हिंदी सूची|हिंदी साहित्य|भजन|सूरदास भजन|श्रीकृष्ण माधुरी|

श्रीकृष्ण माधुरी - पद ३१ से ३५

इस पदावलीके संग्रहमें भगवान् श्रीकृष्णके विविध मधुर वर्णन करनेवाले पदोंका संग्रह किया गया है, तथा मुरलीके मादकताका भी सरस वर्णन है ।


३१.
नंद कौ लाल उठत जब सोइ।
निरखि मुखारबिंद की सोभा
कहि, काकैं मन धीरज होइ? ॥१॥
मुनि मन हरत जुबती जन केतिक,
रतिपति मान जात सब खोइ।
ईषद हास दंत दुति बिगसति,
मानिक-मोती धरे जनु पोइ ॥२॥
नागर नवल कुँवर बर सुंदर,
मारग जात लेत मन गोइ।
सूरदास प्रभु मोहनि मूरति
ब्रजवासी मोहे सब लोइ ॥३॥


३२.
राग नट
हरि के बाल चरित अनूप।
निरखि रहिं ब्रजनारि इकटक, अंग अँग प्रति रुप ॥१॥
बिथरी अलकैं रही मुख पै बिनहिं बपन सुभाइ।
देखि कंजनि चंद के बस मधुप करत सहाइ ॥२॥
सजल लोचन, चारु नासा परम रुचिर बनाइ।
जुगल खंजन करत अबिनति, बिच कियौ बनराइ ॥३॥
अरुन अधरनि दसन झाई कहौं उपमा थोरि।
नील पुट बिच मनौ मोती धरे बंदन बोरे ॥४॥
सुभग बाल मुकुंद की छबि बरनि कापै जाइ।
भृकुटि पै मसि बिंदु सोहै सकै सूर न गाइ ॥५॥


३३.
खेलत स्याम अपने रंग।
नंदलाल निहारि सोभा निरखि थकित अनंग ॥१॥
चरन की छबि देखि डरप्यौ  अरुन गगन छिपाइ।
जानु करभा की सबै छबि, निदरि, लई छुडाइ ॥२॥
जुगल जंघन खंभ रंभा नाहिं समसरि ताहि।
कटि निरखि केहरि लजाने, रहे बन घन चाहि ॥३॥
हृदै हरि नख अति विराजत, छबि न बरनी जाइ।
मनौ बालक बारिधर नव चंद दियौ दिखाइ॥४॥
मुक्त माल बिसाल उर पर, कछु कहौं उपमाइ।
मनौ तारा गगनि बेष्टित गगन निसि रह्यौ छाइ ॥५॥
अधर अरुन, अनूप नासा निरखि जन सुखदाइ।
मनौ सुक, फल बिंब कारन, लैन बैठ्यौ आइ ॥६॥


३४.
गो-चारण-माधुरी
राग सोरठ
गोबिंद चलत देखियत नीके।
मध्य गुपाल मंडली राजत काँधैं धरि लये सींके ॥१॥
बछरा बृंद घेरि आगैं करि जन-जन सृंग बजाए।
जनु बन कमल सरोबर तजि कैं मधुप उनीदे आए ॥२॥
बृदांबन प्रबेसि अघ मार्‍यो, बालक जसुमति ! तेरे।
सूरदास प्रभु सुनत जसोधा चित्तै बदन प्रभु केरे ॥३॥

३५.
कन्हैया, हेरी दै।
सुभग साँवरे गात की मैं सोभा कहत लहाउँ।
मोर पंख सिर मुकुट की, मुख मटकनि की बलि जाउँ ॥१॥
कुंडल लोल कपोलन झाईं बिहँसनि चितै चुरावै।
दसन दमक, मोतिन लर ग्रीवा, सोभा कहत न आवै ॥२॥
उर पर पदक कुसुम बनमाला, अंगद खरे बिराजै।
चित्रित बाँह पहुँचिया पहुँचे, हाथ मुरलिया छाजै ॥३॥
कटि पट पीत मेखला मुखरति, पाँइन नूपुर सोहै।
आस पास बर ग्वाल मंडली, देखत त्रिभुवन मोहै ॥४॥
सब मिलि आनँद प्रेम बढावत, गावत गुन गोपाल।
यह सुख देखत स्याम संग कौ सूरदास सब ग्वाल ॥५॥

श्रीनन्दनन्दन जब सोकर उठते हैं, तब उनके मुख-कमलकी शोभा देखकर बताओ तो, किसके मनमे धैर्य रह सकता है ( किसका मन अपने हाथमे रह सकता है ) । ( वह ) मुनियोंके मनको भी हरण कर लेती है, व्रजयुवतियोंकी बिसात ही क्या है । ( और तो और ) भी सारा गर्व ( उस शोभाको देखकर ) गल जाता है । मन्द हास्यसे ( लाल-लाल मसूडोसे युक्त ) दाँतोकी ज्योति इस प्रकार प्रकट होती है मानो मणिक और मोती चुरा लेते है । सूरदासजी कहते है कि मेरे स्वामीकी मोहिनी मूर्तिने व्रजमे बसनेवाले सभी लोगोंको मोह लिया है ॥३१॥

