सूतजी कहते हैं - भगवान् विष्णु पुनः बोले ब्रह्मन् ! उपर्युक्त अड़सठ नामोंसे भगवान् विष्णुकी पावन स्तुतिका वर्णन किया गया । अब जो दूसरे - दूसरे पावन तीर्थ और नाम हैं, उनका वर्णन मुझसे सुनिये ॥१॥
सर्वप्रथम गङ्गा पवित्र हैं; फिर यमुना, गोमती, सरयु, सरस्वती, चन्द्रभागा और चर्मण्वती - ये नदियाँ पावन हैं । इसी प्रकार कुरुक्षेत्र, गया, तीनों पुष्कर और अर्बुद - क्षेत्र तथा परम पावन नर्मदा नदी - ये उत्तरमें परम पावन तीर्थ हैं । तापी, पयोष्णी - ये दो पावन नदियाँ हैं । इनके संगमसे एक बहुत उत्तम तीर्थ हो गया है तथा ब्रह्मागिरिकी मेखलाओंसे मिले हुए भी बहुत - से उत्तम तीर्थ हैं । विरज तीर्थ भी समस्त पापोंको क्षीण करनेवाला है तथा चतुरानन ! गोदावरी नदी सर्वत्र परमपान हैं । कमलोद्भव ! तुङ्गभद्रा नदी भी अत्यन्त पवित्र करनेवाली है, जिसके तटपर मैं मुनियोंद्वारा पूजित हो भगवान् शङ्करके साथ स्वयं निवास करता हूँ । दक्षिण गङ्गा, कृष्णा और विशेषतः कावेरीये पुण्य नदियाँ हैं । इनके अतिरिक्त, कमलोद्भव ! मैं सह्यपर्वतपर आमलक ग्राममें स्वयं निवास करता हूँ । वहाँ ' देवदेव ' नामसे प्रसिद्ध मेरे श्रीविग्रहका तुम स्वयं ही सदा पूजन करते हो । वहाँ समस्त पापोंको हर लेनेवाले अनेक तीर्थ हैं, जिनमें स्नान और आचमन करके मनुष्य पापसे मुक्त हो जाता है ॥२ - ८॥
सूतजी कहते हैं - भरद्वाज ! ब्रह्माजीसे इन तीर्थोंका वर्णन करके भगवान् मधुसूदन अपने धामको चले गये और ब्रह्मा भी ब्रह्मलोक सिधारे ॥९॥
भरद्वाजजी बोले - धर्मज्ञ ! उस आमलक ग्राममें जो - जो पुण्यतीर्थ हैं, उनका आप विस्तारके साथ यथार्थरुपमें वर्णन करें । जहाँ देवदेवेश्वर भगवान् विष्णु स्वयं ब्रह्माजीके द्वारा पूजित होते हैं, उस क्षेत्रकी उत्पत्ति कथा, माहात्म्य और यात्रापर्वका विस्तृत विवरण प्रस्तुत कीजिये ॥१० - ११॥
सूतजी कहते हैं - विप्र ! महामुने ! सह्यपर्वतपर स्थित ' आमलक ' तीर्थके आविर्भाव आदिकी पवित्र एवं पापनाशक कथा मैं आपसे कह रहा हूँ, सुनें ॥१२॥
ब्रह्मन् ! पूर्वकालमें सह्यपर्वतके वनमें एक बहुत बड़ा आँवलेका वृक्ष था । उसे बुद्धिमान् लोगोंने ' महोग्र ' नाम दे रखा था । महामुने ! उस वृक्षके फल बड़े रसीले, दर्शनीय, दिव्य एवं दुर्लभ होते थे । समस्त उत्तम ब्राह्मणोंमें उत्कृष्ट श्रीब्रह्माजीने पूर्वकालमें महान् फलोंसे युक्त उस महावृक्षको देखा था । विप्रेन्द्र ! उसे देखकर, यह क्या है - यह जाननेके लिये ब्रह्माजी ध्यानमग्न हो गये । उन्होंने ध्यानमें उस स्थानपर महान् आँवलेके वृक्षको देखा