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अध्याय १२

श्रीनरसिंहपुराण - अध्याय १२

अन्य पुराणोंकी तरह श्रीनरसिंहपुराण भी भगवान् श्रीवेदव्यासरचित ही माना जाता है ।


सूतजी बोले - समस्त पापोंको नष्ट करनेवाली और अमृतके समान मधुर इस पावन कथाको सुनकर धर्मात्मा शुकदेवजी तृप्त न हुए - उनकी श्रवणविषयक इच्छा बढ़ती ही गयी; अतः वे व्यासजीसे बोले ॥१॥

श्रीशुकदेवजी बोले - पिताजी ! बुद्धिमान् मार्कण्डेयजीकी तपस्या बड़ी भारी और अद्भुत है, जिन्होंने साक्षात् भगवान् विष्णुका दर्शन किया और मृत्युपर विजय पायी । तात ! पापोंको नष्ट करनेवाली इस विष्णु - सम्बन्धिनी पावन कथाको सुनकर मुझे तृप्ति नहीं हो रही हैं; अतः अब मुझसे कोई दूसरी कथा कहिये । महामते ! जिनका मन सुदृढ़ है, जो इस जगतमें कभी निषिद्ध कर्म नहीं करते, उन मनुष्योंको जिस पुण्यकी प्राप्ति ऋषियोंने बतायी है, उसे ही आप कहिये ॥२ - ४॥

व्यासजी बोले - मुनिश्रेष्ठ शुकदेव ! स्थिर चित्तवाले पुरुषोंको इस लोकमें या परलोकमें जो पुण्य प्राप्त होता है, उसे मैं बतलाता हूँ; तुम सुनो । इसी विषयमें विद्वान् पुरुष यमीके साथ महात्मा यमके संवादरुप इस प्राचीन इतिहासका वर्णन किया करते हैं । अदितिके पुत्र जो विवस्वान् ( सूर्य ) हैं, उनके दो तेजस्वी संतानें हुईं । उनमें प्रथम तो ' यम ' नामक पुत्र था और दूसरी उससे छोटी ' यमी ' नामकी कन्या थी । वे दोनों अपने पिताके उत्तम भवनमें दिनोंदिन भलीभाँति बढ़ने लगे । वे बाल - स्वभावके अनुसार साथ - साथ खेलते - कूदते और इच्छानुसार घूमते - फिरते थे । एक दिन यमकी बहिन यमीने अपने भाई यमके पास जाकर कहा - ॥५ - ९॥

यमी बोली - जो भाई अपनी योग्य बहिनको उसके चाहनेपर भी न चाहे, जो बहिनका पति न हो सके, उसके भाई होनेसे क्या लाभ ? जो स्वामीकी इच्छा रखनेवाली अपनी कुमारी बहिनका स्वामी नहीं बनता, उस भ्राताको ऐसा समझना चाहिये कि वह पैदा ही नहीं हुआ । किसी तरह भी उसका उत्पन्न होना नहीं माना जा सकता । भैया ! यदि बहिन अपने भाईको ही अपना स्वामी - अपना पति बनाना चाहती है, इस दशामें जो बहिनको नहीं चाहता, वह पुरुष मुनिशिरोमणि ही क्यों न हो, इस संसारमें भ्राता नहीं कहा जा सकता । यदि किसी दूसरेकी ही कन्या उसकी पत्नी हो तो भी उससे क्या लाभ, यदि उस भाईकी अपनी बहिन उसके देखते - देखते कामसे दग्ध हो रही है । मेरे होश, इस समय अपने ठिकाने नहीं हैं । मेरे होश, इस समय अपने ठिकाने नहीं हैं । मैं इस समय जो काम करना चाहती हूँ, तुम भी उसीकी इच्छा करो; नहीं तो मैं तुम्हारी ही चाह लेकर प्राण त्याग दूँगी, मर जाऊँगी । भाई ! कामकी वेदना असह्य होती है । तुम मुझे क्यों नहीं चाहते ? प्यारे भैया ! कामाग्निसे अत्यन्त संतप्त होकर मैं मरी जा रही हूँ; अब देर न करो । कान्त ! मैं कामपीड़िता स्त्री हूँ । तुम शीघ्र ही मेरे अधीन हो जाओ । अपने शरीरसे मेरे शरीरका संयोग होने दो ॥१० - १६॥

यम बोले - बहिन ! सारा संसार जिसकी निन्दा करता है, उसी इस पापकर्मको तू धर्म कैसे बता रही है ? भद्रे ! भला कौन सचेत पुरुष यह न करने योग्य पापकर्म कर सकता है ? भामिनि ! मैं अपने शरीरसे तुम्हारे शरीरका संयोग न होने दूँगा । कोई भी भाई अपनी कामपीड़िता बहिनकी इच्छा नहीं पूरी कर सकता । जो बहिनके साथ समागम करता है, उसके इस कर्मको महापातक बताया गया है - शुभे ! यह तिर्यग् - योनिमें पड़े हुए पशुओंका धर्म हैं - देवता या मनुष्यका नहीं ॥१७ - १९॥

यमी बोली - भैया ! हम दोनों जुड़वी संतानें हैं और माताके गर्भमें एक साथ रहे हैं । पहले माताके गर्भमें एक ही स्थानपर हम दोनोंका जो संयोग हुआ था, वह जैसे दूषित नहीं हो सकता । भाई ! अभीतक मुझे पतिकी प्राप्ति नहीं हुई है । तुम मेरा भला करना क्यों नहीं चाहते ? ' निऋति ' नामक राक्षस तो अपनी बहिनके साथ नित्य ही समागम करता है ॥२० - २१॥

