१०१.
राग सूही
प्रात समै आवत हरि राजत।
रतन जटित कुंडल सखि, स्त्रवनन,
तिन की किरन सूर तन लाजत ॥१॥
सातौ रासि मेलि द्वादस मैं,
कटि मेखला अलंकृत साजत।
पृथ्वी मथी पिता सो लै कर,
मुख समीप मुरली धुनि बाजत॥२॥
जलधि तात तिहि नाम कंठ के,
तिन के पंख मुकुट सिर भ्राजत।
सूरदास कहै सुनौ गूढ हरि
भगतन भजत, अभगतन भाजत ॥३॥
१०२.
राग नट
हरि तन मोहिनी माई।
अंग अंग अनंग सत सत, बरनि नहिं जाई ॥१॥
कोउ निरखि बिथुरी अलक मुख, अधिक सुख छाई ॥२॥
कोउ निरखि रहि भाल चंदन, एक चित लाई।
कोउ निरखि बिथकी भ्रकुटि पै नैन ठहराई ॥३॥
कोउ निरखि रहि चारु लोचन, निमिष भरमाई।
सूर प्रभु की निरखि सोभा कहत नहिं आई॥४॥
१०३.
राग गुंड मलार
स्याम सुख रासि, रस रासि भारी।
रुप की रासि, गुन रासि, जोबन रासि,
थकित भइँ निरखि नव तरुन नारी ॥१॥
सील की रासि, जस रासि, आनँद रासि,
नील नव जलद छबि बरन कारी।
दया की रासि, विद्या रासि, बल रासि,
निरदयाराति दनु कुल प्रहारी ॥२॥
चतुरई रासि, छल रासि, कल रासि, हरि
भजै जिहि हेत तिहि दैनहारी।
सूर प्रभु स्याम सुख धाम पूरन काम
बसन कटि पीत मुख मुरलि धारी ॥३॥
१०४.
राग बिहागरौ
सुंदर बोलत आवत बैन।
ना जानौ तिहि समै सखी री, सब तन स्त्रवन कि नैन ॥१॥
रोम रोम मैं सब्द सुरति की, नख सिख लौं चख ऐन।
इते मान बानी चंचलता सुनी न समुझी सैन ॥२॥
तब तकि जकि ह्वै रही चित्र सी, पल न लगत चित चैन।
सुनौ सूर यह साँच कि संभ्रम, सुपन किधौं दिठ रैन ॥३॥
१०५.
राग मलार
नैना ( माई ) भूलैं अनत न जात।
देखि सखी ! सोभा जु बनी है मोहन के मुसुकात ॥१॥
दाडिम दसन निकट नासा सुक, चौंच चलाइ न खात।
मनु रतिनाथ हाथ भ्रुकुटी धनु, तिहि अवलोकि डरात ॥२॥
बदन प्रभामय, चंचल लोचन, आनँद उर न समात।
मानौ भौंहे जुवा रथ जोते, ससि नचवत मृग मात ॥३॥
कुंचित केस, अधर धुनि मुरली सूरदास सुरसात।
मनौ कमल पहँ कोकिल कूजत, अलिगन उपर उडात ॥४॥
प्रातःकाल आते हुए श्याम शोभायमान हो रहे है । सखी ! उनके कानोंमें रत्नजटित कुण्डल है, जिनकी किरणोंसे सूर्य-बिम्ब भी लज्जित होता है । यह जुडी हुई मछलियोंकी आकृतिसे अलंकृत किंकिणी कमरमें शोभा दे रही है और बाँसकी वंशीको हाथमें लेकर मुखसे लगाकर ( सुरीली ) ध्वनिसे बजा रहे है । मयूरपिच्छका मुकुट मस्तकपर शोभा दे रहा है । सूरदासजी कहते है कि हरिकी यह रहस्यमय गति सुनो-भक्तोंके वे भजन करते ( उनसे प्रेम करते ) है और अभक्तोंसे दूर हो जाते है ॥१०१॥
