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अध्याय ६१

श्रीनरसिंहपुराण - अध्याय ६१

अन्य पुराणोंकी तरह श्रीनरसिंहपुराण भी भगवान् श्रीवेदव्यासरचित ही माना जाता है ।


श्रीहारीत मुनि कहते हैं - मुनियों ! मैंने चारों वर्णो और चारों आश्रमोंके धर्मका स्वरुप बतलाया, जिसके पालनसे उपर्युक्त ब्राह्मणादि वर्णके लोग स्वर्ग और मोक्ष भी प्राप्त कर सकते हैं । अब मैं संक्षेपमें योगशास्त्रका उत्तम सारांश वर्णन करुँगा, जिसके अभ्याससे मुमुक्षु पुरुष इसी जन्ममें मोक्षको प्राप्त हो जाते हैं ॥१ - २॥

योगाभ्यासपरायण पुरुषके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं, अतः कर्यव्य कर्मसे अवकाश मिलनेपर प्रतिदिन योगनिष्ठ होकर ध्यान करना चाहिये । पहले प्राणायामके द्वारा वाणीको, प्रत्याहारसे इन्द्रियोंको और धारणाके द्वारा दुर्धर्ष मनको वशमें करे । तत्पश्चात् जो सबके एकमात्र कारण, ज्ञानानन्दस्वरुप, अनामय और सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म तत्त्व हैं, उन जगदाधार अच्युतका ध्यान करे । एकान्त स्थानमें अकेले बैठकर अपने हदयमें कमलके आसनपर विराजमान, तपाये हुए सुवर्णके समान कान्तिमान् अपने आत्मस्वरुप भगवानका चिन्तन करे । जो सबके प्राणों और चित्तकी चेष्टाओंको जानता है, सभीके हदयमें विराजमान है तथा समस्त प्राणियोंद्वारा जाननेयोग्य है - वह परमात्मा मैं ही हूँ, ऐसी भावना करे । जबतक आत्मसाक्षात्कारजन्य सुखकी प्रतीति हो, तभीतक ध्यान करना आवश्यक बताया गया है । उसके उपरान्त श्रौत और स्मार्त कर्मोंका आचरण सुचारुरुपसे करे ॥३ - ८॥

जैसे रथके बिना घोड़े और घोड़ोंके बिना रथ उपयोगी नहीं हो सकते, उसी प्रकार तपस्वीके तप और विद्याकी सिद्धि भी एक - दूसरेके आश्रित हैं । जिस प्रकार अन्न मधु ( चीनी आदि ) - से युक्त होनेपर मीठा होता है और मधु भी अन्नके साथ ही सुस्वादु प्रतीत होता है, उसी प्रकार तप और विद्या - दोनों साथ रहकर ही भवरोगके महान् औषध होते हैं । जिस प्रकार पक्षी दोनों पंखोंसे ही उड़ सकते हैं, उसी प्रकार ज्ञान और कर्म - दोनोंसे ही सनातन ब्रह्मकी प्राप्ति हो सकती है । विद्या और तपसे सम्पन्न योगतत्पर ब्राह्मण दैहिक द्वन्द्वोंको शीघ्र ही त्यागकर भवबन्धनसे मुक्त हो जाता है । जबतक देवयानमार्गसे जाकर जीवको परमपदकी प्राप्ति नहीं होती, तबतक लिङ्गशरीरका विनाश कभी हो नहीं सकता । द्विजवरो ! इस प्रकार वर्णों और आश्रमोंके विभागपूर्वक मैंने उन आश्रमोंके सम्पूर्ण सनातन धर्मका संक्षेपसे वर्णन कर दिया ॥९ - १४॥

मार्कण्डेयजी कहते हैं - इस प्रकार हारीत मुनिके मुखसे स्वर्ग और मोक्षरुप फलको देनेवाले धर्मका वर्णन सुनकर वे ऋषिगण उन मुनीश्वरको प्रणाम कर प्रसन्नतापूर्वक अपने - अपने स्थानको चले गये । जो भी हारीत मुनिके मुखसे निर्गत इस धर्मशास्त्रका श्रवण करके इसके अनुसार आचरण करता है वह परमगतिको प्राप्त होता है । नरेश्वर ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रके जो - जो कर्म बताये गये हैं, उन - उन अपने - अपने वर्णोचित कर्मोंका पालन करनेवाले ब्राह्मण आदि सद्गतिको प्राप्त होते हैं; इसके विपरीत आचरण करनेवाला पुरुष तत्काल नीचे गिर जाता है । जिसके लिये जो धर्म बताये गये हैं, वह पुरुष उन्हीं धर्मोंसे प्रतिष्ठित होता है । इसलिये आपत्तिकालके अतिरिक्त सदा ही अपने धर्मका पालन करना चाहिये । राजेन्द्र ! चार ही वर्ण और चार ही आश्रम हैं । जो लोग अपने वर्ण एवं आश्रमके उचित धर्मका पूर्णतया पालन करते हैं, वे परम गतिको प्राप्त होते हैं । भगवान् नरसिंह जिस प्रकार स्वधर्मका आचरण करनेसे मनुष्यपर प्रसन्न होते हैं, वैसे दूसरे प्रकारसे नहीं; इसलिये वर्णधर्मके अनुसार भगवान् नरसिंहका पूजन करना चाहिये । जो पुरुष स्वकर्ममें तत्पर रहकर उत्पन्न हुए वैराग्यके बलसे योगाभ्यासपूर्वक सदा सच्चिदानन्दस्वरुप अनादि ब्रह्मका ध्यान करता है, वह देह त्यागकर साक्षात् श्रीविष्णुपदको प्राप्त होता है ॥१५ - २२॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ' योगाध्याय ' नामक इकसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥६१॥

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Last Updated : October 02, 2009

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