श्रीहरिके बालचरित्र अनुपम है । व्रजकी नारियाँ इकटक-निर्निमेष नेत्रोंसे उनके अंग-प्रत्यंगकी शोभा देख रही है । मुण्डन-संस्कार न होनेके कारण स्वाभाविक ही बढी हुई अलके मुखपर चारो ओर ( इस भाँति ) फैल रही है मानो ( नेत्ररुपी ) कमलोंको चन्द्रमाके वशमे पडे देखकर सहायता करने भौंरे आ गये हों । लावण्ययुक्त नेत्र और सुन्दर नासिका ( कुछ ऐसी लगती थी ) मानो नीले सम्पुट ( डिब्बे ) के मध्यमे सिन्दूरमे डुबाकर मोती रख दिये गये हो । ( उन ) मनोहर बालमुकुन्दकी ( पूरी ) शोभाका भला, किससे हो सकता है । सूरदासजी कहते है- मोहनकी भृकुटीपर जो कज्जलका बिन्दु शोभित है, मैं तो उसी ( की छटा ) का वर्णन नही कर पाता ॥३२॥

श्यामसुन्दर अपनी धुनमें खेल रहे है । नन्दनन्दनकी इस शोभाको देख ( तो सही ), इसे निखरकर कामदेव भी थकित ( मुग्ध ) हो जाता है । चरणोंकी शोभा देखकर अरुण ( अरुणोदयके अधिष्ठाता देवता ) आकाशमें छिप गये । जाँघोने हाथीके बच्चेकी सूँडका अनादर कर उसकी समस्त शोभा छीन ली है । दोनो पिंडलियाँ ऐसी है कि केलेके खंभे ( भी ) उनकी समता करनेयोग्य नही है । कमर देखकर सिंह लज्जित हो गये और घने वनोंको ढूंढकर उनमे रहने लगे । वक्षस्थलपर बघनखा बहुत ही फब रहा है, जिसकी छटाका वर्णन नही हो सकता । जान पडता है मानो शिशुमेघमे नया ( द्वितीयाका ) चन्द्रमा दिखायी पड रहा हो । विशाल वक्षस्थलपर मोतियोंकी मालाकी कुछ उपमा कहता हूँ- ऐसा लगता है मानो बिम्बफलको लेनेके लिये तोता आ बैठा हो । मुण्डन न होने के कारण कोमल घुँघराली अलके ऐसी बिखरी है मानो भौंरेके बच्चोंकी मण्डली ( मँडराती ) हो । सूरदासजी कहते है कि मेरे स्वामीकी इस मनोहर शोभाको व्रजकी गोपियाँ ( मुग्ध होकर ) देख रही है ॥३३॥

गोबिन्द चलते ( वन जाते ) समय बडे सुन्दर दिखायी देते है । गोपबालकोंकी मण्डलीके मध्यमे व शोभित है, कंधेपर ( भोजन-सामग्रीसे भरे ) छीके रख लिये है । बछडोंको घेरकर और आगे करके सबोंने सींग बजाये, मानो सरोवरके कमलवनको छोडकर उनीदे ( बिना निद्रा भरे आलसयुक्त ) भौंरे आ गये हों । ’ यशोदाजी ! वृन्दावनमें जाकर तुम्हारे पुत्रने ( आज ) अघासुरको मारा है । ’ सूरदासजी कहते है - मेरे स्वामीके सम्बन्धकी यह ( अघासुर-वधकी ) बात सुनते ही यशोदाजी मेरे नाथका मुख देखने लगी ( कि मेरा यह सुकुमार लाल दैत्यको कैसे मार सका ) ॥३४॥

( गोपबालक कहते है- ) ’ कन्हाई, हेरी दो ( गायोंको पुकारो ) ! ’ सूरदासजी कहते है- मनोहर श्यामशरीरकी ( उस-गाय बुलानेकी ) शोभाका वर्णन करते मुझे लज्जा आती है ( मैं पूरा वर्णन करनेमे समर्थ नही हूँ ) । मस्तकपरके मयूरपिच्छवाले मुकुटकी और मुखको ( नाना भंगियोंसे ) मटकानेकी मैं बलिहारी जाता हूँ । दर्पणके समान स्वच्छ कपोलोपर पड रही चञ्चल कुण्डलोंकी परछाई और हास्य चित्तको चुराये लेता है तथा दन्तावलिकी चमककी और गलेमे ( सुशोभित ) मोतियोंकी लडीकी शोभाका ( तो ) वर्णन ही नही हो पाता । वक्षः-स्थलपर पदक ( जडाऊ चौकी ), फूलोसे रचित वनमाला तथा ( भुजाओमें ) अंगद ( बाजूबंद ) अत्यन्त शोभा दे रहे है; ( वनधातुओंसे ) चित्रित भुजाओंमे पहुँची धारण की हुई है और हाथमे वंशी शोभा दे रही है । कमरमें ( बँधे ) पीताम्बर ( के ऊपर ) शब्द करती हुई है किंकिणी तथा चरणोंमे नूपुर शोभित हैं; आस-पास श्रेष्ठ गोपबालकोंकी मण्डली है, ( जिसे ) देखकर त्रिभुवन मोहित हो रहा है । सब ( बालक ) मिलकर आनन्द-प्रेम बढाते हुए ( उमंगपूर्वक ) गोपालका गुण गा रहे है । श्यामसुन्दरके साहचार्यका यह आनन्द ( केवल ) सब गोपालका गुण गा रहे है । श्यामसुन्दरके साहचर्यका यह आनन्द ( केवल ) सब गोपबालक ही देख पाते है ( अन्य नही ) ॥३५॥


References : N/A
Last Updated : November 19, 2010

Comments | अभिप्राय

Comments written here will be public after appropriate moderation.
Like us on Facebook to send us a private message.
TOP