और उसके ऊपर शङ्ख, चक्र एवं गदा धरण करने वाले देवेश्वर भगवान् विष्णुको विराजमान देखा । फिर उन्होंने जब ध्यानसे निवृत्त हो खड़े होकर दृष्टिपात किया, तब वहाँ वृक्षके स्थानमें केवल भगवान् विष्णुकी एक प्रतिमा दिखायी दी । उसका आधारभूत वह दिव्य महावृक्ष भूतलमें धँस गया ! तब लोकपितामह भगवान् ब्रह्माजी गन्ध - पुष्प आदिसे नित्य ही उन अविनाशी देवदेवेश्वरकी आराधना करने लगे । उस समय उनके द्वारा बारह और सात बार भगवानकी पूजा सम्पन्न हुई ॥१३ - १९॥
मुनिश्रेष्ठ ! उस आमलकक्षेत्रमें विराजमान भगवानके माहात्म्यका कौन वर्णन कर सकता है । श्रीसह्यपर्वतस्थ आमल क ग्राममें इस प्रकार अविनाशी देवेश्वर भगवानकी आराधना करनेके पश्चात ब्रह्माजीको वहाँ बारह तीर्थ और प्राप्त हुए । भगवानके चरणके नीचे पश्चिमाभिमुख एक तीर्थ प्रकट हुआ । वह पावन तीर्थ पापोंको नष्ट करनेवाला है । मनुष्य चक्रतीर्थमें स्नान करके सब पापोंसे मुक्त हो जाता है और हजारों वर्षांतक ब्रह्मलोकमें पूजित होता है । इसके बाद ' शङ्खतीर्थ ' है । उसमें स्नान करनेसे मनुष्यको वाजपेय यज्ञका फल मिलता है । मुने ! पौष मासमें जब सूर्य पुष्य नक्षत्रपर स्थित हों, उसी समय सह्यपर्वतपर गङ्गाजलसे भरा हुआ ब्रह्माजीका कमण्डलु गिर पड़ा था, तबसे वह स्थान ' कुण्डिका ' तीर्थके नामसे विख्यात हुआ । वह तीर्थ सारे अशुभोंको हर लेता है । वहाँ एक शिलामय गृह भी है । उस तीर्थमें स्नान करके मनुष्य तत्काल सिद्धि प्राप्त कर लेता है । जो मनुष्य उस तीर्थमें तीन राततक उपवास करके स्नान करता है, वह सब पापोंसे सर्वथा मुक्त हो ब्रह्मलोकमें पूजित होता है । कुण्डिकातीर्थसे उत्तर और ' पिण्डस्थान ' नामक तीर्थसे दक्षिण ' ऋणमोचन ' नामक तीर्थ हैं, जो सब तीर्थोंमे उत्तम और गुह्य है । ब्रह्मन् ! वहाँ तीन तीन राततक निवास करके जो स्नान करता है, वह निस्संदेह तीनों ऋणोंसे मुक्त हो जाता है । जो मनुष्य पिण्डस्थानमें श्राद्ध करके वहाँ पितरोंके उद्देश्यसे विधिपूर्वक पिण्डदान करेगा, उसके पितर पूर्ण तृप्त होकर अवश्य ही पितृलोकको प्राप्त होंगे ॥२० - ३०॥
इसके बाद ' पाप - मोचन ' तीर्थ है । उस तीर्थमें पाँच राततक निवास करते हुए जो नित्य स्नान करता है, वह अपने सम्पूर्ण पापोंको नष्ट करके विष्णुलोकमें आनन्दका भागी होता है । वहीं एक बहुत बड़ी धारा बहती है । उसके जलको जो अपने सिरपर धारण करता है, वह समस्त यज्ञोमके फलको प्राप्त करके स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है ॥३१ - ३२॥
