१२१.
राग सारंग
बैठी कहा, मदन मोहन कौ सुंदर बदन बिलोकि।
जा कारन घूँघट पट अब लौं अँखियाँ राखी रोकि ॥१॥
फबि रहि मोर चंद्रिका माथे, छबि की उठति तरंग।
मनौ अमर पति धनुष बिराजत नव जलधर के संग ॥२॥
रुचिर चारु कमनीय भाल पै कुंकुम तिलक दिए।
मानौ अखिल भुवन की सोभा राजति उदै किए ॥३॥
मनिमै जटित लोल कुंडल की आभा झलकति गंड।
मनौ कमल ऊपर दिनकर की पसरी किरन प्रचंड ॥४॥
भ्रकुटी कुटिल निकट नैननि के चपल होति इहि भाँति।
मनौ तामरस के सँग खेलत बाल भृंग की पाँति ॥५॥
कोमल स्याम कुटिल अलकावलि ललित कपोलन तीर।
मनौ सुभग इंदीबर ऊपर मधुपनि की अति भीर ॥६॥
अरुन अधर नासिका निकाई बदत परसपर होड।
सूर सुमनसा भई पाँगुरी निरखि डगमगे गोड ॥७॥
१२२.
राग नट नारायन
सजनी, निरखि हरि कौ रुप।
मनसि बचसि बिचारि देखौ अंग अंग अनूप ॥१॥
कुटिल केस सुदेस अलिगन, बदन सरद सरोज।
मकर कुंडल किरन की छबि, दुरत फिरत मनोज ॥२॥
अरुन अधर, कपोल, नासा, सुभग ईषद हास।
दसन की दुति तडित, नव ससि, भ्रकुटि मदन बिलास ॥३॥
अंग अंग अनंग जीते, रुचिर उर बनमाल।
सूर सोभा हृदै पूरन देत सुख गोपाल ॥४॥
१२३.
राग नट
नैननि ध्यान नंदकुमार।
सीस मुकुट सिखंड भ्राजत, नाहिं उपमा पार ॥१॥
कुटिल केस सुदेस राजत, मनौ मधुकर जाल।
रुचिर केसर तिलक दीन्हे, परम सोभा भाल ॥२॥
भृकुटि बंकट, चारु लोचन, रहीं जुबती देखि।
मनौ खंजन चाप डर डरि उडत नहि नहि तिहि पेखि ॥३॥
मकर कुंडल गंड झलमल निरखि लज्जित काम।
नासिका छबि कीर लज्जित, कबिन बरनत नाम ॥४॥
अधर बिद्रुम, दसन दाडिम, चिबुक है चितचोर।
सूर प्रभु मुख चंद पूरन, नारि नैन चकोर ॥५॥
१२४.
राग केदारौ
प्यारे नँदलाल हो। मोही तेरी चाल हो ॥
मोर मुकुट डोलनि, मुख मुरली कल मंद।
मनु तमाल सिखा सिखी नाचत आनंद ॥१॥
मकराकृत कुंडल छबि, राजत सुकपोल।
ईषद मुसुकानि बीच मंद मंद बोल ॥२॥
चितवनि चख अतिहि चपल राजति भ्रुव भंग।
धनुष बान डारि होत कोटि बस अनंग ॥३॥
बदन सुधा कौ सरबर, कुटिल अलक पारि।
ब्रज जुबती मृगिनि रची, तिन कौं फँदवारि ॥४॥
पीतांबर छबि निरखत दामिनिहु लजाइ।
चमकि चमकि सावन घन मैं सो दुरि जाइ ॥५॥
चरन कमल अवलंबित राजति बनमाल।
प्रफुलित ह्वै लता मनौ चढी तरु तमाल ॥६॥
सूरदास वा छबि पै वारौं तन प्रान।
गिरधर पिय देखि देखि, का करौं अनुमान ॥७॥
१२५.