यम बोले - बहिन ! कुत्सित लोकव्यवहारकी निन्दा ब्रह्माजीने भी की है । इस संसारके लोग श्रेष्ठ पुरुषोंद्वारा आचरित धर्मका ही अनुसरण करते हैं । इसलिये श्रेष्ठ पुरुषको चाहिये कि वह उत्तम धर्मका ही आचरण करे और निन्दित कर्मको यत्नपूर्वक त्याग दे - यही धर्मका लक्षण है । श्रेष्ठ पुरुष जिस - जिस कर्मका आचरण करता है, उसीको अन्य लोग भी आचरणमें लाते हैं और वह जिसे प्रमाणित कर देता है, लोग उसीका अनुसरण करते हैं । सुभगे ! मैं तो तुम्हारे इस वचनको अत्यन्त पापपूर्ण समझता हूँ । इतना ही नहीं, मैं इसे सब धर्मो और विशेषतः समस्त लोकोंके विपरीत मानता हूँ । मुझसे अन्य जो कोई भी रुप और शीलमें विशिष्ट हो, उसके साथ तुम आनन्दपूर्वक रहो; मैं तुम्हारा पति नहीं हो सकता । भद्रे ! मैं दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रतका पालन करनेवाला हूँ, अतः अपने शरीरसे तुम्हारे शरीरका स्पर्श नहीं करुँगा । जो बहिनको ग्रहण करता है, उसे मुनियोंने ' पापी ' कहा है ॥२२ - २७॥

यम बोली - मैं देखती हूँ, इस संसारमें ऐसा ( तुम्हारे समान ) रुप दुर्लभ हैं । भला, पृथ्वीपर ऐसा स्थान कहाँ है, जहाँ रुप और समान अवस्था - दोनों एकत्र वर्तमान हों । मैं नहीं समझती, तुम्हारा यह चित्त इतना स्थिर कैसे है, जिसके कारण तुम अपने समान रुप और गुणसे युक्त होनेपर भी मुझ मोहिता स्त्रीकी इच्छा नहीं करते हो । वृक्षमें संलग्न हुई लताके समान मैं स्वेच्छानुसार तुम्हारी शरणमें आयी हूँ । मेरे मुखपर पवित्र मुसकान शोभा पाती है । अब मैं अपनी दोनों भुजाओंसे तुम्हारा आलिङ्गन करके ही रहूँगी ॥२८ - ३०॥

यम बोले - श्यामलोचने ! सुश्रोणि ! मैं तुम्हारी इच्छा पूर्ण करनेमें असमर्थ हूँ । तुम किसी दूसरे देवताका आश्रय लो । वरवर्णिनि ! तुम्हें देखकर काममोहसे जिसका चित्त विभ्रान्त हो उठे, उसी देवताकी तुम देवी हो जाओ । जिसे समस्त प्राणी कहते है, मानवगण जिसे वरणीय बतलाते हैं, कल्याणमयी, सर्वाङ्गसुन्दरी और सुसंस्कृता कहते हैं, उसके लिये भी विद्वान् पुरुष कभी दूषित कर्म नहीं करेंगे । महाप्राज्ञे ! मेरा व्रत अटल है । मैं यह पश्चात्तापजनक पाप कदापि नहीं करुँगा । भद्रे ! मेरा चित्त निर्मल है, भगवान् विष्णु और शिवके चिन्तनमें लगा हुआ है । इसलिये मैं दृढ़संकल्प एवं धर्मात्मा होकर निश्चय ही यह पापकर्म नहीं करना चाहता ॥३१ - ३४॥

श्रीव्यासजी कहते हैं - शुकदेव ! यमीके बारंबार कहनेपर भी दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रतका पालन करनेवाले यमने वह पाप - कर्म नहीं किया; इसलिये वे देवत्वको प्राप्त हुए । इस प्रकार स्थिरचित्त होकर पाप न करनेवाले मनुष्योंके लिये अनन्त पुण्यफलकी प्राप्ति बतलायी गयी हैं । ऐसे लोगोंको स्वर्गरुप फल उपलब्ध होता है । यह यमीका उपाख्यान, जो प्राचीन एवं सनातन इतिहास है, सब पापोंको दूर करनेवाला और पवित्र है । असूया त्यागकर इसका श्रवण करना चाहिये । जो ब्राह्मण देवयाग और पितृयागमें सदा इसका पाठ करता है, उसके पितृगण पूर्णतः तृप्त होते हैं । उन्हें कभी यमराजके भवनमें प्रवेश नहीं करना पड़ता । जो इसका नित्य पाठ करता है, वह पितृऋणसे मुक्त हो जाता है तथा उसे तीव्र यम - यातनाओंसे छुटकारा मिल जाता है । बेटा शुकदेव ! मैंने तुमसे यह सर्वोत्तम एवं पुरातन उपाख्यान कह सुनाया, जो वेदके पदों तथा अर्थोंद्वारा निश्चित है । इसका पाठ करनेपर यह सदा ही मनुष्योंका पाप हर लेता है । मुझे बताओ, अब मैं तुम्हें और क्या सुनाऊँ ? ॥३५ - ४०॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ' यमी - यम - संवाद ' नामक बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥१२॥

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Last Updated : July 25, 2009

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