१९६.
राग भैरव
मुरली हरि तैं छूटति है ?
वाही के बस भएँ निरंतर, वह अधरनि रस लूटति है ॥१॥
तुम तैं निठुर भएँ वह बोलत, तिन ते मन उचटावित है ।
आरज पथ, कुलकानि मिटावति, सबकौं निलज करावति है ॥२॥
निदरैं रहति, डरति नहि काहू, मुख पाएँ वह फूलति है ।
अब वह हरि तैं होति न न्यारी तू काहे कौं भूलति है ॥३॥
रोम रोम नख सिख रस पागी, अनुरागिनि हरि प्यारी है ।
सूर स्याम बाकें रस लुबधे, मानी सौति हमारी है ॥४॥
१९७.
मुरली हम कौं सौति भई ।
नैकु न होति अधर तैं न्यारी, जैसे तृषा डई ॥१॥
ह्याँ अँचवति, ह्वाँ डारति लै लै, जल थल बननि बई ।
जा रस कौ व्रत करि तनु गार्यौ, कीन्ही रई-रई ॥२॥
पुनि-पुनि लेति सकुच नहिं मानति, कैसी भई दई ।
कहाँ धरै वह बाँस साँस कौं, आस निरास गई ॥३॥
ऐसी कहूँ गई नहिं देखी, जैसी भई नई ।
सूर बचन जाके टोना से, सुनत मनोज जई ॥४॥
१९८.
राग सोरठ
मुरली बचन कहति जनु टोना ।
जल थल जीव बस्य करि लीन्हे, रिझए तियनि लजौना ।
ऐसी ढीठि बदति नहिं काहू, रहति बननि बन जौना ॥२॥
ताकी प्रभुता जाति कही नहिं, ऐसी भई न होना ।
सूर स्याम मुद नाद प्रकासति, थकित होत सुनि पौना ॥३॥
१९९.
राग सारंग
मुरली हम पै रोष भरी ।
अंस हमारौ आपुन अँचवत नैको नाहिं डरी ॥१॥
बार-बार अधरनि सो परसति, देखति सबै खरी ।
ऐसी ढीठि टरी न उहाँ तैं, जउ हम रिसनि भरी ॥२॥
यह तो कियौ अकाज हमारौ, अब हम जानि परी ।
सूरज प्रभु इन निठुर करायौ, ऐसी करनि करी ॥३॥
२००.
राग धनाश्री
मुरली के ऐसे ढँग, माई !
जब तैं स्याम परे बस वाकैं, हम सबहिनि बिसराई ॥१॥
अपनो गुन यह प्रगट करायौ, निठुर काठ की जाई ।
अपनिहिं आगि दह्यौ कुल अपनो, यह गुनि गुनि पछिताई ॥२॥
जो है निठुर आपने घर कौ, औरनि तैं क्यो मानै ।
सूर बडी यह आपु स्वारथिनि, कपट राग करि गानै ॥३॥