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श्रीकृष्ण माधुरी - पद १ से ५

इस पदावलीके संग्रहमें भगवान् श्रीकृष्णके विविध मधुर वर्णन करने वाले पदोंका संग्रह किया गया है , तथा मुरलीके मादकताका भी सरस वर्णन है ।


१ .

राग बिलावल

हरि हरि हरि हरि सुमिरन करौ ।

हरि चरनारबिंद उर धरौ ॥१॥

हरि की कथा होइ जब जहाँ ,

गंगाहू चलि आवै तहाँ ॥२॥

जमुना , सिंधु , सरस्वति आवै ।

गोदावरी विलंब न लावै ॥३॥

सर्ब तीर्थ कौ बासौ तहाँ ,

’ सूर ’ हरि कथा होवै जहाँ ॥४॥

२ .

कमल नैन ससि बदन मनोहर ,

देखौ हो पति ! अति बिचित्र गति ।

स्याम सुभग तन , पीत बसन दुति ,

सोहै बनमाला अद्भुत अति ॥१॥

नव मनि मुकुट प्रभा अति उद्दित ,

चित्त चकित अनुमान न पावति ।

अति प्रकास निसि बिमल तिमित छर ,

कर मलि मलि निज पतिहि जगावति ॥२॥

दरसन सुखी दुखी अति सोचति ,

षट सुत सोक सुरति उर आवति ।

सूरदास प्रभु होहु पराकृत ,

यौं कहि भुज के चिह्न दुरावति ॥३॥

३ .

राग बिहागरौ

देवकी मन मन चकित भई ।

देखौ आइ पुत्र मुख काहे न , ऐसी कहुँ देखी न दई ॥१॥

सिर पै मुकुट , पीत उपरैना , भृगु पद उर , भुज चारि धरें ।

पूरब कथा सुनाइ कही हरि , तुम माग्यौ इहि भेष कर ॥२॥

छोरे निगड , सुआए पहरु , द्वारे कौ कपाट उघर्‍यो ।

तुरत मोहि गोकुल पहुँचावौ , यौं कहि कैं सिसु बेष धरर्‍यो ॥३॥

तब बसुदेव उठे यह सुनतै , हरषवंत नँद भवन गए ।

बालक धरि , लै सुरदेवी कौं , आई ’ सूर ’ मधुपरी ठए ॥४॥

४ .

राग सारंग

ललन हौं या छबि ऊपर वारी ।

बाल गुपाल ! लगौ इन नैननि रोग बलाइ तिहारी ॥१॥

लट लटकनि , मोहन मसि बिंदुका तिलक भाल सुखकारी ।

मनौ कमल दल सावक पेखत , उडत मधुप छबि न्यारी ॥२॥

लोचन ललित , कपोलन काजर , छबि उपजति अधिकारी ।

सुख मै सुख औरें रुचि बाढति , हँसत देत किलकारी ॥३॥

अलप दसन , कलबल करि बोलनि , बुधि नहि परत बिचारी ।

बिकसति ज्योति अधर बिच , मानौ बिधु मैं बिज्जु उज्यारी ॥४॥

सुंदरता कौ पार न पावति रुप देखि महतारी ।

’ सूर ’ सिंधु की बूँद भई मिलि मति गति दृष्टी हमारी ॥५॥

५ .

राग जैतश्री

लाल ! हौं वारी तेरे मुख पर ।

कुटिक अलक , मोहनि मन बिहँसनि ,

भृकुटी बिकट ललित नैनन पर ॥१॥

दमकति दूध दँतुलियाँ बिहँसत ,

मनु सीपज घर कियौ बारिज पर ।

लघु लघु लट सिर घूँघरवारो ,

लटकन लटकि रह्यौ माथे पर ॥२॥

यह उपमा कापै कहि आवै ,

कछुक कहौं सकुचित हौं जिय पर ।

नव घन चंद रेख मधि राजत ,

सुरगुरु सुक्र उदोत परसपर ॥३॥

लोचन लोल , कपोल ललित अति , नासा के मुकता रदछद पर ।

’ सूर ’ कहा न्यौछावर करिए ,

अपने लाल ललित लरखर पर ॥४॥

बार बार श्रीहरिका स्मरण करो , श्रीहरिके चरणारविन्दको हृदयमे धारण करो। जहाँ जब श्रीहरिकी कथा होती है , वहाँ उस समय स्वयं गंगाजी चली आती है। ( साथ ही ) यमुना , सिन्धु एवं सरस्वती भी आ जाती है और गोदावरी भी आनेमे देर नही करती । सूरदासजी कहते है कि श्रीहरिकी कथा जहाँ होती है , वहाँ सभी तीर्थोका ( स्थिर ) निवास होता है॒ ॥१॥

