५१.
राग बिलावल
देखि, सखी, हरि अंग अनूप।
जानु जुगल जुग जंघ बिराजत, को बरनै यह रुप ॥१॥
लकुट लपेटि लटकि भए ठाढे, एक चरन धर धारे।
मनौ नील मनि खंभ काम रचि एक लपेटि सुधारे ॥२॥
कबहुँ लकुट तें जानु फेरि लै अपने सहज चलावत।
सूरदास मानहुँ करभा कर बारंबार डुलावत ॥३॥
५२.
राग नटनारायन
कटि तट पीत बसन सुदेस।
मनौ नव घन दामिनी तजि रही सहज सुबेस ॥१॥
कनक मनि मेखला राजत सुभग स्यामल अंग।
मनौ हंस अकास पंगति नारि बालक संग ॥२॥
सुभग कटि कछनी सु राजति जलज केसर खंड ।
सूर प्रभु अँग निरखि माधुरि मदन तन पर्यौ दंड ॥३॥
५३.
तरुनी निरखी हरि प्रति अंग।
कोउ निरखी नख इंदु भूली, कोउ चरन जुग रंग ॥१॥
कोउ निरखी नूपुर रही थकि, कोउ निरखी जुग जानु।
कोउ निरखी जुग जंघ सोभा करति मन अनुमान ॥२॥
कोउ निरखी कटि पीत कछनी, मेखला रुचिकारि।
कोउ निरखी हृदय नाभि की छबि डार्यौ तन मन वारि ॥३॥
रुचिर रोमावली हरि कैं चारु उदर सुदेस।
मनौ अलि स्त्रेनी बिराजति बनी एकैं भेस ॥४॥
रहीं इकटक नारि ठाढी करति बुद्धि बिचार।
सूर आगम कियौ नभ तैं जमुन सूच्छम धार ॥५॥
५४
राजति रोम राजी रेख।
नील घन मनु धूम धारा रही सूच्छम सेष ॥१॥
निरखी सुंदर हृदै पर भृगु पाद परम सुलेख।
मनौ सोभित अभ्र अंतर संभु भूषन बेष ॥२॥
मुक्त माल नछत्र गन सम अर्ध चंद बिसेष।
सजल उज्ज्वल जलद मलयज प्रबल बलिनि अलेख ॥३॥
केकि कच सुर चाप की छबि दसन तडित सुपेख।
सूर प्रभु की निरखि सोभा तजे नैन निमेष ॥४॥
५५.
राग गौरी
हरि प्रति संग नागरि ! निरखी।
दृष्टि रोमावली पर रहि, बनत नाही परखि ॥१॥
कोउ कहति यह काम सरनी, कोउ कहति नहिं जोग।
कोउ कहति अलि बाल पंगति जुरी एक सँजोग ॥२॥
कोउ कहति अहि काम पठयौ, डसै जिनि यह काहु।
स्याम रोमावली की छबि सूर नाहिं निबाहु ॥३॥
( गोपी कह रही है- ) सखी ! श्यामके अनुपम अंगोको तो देखो। दोनो पिंडलियाँ और दोनो जाँघे कैसी सुंन्दर लगती है, इस रुपका वर्णन कौन कर सकता है । एक चरणको लाठीसे लिपटाकर झुके पृथ्वीपर दूसरा चरण टिकाये ( इस प्रकार ) खडे है मानो कामदेवने नीलमणिके दो खंभे बनाकर उन्हे एक-दूसरेसे लिपटाकर सजा दिया हो । कभी लाठीसे अपनी पिंडलीको लिपटाकर ( लाठीके सहारे लटकाकार ) स्वाभाविक ढंगसे ( इस प्रकार ) हिलाते है मानो हाथीका बच्चा बार-बार सूँड हिला रहा हो ॥५१॥
