६६.
राग सूहौ
मैं बलि जाउँ श्याम मुख छबि पै।
बलि बलि जाउँ कुटिल कच बिथुरे,
बलि भृकुटी लिलाट पै ॥१॥
बलि बलि जाउँ चारु अवलोकनि,
बलि बलि कुंडल रबि की।
बलि बलि जाउँ नासिका सुललित,
बलिहारी वा छबि की ॥२॥
बलि बलि जाउँ अरुन अधरनि की,
बुद्रुम बिंब लजावन।
मैं बलि जाउँ दसन चकमन की,
वारौं तडितनि सावन ॥३॥
मैं बलि जाउँ ललित ठोडी पै,
बलि मोतिन की माल।
सूर निरखि तन मन बलिहारौं,
बलि बलि जसुमति लाल ॥४॥
६७.
राग कान्हरौ
अलकनि की छबि अलि-कुल गावत।
खंजन, मीन, मृगज लज्जित भए, नैननि गति नहिं पावत ॥१॥
मुख मुसुक्यानि आनि उर अंतर अंबुज बुधि उपजावत।
सकुचत अरु बिगसत वा छबि पै, अनुदिन जनम गँवावत ॥२॥
पूजत नाहिं सुभग स्यामल तन, जद्यपि जलधर धावत।
बसन समान होत नहिं हाटक, अगिनि झाँप दै आवत ॥३॥
मुक्ता दाम बिलोकि बिलखि करि, अवलि बलाक बनावत।
सूरदास प्रभु ललित त्रिभंगी, मनमथ-मनहि लजावत ॥४॥
६८.
राग गौरी
आवत बन तैं साँझि देख्यौ मैं गाइनि माँझि
काहू कौ ढोटा री जाकैं सीस मोरपखियाँ।
अतिसी कुसुम तन, दीरघ चंचल नैन,
मानौ रिस भरि कैं लरति जुग झषियाँ ॥१॥
केसर की खौरि किएँ, गुंजा बनमाल हिएँ,
उपमा न कहि आवै जेती नखियाँ।
राजति पीत पिछौरी, मुरली बजावै गौरी,
धुनि सुनि भई बौरी, रही तकि अँखियाँ ॥२॥
चल्यौ न परत पग, गिरि परी सूधैं मग,
भामिनी भवन ल्याई कर गहैं कँखनियाँ।
सूरदास प्रभु चित चोरी लियौ मेरे जान,
और न उपाउ दाउ, सुनौ मेरी सखियाँ ॥३॥
६९.
श्रीकृष्णका व्रजागमन
नटवर भेष धरैं ब्रज आवत।
मोर मुकुट, मकराकृत कुंडल,
कुटिल अलक मुख पै छबि पावत ॥१॥
भ्रकुटी बिकट, नैन अति चंचल,
इहि छबि पै उपमा इक धावत।
धनुष देखि खंजन बिबि डरपत,
उडि न सकत, उडिबे अकुलावत ॥२॥
अधर अनूप मुरलि सुर पूरत,
गौरी राग अलापि बजावत।
सुरभी बृंद गोप बालक सँग,
गावत अति आनंद बढावत ॥३॥
कनक मेखला कटि पीतांबर,
निरतत मंद मंद सुर गावत।
सूर स्याम प्रति अंग माधुरी,
निरखत ब्रज जन जे मन भावत ॥४॥
७०.
राग कल्यान
ब्रज जुबती सब कहति परस्पर,
बन तैं स्याम बने ब्रज आवत।
ऐसी छबि मैं कबहुँ न पाई,
सखी सखी सौं प्रघट दिखावत ॥१॥
मोर मुकुट सिर, जलज माल उर,
कटि, तट पीतांबर छबि पावत ।
नव जलधर पर इंद्र चाप मनु,
दामिनि छबि, बलाक घन धावत ॥२॥
जिहि जो अंग अवलोकन कीन्हौ,
सो तन मन तहँही बिरमावत।
सूरदास प्रभु मुरलि अधर धरैं, आवत राग कल्यान बजावत ॥३॥
( सखी कहती है- ) श्यामके मुखकी शोभापर मैं बलिहारी जाती हूँ । बिथुरे घुँघराले बालोंपर बार-बार बलिहारी जाती हूँ, भृकुटि और ललाटपर ( भी ) बलिहारी ( जाती हूँ ) । मनोहर चितवनपर मैं बार-बार न्योछावर हूँ तथा बार-बार न्योछावर हूँ सूर्यके समान कुण्डलोपर । अत्यन्त मनोहर नासिकापर बार-बार बलिहारी जाती हूँ, ( जो ) मूँगेकी तथा पक्व बिम्बफलकी काँति ( लालिमा ) को भी लज्जित करनेवाले है । दाँतोंकी चमकपर ( मैं ) न्योछावर हूँ, उनपर श्रावणकी बिजलियोंकी भी न्योछावर किये देती हूँ । सुन्दर ठुड्डीपर मैं बलिहारी जाती हूँ और मोतियोंकी मालापर ( भी ) मै बलिहारी हूँ । सूरदासजी कहते है कि यशोदाके लालको देखकर ( उनपर ) तन-मन न्योछावर करती हूँ, ( और ) बार-बार बलिहारी जाती हूँ ॥६६॥
