ॥५॥
( सखी कहती है- ) ( श्यामके ) नेत्रोंकी छटा ऐसी मनोहारिणी है, मानो अपने बलसे वह शारदीय कमलकी कान्तिको भी दूर ( तिरस्कृत ) करती है । वे अत्यन्त आनन्दमय तथा शक्तिशाली है, इसलिये ( वे नेत्रकमल ) दिन-रात प्रफुल्लित रहते है । बिचारे ( तुच्छ ) खञ्जन, मृग, मछली ( आपके नेत्रोंकी ) उपमा पानेको अकुलाते-व्याकुल होते है ( किंतु वे इनकी तुलना कर नही सकते ) । ( इन-जैसी ) चञ्चलता और मनोहर चपलतापूर्ण देखनेकी छटाका विचार करनेपर ( इनमेसे ) एक भी उपमा चित्तमे ( तुलना-योग्य ) नही जँचती । जब कभी इनको देखनेमे एक निमेषका भी अन्तर पड जाता है, तब वह पल युगके समान बीतता है । सूरदासजी कहते है वे रसमयी श्रीराधा इसीलिये ( पलकोंके संचालक देवता ) निमिपर अत्यन्त रोष ( क्रोध ) करती है ( कि वे पलक गिराकर मोहनकी शोभा देखनेमे बाधा डालते है ) ॥१११॥
( गोपी कह रही है- ) सखी ! आज नवीन श्याम देखे, जो अभी अचानक इधरसे आ निकले और ( उन्होने ) मेरी ओर बार-बार देखा तभीसे मै यही पश्चात्ताप कर रही हूँ कि ( आज उन्हे देखनेके लिये मेरे शरीरमे बहुत-से नेत्र क्यो न हुए; जब ब्रह्मा यह जानता था ( कि मुझे मोहनका दर्शन होना है ) तो उसने दो ही आँखे क्यो दी । यदि कोई नवीन बना सके तो मै अपना सर्वस्व देकर लाख नेत्र लूँ । श्यामके अंग-प्रत्यंगको देखनेके किले मैने प्रण करके ( दृढ निश्चय करके कि पूरा श्रीअंग देख लूँगी ) मैने इनको उस ओर भेजा, किन्तु अपनी इच्छा ( चाह ) होनेपर भी बहुत-से नेत्र कहाँसे मिले, ( गाँठके ) दोनो भी हरिके साथ चले गये । सूरदासजी कहते है- उनके गुण सुनकर चरण ( ऐसे ) थकित ( ठिठके ) रह गये, मानो कामदेवके बाणसे बिंधे हो ॥११२॥
( गोपी कह रही है- ) अरी ! हरिके चञ्चल नेत्र देख, जिनके एक संकेतकी भी तुलनाके योग्य खञ्जन, मछली तथा मृगशावककी चपलता नही है । लाल कमल, नील कमल, सौ दलोंका कमल, श्वेत कमल आदि जितनी भी जातियोंके कमल है, वे रात्रिमें बन्द रहते है, सबेरे ही खिलते है; किंतु वे हरिके ( नेत्र-कमल तो ) रात-दिन खिले रहते है । प्रत्येक बार पलक उठाते समय ( आपके नेत्रोंमे ) जो अरुणसित-सेत झलक दिखायी देती है, उसे उपमा देकर वर्णन कौन करे । ऐसा लगता है, मानो सरस्वती, गंगा और यमुनाने ( यहाँ ) एकत्र होकर निवास बना लिया हो । देखनेकी भंगी अत्यंत तीव्र जलधारा है, वहाँ मन स्थिर नही रह पाता । सूरदासजी कहते है कि श्यामसुन्दरके नेत्रोंकी शोभा अपार है, उन्हे जो भी उपमा दी जाय वह अपनी चर्चा सुनकर स्वयं लजा जाती है ( कि कहाँ यह और कहाँ मैं ) ॥११३॥
( गोपी कह रही है- ) सखी ! देख, नेत्रोंसे कटाक्षपूर्वक देखनेकी मनोहरतासे और सुन्दर दोनो भौंहेंको मोडते हुए मोहन चित्तको चुरा रहे है । श्यामके ललाटपर चन्दनकी खौर देखनेमे अत्यन्त सुखदायक है; ( वह ऐसी लगती है ) मानो गंगा-यमुनाने आकाशमे एक साथ अपनी तिरछी धारा बहायी हो । ललाटपर लगे चन्दन तथा भौंहोंके बीच काली रेखाकी कविने एक उपमा पायी है-( ऐसा लगता है ) मानो आधे चन्द्रमाके पास सर्पिणी अमृतकी चोरी करने आयी हो । सुन्दर भौंहोंको देखकर व्रजकी सुन्दरियाँ इस प्रकार अपने मनमे विचार करती है कि सूरदासके स्वामी तो शोभाके समुद्र है, उसका पार नही पा सकता ॥११४॥
( गोपी कह रही है- ) सखी ! ( प्यारेके ) चञ्चल कुण्डलोंको देख, ( जिनकी ) सुन्दर झलक कानोंमे पहिननेसे मनोहर कपोलोंपर पड रही है । मुखमण्डल अमृतका सरोवर है, जिसे देखकर मन विमुख हो गया है; ( उस अमृत-सरोवरमे ) छिपते और प्रत्यक्ष होते ( मकराकृत कुण्डलरुप ) मगर रुपजलको हलोर दे-दे खेल रहे है । नेत्र मछलियौ है, भौंहे नागिने है और नासिका बीचका स्थल है; ( वहाँ ) रसमय कस्तूरीके तिलककी शोभा कीचड लगी-जैसी सुशोभित हो रही है । मुख मानो प्रफुल्लित कमल है, जिसपर व्रजयुवतियोंके नेत्ररुपी भौंरे लगे रहते है । बिखरी पडी अलके ऐसी लगती है, मानो प्रेम-हिलोरोंकी तरंगे हो । श्यामसुन्दरके शरीरकी शोभाको कामदेवने अमृतपूर्ण सरोवर ( जैसा ) बनाया है । सूरदासजी कहते है कि मेरे स्वामीकी शोभा देखकर व्रजकी तरुणियाँ अपनेको महान भाग्यशालिनी ( मानती ) है ॥११५॥