इसके बाद ' धनुः पात ' नामक एक महान् तीर्थ है । उसमें जो भक्तिपूर्वक स्नान करता है, वह पूर्ण आयुका भोग करके अन्तमें स्वर्गलोकमें सम्मानित होता है । ' शरबिन्दु ' तीर्थमें स्नान करनेसे मनुष्य मृत्युके बाद इन्द्रपुरीमें जाता है तथा जो सह्यपर्वतपर ' वाराहतीर्थ ' में स्नान करता और वहाँ एक दिन - रात निवास करता है, वह विष्णुलोकमें पूजित होता है । इसके बाद सह्यके शिखरपर ' आकाशगङ्गा ' नामक एक उत्तम तीर्थ है । वहाँकी शिलाओंके नीचेसे सफेद मिट्टी निकलती है । विप्रवर ! उसमें जो भक्तिपूर्वक स्नान करता है, वह सम्पूर्ण यज्ञोंका फल प्राप्तकर विष्णुलोकमें पूजित होता है ॥३३ - ३६ १/२॥
ब्रह्मन् ! उस निर्मल सह्यगिरिसे जहाँ - जहाँ जलके झरने गिरते हैं, वहाँ - वहाँ सब जगह तीर्थ समझना चाहिये । उसमें स्नान करके मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है । जो नित्य ही सह्यपर्वतकी यात्रा करके वहाँ स्नान करता है, वह निष्पाप हो जाता है । द्विजेन्द्र ! जो मनुष्य सह्यपर्वतके इन पावन तीर्थोंमें स्नान करके भक्तिपूर्वक भगवान् विष्णुको पुष्प चढ़ाता है, वह पापोंसे रहित हो भगवान् विष्णुमें ही लीन हो जाता है । अन्य सभी तीर्थोंके पर्वतोंसे बहनेवाले जलमें यथासम्भव एक बार स्नान कर लेना चाहिये, परंतु गङ्गामें बार - बार स्नान करे; क्योंकि गङ्गामें सम्पूर्ण तीर्थ हैं, भगवान् विष्णुमें सभी देवता वर्तमान हैं, गीता सर्वशास्त्रमयी है और सभी धर्मोंमें जीवदया श्रेष्ठ है ॥३७ - ४० १/२॥
विप्र ! इस प्रकार मैंने आपसे इस क्षेत्रके उत्तम माहात्म्यका वर्णन किया । साथ ही सह्य और आमलक ग्रामके तीर्थोंमें स्नान करनेके फल भी बताये । द्विजश्रेष्ठ ! वही उत्तम तीर्थ है, जो तीर्थोंका भी तीर्थ हो । यह आमलकग्राम तीर्थ देवदेव भगवान् विष्णके चरण तलसे प्रकट हुआ है, अतः यह सर्वोत्तम तीर्थ है । यहाँपर जो जल है, उसमें स्नान करना हजार अश्वमेध यज्ञ करनेके बराबर है । उसीको वेदवेत्ता पुरुष ' चक्रतीर्थ ' कहते हैं । वहाँ स्नान करके भगवान् मधुसूदनके चरणोंमें मस्तक झुकानेसे मनुष्यका इस संसारमें पुनर्जन्म नहीं होता । गङ्गा, प्रयाग, नैमिषारण्य, पुष्कर, कुरुजाङ्गलप्रदेश और यमुना - तटवर्ती तीर्थ - ये सभी पुण्यतीर्थ हैं । इन तीर्थोंके जलमें स्नान करनेपर वे कुछ समयके बाद पवित्र करते हैं; किंतु भगवान् विष्णुका चरणोदकरुप यह ' चक्रतीर्थ ' तत्काल पवित्र कर देता है ॥४१ - ४४॥
इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ' तीर्थप्रशंसा ' विषयक छाछठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥६६॥