( मोहनकी ) अलकोंकी शोभाका गान भरौंके समूह करते है । खञ्जन, मछलियाँ तथा हरिनोंके बच्चे नेत्रोंकी तुलना न कर सकनेके कारण लज्जित हो गये । मुखकी मुसकानको हृदयमें लाकर कमल विचार करता है ( कि ) उस शोभाको देखकर ( मैं ) बार-बार संकुचित हो और खिलकर दिन-प्रतिदिन ( असमर्थ होकर ) जीवन खो देता हूँ ( फिर भी उनकी तुलना नही कर पाता ) । यद्यपि बादल दौडते है, फिर भी मनोहर साँवले शरीरकी समतामें नही पहुँच पाते । सोना बार-बार अपनेको अग्निमें तपाकर आता है किंतु ( उनके ) वस्त्र ( पीताम्बर ) के समान नही हो पाता मोतियोंकी मालाको देखकर और ( तुलना न कर पानेके कारण ) दुःखी होकर बगुले अपना झुंड बनाते है ( कि कदाचित सामूहिकरुपमें तुलना कर सके ) । सूरदासजी कहते है कि स्वामीकी ललित त्रिभंगी शोभा कामदेवके मनको भी लज्जित करती है ॥६७॥
( गोपी कहती है- ) सखी ! संध्याके समय किसीके लडकेको गायोंके मध्य बनसे आते हुए मैने देखा, जिसके मस्तकपर मयूरपिच्छ था । ( उसका ) अलसीके फूलके समान शरीर था, विशाल चञ्चल नेत्र ( ऐसे ) थे मानो क्रोधमे भरकर दो मछलियाँ लड रही हो । केसरकी खौर लगाये तथा वक्षस्थलपर गुञ्जाकी माला और वनमाला पहिने हैं । उनके इस वेष की उपमा कहनेमे नही आती; जितनी भी सामने आती हैं, सभी परास्त हो जाती हैं । पीला पटुका शोभा दे रहा था, वंशीमे गौरी राग बजा रहा था, जिसके स्वर सुनकर मैं पगली हो गयी और मेरी आँखे उसे देखती ही रह गयी । एक पद भी चलते नही बना, सीधे मार्गमे मै गिर पडी, सखियाँ मेरा हाथ अपनी बगलमे दबा ( पकड ) कर मुझे घर ले आयी । मेरी सखियो, सुनो ! मेरी समझसे सूरदासके स्वामीने मेरा चित्त चुरा लिया है, ( अब ) न तो ( उसके लिये ) कोई उपाय है और न कोई युक्ति है ॥६८॥
मोहन श्रेष्ठ नट-जैसा वेष धारण किये व्रज आ रहे है । मयूरपिच्छ मुकुट, मकराकृत कुण्डल और घुँघराली अलके मुखपर शोभा पा रही है । टेढी भौंहे और अत्यन्त चञ्चल नेत्र है, इस शोभापर ( तुलना करनेके लिये ) एक उपमा दौडती ( सूझती ) है कि धनुष देखकर खञ्जनका जोडा डरकर उडनेके लिये व्याकुल होते हुए भी उड न पाता हो । अनुपम ओठ वंशीमे सुर भरते हुए आलाप लेकर गौरी राग बजा रहे है, गायोंके झुंड और गोप-बालकोंके साथ गाते हुए अत्यन्त आनन्द बढाते ( बडी प्रसन्नता प्रकट करते ) है । कमरमे सोनेकी करधनी और पीताम्बर पहिने नाचते एवं अत्यन्त मन्द ( कोमल ) स्वरमे गाते है । सूरदासजी कहते है कि श्यामसुन्दरके प्रत्येक अंगका माधुर्य ऐसा ( आकर्षक ) है कि उसे देखना व्रजवासियोंके मनको ( अतिशय ) प्रिय लगता है ॥६९॥
व्रजकी सब युवतियाँ आपसमे कह रही है- ’ श्याम वनसे सजे हुए व्रजमे आ रहे है । ऐसी शोभा तो मैने कभी देखी नही । ’ इस प्रकार एक सखी दूसरीको प्रत्यक्ष ( वर्णन तथा संकेत करके ) दिखलाती है । मस्तकपर मयूरपिच्छका मुकुट है, वक्षःस्थलपर कमलकी माला और कटिभागमे पीताम्बर शोभा दे रहा है । यह वेष ऐसा फब रहा है मानो नवीन मेघपर इन्द्रधनुष हो, बिजली कौंध रही हो और वगुले मेघके समीप दौड रहे हो । जिसने जिस अंगको देखा, उसने ( अपने ) शरीर तथा मनको वही विरमा लिया ( स्तम्भित हुआ उसीको देखता रहा ) । सूरदासजी कहते हैं कि मेरे स्वामी ओठपर वंशी रखे कल्याण राग बजाते आ रहे है ॥७०॥