( गोपी कहती है- ) ’ सखी ! श्यामके शरीरमे कोई जादू है, उनके अंग-प्रत्यंगमे सैकडो कामदेवोंकी छटा होनेसे उनका वर्णन नही किया जा सकता । कोई मस्तकके मुकुटकी छटा देखकर अपने-आपको भूल गयी है और कोई मुखपर बिखरी अलकोंको देखकर अत्यन्त आनन्दमे निमग्न है । कोई एकाग्रचित्तसे ललाटपर लगे चन्दनको देख रही है, ( तो ) कोई भृकुटिपर नेत्र स्थिर करके ( उसे ) देखती मुग्ध हो रही है । कोई अपलक नेत्रोंसे सुन्दर नेत्र देख रही है । ’ सूरदासजी कहते है कि मेरे स्वामीकी शोभा देखकर उसका वर्णन कोई कर नही सका है ॥१०२॥
( गोपी कहते है- सखी ! ) श्यामसुन्दर सुखकी राशि है और रस ( आनन्द ) की भी महान राशि है । वे रुपकी राशि है, गुणकी राशी है, युवावस्थाकी राशि है, उन्हे देखकर व्रजकी नवीन तरुण ( युवती ) स्त्रियाँ थकित ( मुग्ध ) हो गयी है । वे शीलकी राशि है, यशकी राशि है, आनन्दकी राशि है, नवीन नीले मेघके समान उनका शोभामय वर्ण है। वे दयाकी राशि है, विद्याकी राशि है, बलकी राशि है, वे क्रूरके शत्रु तथा दानवोंके कुलको नष्ट करनेवाले है । वे चतुरताकी राशि है, छल ( कौशल ) की राशि है, कलाकी राशि है; जो उन श्रीहरिका जिसलिये भजन करता है, उसे वही देनेवाले है । सूरदासके स्वामी श्यामसुन्दर सुखके धाम तथा पूर्णकाम है, कमरमे पीताम्बर पहिने और मुखपर मुरली धारन किये है ॥१०३॥
( गोपी कह रही है- ) अरी सखी ! जब मोहन सुन्दर बचन बोलते हुए आते है, तब पता नही लगता कि मेरे सारे शरीरमे कान है या नेत्र । उनके शब्द मेरे रोम-रोममे सुनायी देते है और ( उन्हे देखनेके लिये ) नखसे चोटीतक ( पूरा देह ) नेत्रोंका निवास बन जाता है । इतनेपर भी विश्वास कर, मैने उनकी वाणीकी चपलता नही सुनी और न उनका संकेत ही समझ सकी । तभीसे चित्रकी भाँति स्तम्भित ( ठिठकी ) -सी हो रही हूँ और एक पल भी चित्तको शान्ति नही है, सूरदासजी ( तुम भी ) सुनो-यह सुनना ( मेरा ) सच्चा है या भ्रम है, अथवा ( मैने मोहनका ) रात्रिमे स्वप्न देखा है ॥१०४॥
( गोपी कह रही है- ) सखी ! ( मेरे ) नेत्र भूलकर भी अन्यत्र नही जाते ( और कुछ नही देखना चाहते ) । सखी ! मुस्कराते समय मोहनकी जो शोभा बनी है, उसे ( तू भी ) देख । अनार-दानोंके समान दाँतोके पास नासिकारुप तोता है, जो चोंच बढाकर ( उन्हे ) खा नही पा रहा है, ( क्योंकि ) मानो कामदेवके हाथोमे जो भौंहेरुपी धनुष है, उसीको देखकर वह डर रहा है । कान्तिमय मुखमे चञ्चल नेत्रोंके देखकर हृदयमे आनन्द समाता नही । ऐसा लगता है मानो मुखरुपी रथके भौंहेरुपी जुएमे जोतकर चंद्रमा उन्मत्त ( अनियंत्रित नेत्ररुपी ) मृगोको नचा रहा हो । सूरदासजी कहते है- घुँघराले केश है, ओठोंसे सात स्वरावली अत्यन्त रसमयी वंशीकी ध्वनि हो रही है मानो कमलके समीप ( बैठी ) कोकिल कूज रही हो और भौंरे ऊपर उड रहे हो ॥१०५॥