राग सारंग
देखि सखी ! सुंदर घनस्याम।
सुंदर मुकुट, कुटिल कच सुंदर,
सुंदर भाल तिलक छबि धाम ॥१॥
सुंदर भ्रुव, सुंदर अति लोचन,
सुंदर अवलोकनि विश्राम।
अति सुंदर कुंडल श्रवनन बर,
सुंदर झलकन रीझत काम ॥२॥
सुंदर हास, नासिका सुंदर,
सुंदर मुरली अधर उपाम।
सुंदर दसन, चिबुक अति सुंदर,
सुंदर हृदै बिराजति दाम ॥३॥
सुंदर भुजा, पीतपट सुंदर,
सुंदर कनक मेखला झाम।
सुंदर जंघ, जानु पद सुंदर,
सूर उधारन सुंदर नाम ॥४॥
( गोपी कह रही है- ) ’ सखी ! बैठी क्या हो, मदनमोहनका सुन्दर मुख देखो, जिसके लिये अपने नेत्रोंको घूँघटके वस्त्रसे ( तुमने ) रोक रखा था ( कि उसे छोडकर और किसीको नही देखना है ) । मयुरपिच्छकी चन्द्रिका मस्तकपर छटा दे रही है ( और ) उससे सौन्दर्यकी तरंगे ( ऐसी ) उठ रही है, मानो इंद्रधनुष नवीन मेघके साथ शोभा दे रहा हो । मनोहर ललाटपर कुंकुमका अत्यन्त सुन्दर तिलक लगाये है, ( वह ऐसा लगता है ) मानो समस्त लोकोंकी सुन्दरता प्रकट होकर सुशोभित हो । मणिजटित चञ्चल कुण्डलोंकी कान्ति गण्डस्थलपर ( ऐसी ) झलक रही है, मानो कमलके ऊपर सूर्यकी तीक्ष्ण किरणे फैली हो । नेत्रोंके पास टेढी भौंहे इस प्रकार चञ्चल होती है, मानो भौंरोंके बच्चोंकी पंक्ति कमलके साथ खेल रही हो । मनोहर कपोलोंके पास ( जो ) कोमल काली घुँघराली अलके है, मानो सुन्दर नील कमलपर भौंरोकी अत्यन्त भीड हो । लाल-लाल ओठ और नासिकाकी सुन्दरता परस्पर होड बद रही है ( कि हम दोनोमे कौन सुन्दर है ) । सूरदासजी कहते है कि मोहनको देखकर मनकी गति अत्यन्त पंगु ( स्थिर ) हो गयी और पैर डगमगाने लगे ॥१२१॥
( गोपी कह रही है- ) सखी ! हरिका रुप निहार तथा मन और वाणीसे विचार करके देख कि इनके अंग-प्रत्यंगकी छटा निराली है । सुन्दर घुँघराले केश भौंरेके समान है, मुख शरद-ऋतुके कमलकी भाँति है और मकराकृत कुण्डलोंकी ज्योति-रेखाकी शोभा देखकर कामदेव भी ( लज्जासे ) छिपता फिरता है । लाल-लाल ओठ है, कपोल, नासिका एवं मन्द-मन्द मुसकान बडी सुन्दर है । दाँतोकी कान्ति विद्युत या द्वितीयाके चन्द्रमाकी भाँति है और भौंहे तो कामदेवकी ( साक्षात ) क्रीडा है । अंग-प्रत्यंगने कामदेवको जीत लिया है, सुन्दर वक्षःस्थलपर वनमाला है । सूरदासजी कहते है कि गोपाल अपनी शोभासे हृदयको पूर्ण आनन्द दे रहे है ॥१२२॥