कमरमे बँधा पीताम्बर ऐसा सुन्दर लग रहा है मानो विद्युत अपना चञ्चलतारुप स्वाभाविक बाना छोडकर नवीन मेघपर स्थिर हो गयी हो । मनोहर साँवले शरीरपर मणिजटित सोनेकी किंकिणी ( ऐसी ) सुशोभित है मानो ( अपनी ) मादाओ एवं बच्चोंके साथ हंसोकी पंक्ति आकाशमे शोभित हो । कमलकी केसरके समूहके समान ( पीताम्बरकी ) मनोहर काछनी कमरमे शोभित है । सूरदासजी कहते है कि मेरे स्वामीकी अंगमाधुरीको देखकर मानो कामदेवके शरीरपर डंडा पड गया हो ( वह इस रुपमाधुरीके सम्मुख पराजित हो गया हो ) ॥५२॥
श्यामके अंग-प्रत्यंगको देखकर कोई व्रजयुवती ( उनके ) चन्द्रमाके समान ( चरण- ) नखोंको और कोई दोनो चरणतलोंकी ललाई देखकर ( अपने-आपको ) भूल गयी । कोई नूपुरोंको और कोई दोनो पिंडलियोंको ही देखकर मुग्ध हो रही तथा कोई दोनो जाँघोकी शोभा देखकर मन-ही-मन कुछ विचार कर रही है । कोई कमरमें बँधी पीताम्बरकी कछनी तथा मनभावनी ( सुन्दर ) करधनी देखकर और कोई नाभिकुण्डकी छटा देखकर अपना तन-मन न्यौछावर कर रही है । श्रीहरीके सुन्दर उदरपर मनोहर रोमावली ऐसी भली लगती है मानो एक ही वेशमें सजी भरौंकी श्रेणी विराजमान हो । सूरदासजी कहते है कि गोपियाँ खडी-खडी एकटक ( अपलक ) देखती हुई देखती हुई बुद्धिसे विचार कर रही हैं कि यह आकाशसे यमुनाजीकी पतली ( नीली ) धारा ( तो नही ) उतर रही है ॥५३॥
( श्यामके उदरपर ) रोमावलीकी रेखा ( ऐसी ) सुशोभित है मानो नीले मेघपर धुएँकी पतली शेष-बची हुई धारा ( रेखा ) हो । सुन्दर हृदयपर भृगुका चरण-चिह्न ( इस प्रकार ) अत्यन्त उत्तम अंकित दीख पडता है मानो एक ही बादलोंके बीचमे चन्द्रमा शिवजीके भूषणरुपमे ( बालरुपमे ) शोभित हो । मोतियोंकी माला तारांगणोंके समान अर्द्धचन्द्रके आकार ( अर्द्धवृत्तके रुप ) में सजी है ( तारागणोंके समान बिखरी नही है )और अंगमे लगा चन्दन उज्ज्वल जलपूर्ण बादलो-जैसा है तथा उदरकी गहरी त्रिवली तो अनुपमेय है ( उसकी उपमा देना शक्य नही ) बालोंमे लगा मयूरपिच्छ इन्द्र-धनुकी छटा दिखा रहा है और दाँतोकी कान्ति विद्युतके समान सुन्दर दीख पडती है । सूरदासजी कहते है कि मेरे स्वामीकी शोभा देखकर नेत्र पलक गिरना छोड देते ( एकटक देखते रहते ) है ॥५४॥
श्यामके अंग-प्रत्यंगको देख ( व्रजकी ) चतुर स्त्रियोंकी दृष्टि रोमावलीपर स्थिर हो गयी है, उसका परीक्षण ( उपमाके साथ वर्णन ) करते है - यह कामदेवके चलनेका मार्ग है ’ तो दुसरी कहती है - ’ यह उपमा तो उचित नही । ’ कोई कहती है - ’ ( यह ) भौंरेके बच्चोकी पंक्ति एक-में-एक सटी एकत्र हो गयी है । ’ कोई कहती है - ’ कामदेवद्वारा भेजा गया यह सर्प है, जो किसीको डस ( काट ) न ले । ’ सूरदासजी कहते है-श्यामसुन्दरकी रोमावलीकी शोभाका वर्णन करनेमे ( हमारा ) निर्वाह ( गति ) नही है ( उसका ठीक वर्णन हमसे नही हो सकता ) ॥५५॥