( देवकीजी श्रीवसुदेवजीसे कहती है - ) स्वामी ! यह अत्यन्त अद्भुत लीला तो देखो कि साक्षात नारायण मेरे पुत्ररुपमे प्रकट हुए है , जिनके कमलके समान नेत्र है , चन्द्रमाके समान मनोहर मुख है , सुन्दर श्यामवर्ण शरीर है , ज्योतिर्मय पीताम्बर पहने है , अत्यन्त अद्भुत ( दिव्य ) वनमाला शोभित हो रही है , मुकुटमे लगी नवीन मणियाँ अपनी प्रभा तीव्रतासे फैला रही है जिससे देवकीजीका चित्त आश्चर्यमे पड गया है ; ( और ) वे ( कुछ भी ) अटकल नही कर पा रही है ( कि यह क्या हो गया है ) । रात्रिके गाढ अन्धकारको नाश करता हुआ ( भगवानकी ज्योतिका ) अत्यन्त निर्मल प्रकाश ( अपने निवास - गृहमे - कारागारमे ) देखकर वे हाथ मल - मलकर ( बार - बार हाथ हिलाकर ) अपने पति ( वसुदेवजी ) को जगाती है। ( श्रीहरिका ) दर्शन करके तो वे सुखी है ; किंतु ( कंसद्वारा मारे गये अपने ) छः पुत्रोके वियोगकी स्मृति जब मनमे आती है , तब वे दुःखी होकर अत्यधिक सोच करने लगती है ( कि पता नही कंस इनके साथ कैसा व्यवहार करेगा ) । सूरदासजी कहते है - ( वे ) यह कहती हुई कि ’ भगवन ! आप प्राकृत ( साधारण मनुष्य ) बालकके समान बना जाओ , ( उत्पन्न हुए बालककी चारो ) भुजाओके ( शड्ख - चक्रादि ) चिह्नोंको छिपाती ( छिपानेका प्रयत्न करती ) हैं ॥२॥

देवकीजी मन -ही -मन चकित हुईं। ( वे वसुदेवजीसे बोली - ) ’ पुत्रका मुख आकर क्यो नही देखते ? हे भगवन ! ऐसा पुत्र होते तो कही नही देखा। इनके सिरपर मुकुट है , पीला उपरना ( दुपट्टा ) ओढे है , हृदयमे भृगुका चरणचिह्न है और चार भुजाएँ धारण किये है। तब श्रीहरिने पूर्वजन्मकी कथा * सुनाकर कहा - ’ तुमने इसी वेषमे मुझे ( पुत्ररुपमे ) माँगा था। भगवानने ( अपनी मायासे वसुदेवजीकी ) हथकडी -बेडी खोल दी , ( कारागरके ) पहारेदारोंको सुला दिया और द्वारके किवाड भी ( अपने -आप ) खुल गये। ’ मुझे तुरंत गोकुल पहुँचा दो ’ यह कहकर ( भगवानने ) शिशुका रुप धारण कर लिया। ( भगवानकी वह बात सुनते ही ) वसुदेवजी उठे और हर्षित होकर ( गोकुलमे ) नन्द -भवनको चले गये। वहाँ अपने बालकको रखकर और ( यशोदाजीकी कन्यारुपमे जन्मी ) महामाया भगवतीको ले आकर -सूरदासजी कहते है - वसुदेवजी मथुरामे रहने लगे ॥३॥

( यशोदाजी कहती है )- ’ लाल ! मैं तुम्हारी इस शोभापर न्यौछावर हूँ। मेरे बाल - गोपाल ! तुम्हारे जितने रोग और संकट हो , वे मेरे इन नेत्रोंको आ लगे। ’ ( ललाटपर ) अलकें लटक रही हैं , मनको मोहित करनेवाला कज्जलका बिन्दु ( डिठौना ) है तथा भाल ( मस्तक ) पर अत्यन्त सुखदायी तिलक लगा है , मानो एक भौंरेका बच्चा कमलदलको ( बैठा ) देख रहा है और दुसरे भौंरे उड रहे है , जिसकी निराली शोभा है। सुन्दर नेत्र है , कपोलोपर ( रोनेसे - या दोनो हाथोसे नेत्रोंको मीजनेके कारण ) काजल लग गया है , इससे बहुत अधिक छटाका विस्तार हो रहा है। इस आनन्ददायी शोभामे ( तब ) और ( भी ) आनन्द तथा स्वाद बढ जाता है , ( जब ) किलकारी मारकर मोहन हँसते है। तुतलाकर बोलते समय छोटे - छोटे दाँतोकी उपमा बुद्धिद्वारा सोची नही जा सकती ; फिर भी ( हँसते समय ) दाँतोकी ज्योति ओष्ठोंके बीच इस प्रकार खिलती है मानो चन्द्रमामे विद्युतका प्रकाश हो गया हो। माता इस रुपको देखकर उसकी सुन्दरताका पार नही पा रही है ? सूरदासजी कहते है कि हमारी मति ( बुद्धि ), गति तथा दृष्टि तो ( इस रुपको निहारकर ) समुद्रकी बूँद हो गयी ( उसमे सर्वथा लीन हो गयी ) ॥ ४ ॥

( माता कहती हैं - ) ’ लाल ! मैं तेरे मुखपर बलिहारी जाती हूँ ( इतना ही नही ) मैं तेरी घुँघराली अलकों , मनमोहनी बिहँसन ( हँसी ), तेढी भौंहे और सुन्दर नेत्रोपर भी न्यौछावर हूँ। ( अरे ! ) हँसते समय दूधकी दँतुलियाँ ( छोटे दाँत ) तो ऐसी चमकती हैं , मानो मोतियोंने कमलपर निवास कर लिया हो। सिरपर छोटी - छोटी घुँघराली अलको ( के साथ ) मस्तकपर लटकन झूल रहा है ; भला , उसकी उपमाका वर्णन कौन कर सकता है। ( फिर भी ) कुछ कहती हूँ , यद्यपि मनमें संकोच हो रहा है ; ( क्योंकि वह ) ऐसा लगता है मानो नवीन ( सजल ) मेघमें चंद्रमाकी रेखाके बीच बृहस्पति तथा शुक्रकी ज्योति एक साथ प्रकाशित हो। चञ्चल नेत्र है। अत्यन्त सुन्दर कपोल हैं और ओठोंपर नासिकाका मोती झूल रहा है। सूरदासजीके शब्दोमे माता कहती हैं कि ’ अपने सुन्दर लालके लडखडाने ( उठकर गिरने ) पर क्या न्यौछावर कर दूँ ! ’ ॥५॥


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Last Updated : October 30, 2010

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