( सखी कहती है- ) नेत्रोंमे नन्दकुमारका ( यह ) ध्यान है- ( उनके ) मस्तकपर मयूरपिच्छका मुकुट शोभा दे रहा है, जिसकी उपमा कही नही है । घुँघराले केश मनोहर रुपमे ऐसे शोभा देते है, मानो भौंरेका झुंड हो । सुन्दर केसरका तिलक लगाये है, जिससे ललाटकी बडी शोभा हो रही है । टेढी भौंहे है, सुन्दर नेत्र है, जिन्हे ( व्रजकी ) युवतियाँ देख रही है, मानो ( नेत्ररुपी ) खञ्जन ( भौंहेरुप ) धनुषको देखकर उसके भयसे भयभीत हुए उडते नही हो । मकराकृत कुण्डल गण्डस्थलपर झलमला रहे है, जिन्हे देखकर काम ( भी ) लजा जाता है; नाककी शोभा देखकर तोता ( भी ) लज्जित होता है कि ( मै इतना सुन्दर कहाँ हूँ ) जो कविगण मेरा नाम लेकर इसकी उपमाका वर्णन करते है । ओठ मूँगके समान तथा दाँत अनारके दानोंकी भाँति है और ठुड्डी तो चित्तको चुराये लेती है । सूरदासजी कहते है- मेरे स्वामीका मुख पूर्णिमाका चंद्रमा है, ( ओर व्रजकी ) स्त्रियोंके नेत्र चकोर है ॥१२३॥
( गोपी कह रही है- ) हे प्यारे नन्दलाल ! तुम्हारी चालपर मैं मुग्ध हो गयी हूँ । मन्द-मधुर मुरलीके सुन्दर शब्दके साथ मयूरपिच्छके मुकुटका हिलना ऐसा लगता है, मानो तमाल-वृक्षकी चोटीपर आनन्दपूर्वक मयूर नाच रहा हो । सुन्दर कपोलोंपर मकराकृत कुण्डलोंकी झलमलाहट शोभा दे रही है; मन्द मुस्कान है और बीचमे धीरे-धीरे बोलते भी है । देखनेकी भंगी और नेत्र अत्यन्त चञ्चल है । टेढी भौंहे शोभा दे रही है, ( जिन्हे देखकर ) करोडो कामदेव धनुष-बाण फेंककर वशमे हो जाते है । मुख अमृतका सरोवर है और घुँघराली अलके उसकी मेड ( कगारे ) है । व्रजयुवतीरुपी हरिणियोंके लिये वह फँसानेका जाल बनाया गया है । पीताम्बरकी छटा देखकर विद्युत भी लज्जित होती है । ( और इसीसे ) बार-बार चमककर श्रावणके बादलोंमे छिप जाती है । चरण-कमलतक लटकती वनमाला शोभा दे रही है, मानो तमाल-वृक्षपर चढी लता प्रफुल्लित हो रही हो । सूरदासजी कहते है कि इस शोभापर शरीर और प्राण न्योछावर कर दूँ । प्यारे गिरिधरकी शोभा अनुमान क्या करुँ ( इस अनुपमेयकी उपमा कैसे दूँ ) ॥१२४॥
( गोपिका कह रही है- ) सखी ! सुन्दर घनश्यामको देख ! सुन्दर मुकुट है, सुन्दर घुँघराले केश है और सुन्दर ललाटपर ( लगा ) तिलक शोभाका धाम ( घर ) है । सुन्दर भौंहे है, अत्यन्त सुन्दर नेत्र है तथा सुन्दर देखनेकी भंगी ( बडी ) शान्तिदायिनी ही है । श्रेष्ठ कानोंमे अत्यन्त सुन्दर कुण्डल है, जिनकी सुन्दर कान्तिपर कामदेव भी मोहित हो जाता है । सुन्दर हास्य, सुन्दर नासिका, ओठोंपर वंशी ( अति ) सुन्दरता उत्पन्न कर रही है । सुन्दर दाँत है, अत्यन्त सुन्दर ठुड्डी है और पीताम्बर है, स्वर्ण-किंकिणीकी झलक सुन्दर है, सुन्दर जाँघे और पिंडलियाँ सुन्दर है । सूरदासके उद्धार करनेवालेका नाम ( भी ) सुन्दर है ॥१२५॥