१ .
राग बिलावल
हरि हरि हरि हरि सुमिरन करौ ।
हरि चरनारबिंद उर धरौ ॥१॥
हरि की कथा होइ जब जहाँ ,
गंगाहू चलि आवै तहाँ ॥२॥
जमुना , सिंधु , सरस्वति आवै ।
गोदावरी विलंब न लावै ॥३॥
सर्ब तीर्थ कौ बासौ तहाँ ,
’ सूर ’ हरि कथा होवै जहाँ ॥४॥
२ .
कमल नैन ससि बदन मनोहर ,
देखौ हो पति ! अति बिचित्र गति ।
स्याम सुभग तन , पीत बसन दुति ,
सोहै बनमाला अद्भुत अति ॥१॥
नव मनि मुकुट प्रभा अति उद्दित ,
चित्त चकित अनुमान न पावति ।
अति प्रकास निसि बिमल तिमित छर ,
कर मलि मलि निज पतिहि जगावति ॥२॥
दरसन सुखी दुखी अति सोचति ,
षट सुत सोक सुरति उर आवति ।
सूरदास प्रभु होहु पराकृत ,
यौं कहि भुज के चिह्न दुरावति ॥३॥
३ .
राग बिहागरौ
देवकी मन मन चकित भई ।
देखौ आइ पुत्र मुख काहे न , ऐसी कहुँ देखी न दई ॥१॥
सिर पै मुकुट , पीत उपरैना , भृगु पद उर , भुज चारि धरें ।
पूरब कथा सुनाइ कही हरि , तुम माग्यौ इहि भेष कर ॥२॥
छोरे निगड , सुआए पहरु , द्वारे कौ कपाट उघर्यो ।
तुरत मोहि गोकुल पहुँचावौ , यौं कहि कैं सिसु बेष धरर्यो ॥३॥
तब बसुदेव उठे यह सुनतै , हरषवंत नँद भवन गए ।
बालक धरि , लै सुरदेवी कौं , आई ’ सूर ’ मधुपरी ठए ॥४॥
४ .
राग सारंग
ललन हौं या छबि ऊपर वारी ।
बाल गुपाल ! लगौ इन नैननि रोग बलाइ तिहारी ॥१॥
लट लटकनि , मोहन मसि बिंदुका तिलक भाल सुखकारी ।
मनौ कमल दल सावक पेखत , उडत मधुप छबि न्यारी ॥२॥
लोचन ललित , कपोलन काजर , छबि उपजति अधिकारी ।
सुख मै सुख औरें रुचि बाढति , हँसत देत किलकारी ॥३॥
अलप दसन , कलबल करि बोलनि , बुधि नहि परत बिचारी ।
बिकसति ज्योति अधर बिच , मानौ बिधु मैं बिज्जु उज्यारी ॥४॥
सुंदरता कौ पार न पावति रुप देखि महतारी ।
’ सूर ’ सिंधु की बूँद भई मिलि मति गति दृष्टी हमारी ॥५॥
५ .
राग जैतश्री
लाल ! हौं वारी तेरे मुख पर ।
कुटिक अलक , मोहनि मन बिहँसनि ,
भृकुटी बिकट ललित नैनन पर ॥१॥
दमकति दूध दँतुलियाँ बिहँसत ,
मनु सीपज घर कियौ बारिज पर ।
लघु लघु लट सिर घूँघरवारो ,
लटकन लटकि रह्यौ माथे पर ॥२॥
यह उपमा कापै कहि आवै ,
कछुक कहौं सकुचित हौं जिय पर ।
नव घन चंद रेख मधि राजत ,
सुरगुरु सुक्र उदोत परसपर ॥३॥
लोचन लोल , कपोल ललित अति , नासा के मुकता रदछद पर ।
’ सूर ’ कहा न्यौछावर करिए ,
अपने लाल ललित लरखर पर ॥४॥