मार्कण्डेयजी बोले - वायुनन्दन हनुमानजीके द्वारा कथित प्रिया जानकीका वृत्तान्त सुन लेनेके पश्चात श्रीरामचन्द्रजी विशाल वानरसेनाके साथ समुद्रके निकट गये । साथ ही सुग्रीव और जाम्बवान् भी तालवनसे सुशोभित सागरके सुरम्य तटपर जा पहुँचे । अत्यन्त हर्ष और उत्साहसे पूर्ण उन असंख्य वानरोंसे धिरे हुए श्रीमान् भगवान् राम नक्षत्रोंसे धिरे हुए चन्द्रमाकी भाँति शोभा पा रहे थे । अपने धीर - वीर अनुज लक्ष्मणजीके साथ समुद्रकी विशालताका अवलोकन करते हुए वे उसके तटपर ठहर गये । इधर लङ्कामें रावणने [ राक्षसकुलके हितके लिये ] अच्छी बात कहनेपर भी अपने छोटे भाई महाबुद्धिमान् विभीषणको बहुत फटकारा । तब वे अपने शास्त्रज्ञ मन्त्रियोंके साथ महान् देवता भक्तवत्सल लक्ष्मीपतिके अवतार नरश्रेष्ठ श्रीराममें अविचल भक्ति रखते हुए उनके निकट आये और अनायास ही महान् कर्म करनेवाले उन भगवान् श्रीरामसे हाथ जोड़ विनयपूर्वक यों बोले - ' महाबाहो श्रीराम ! देवदेव जनार्दन ! मैं [ रावणका भाई ] विभीषण हूँ, आपकी शरणमें आया हूँ; मेरी रक्षा कीजिये ' - यों कहकर हाथ जोड़े हुए वे श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें गिर पड़े । उनका अभिप्राय जानकर भगवान् श्रीरामने उन महाबुद्धिमान् वीर विभीषणको उठाया और समुद्रके जलसे उनका राज्याभिषेक करके कहा - ' अब लङ्काका राज्य तुम्हारा ही होगा ।' श्रीरामके यों कहनेपर विभीषण उनके साथ बातचीत करके वहीं खड़े रहे ॥१ - ८ १/२॥
तब विभीषणने कहा - ' प्रभो ! आप जगत्पति भगवान् विष्णु हैं । देव ! ऐसी चेष्टा करें कि समुद्र ही आपको जानेका मार्ग दे दे । हम सब लोग उससे प्रार्थना करें ।' उनके यों कहनेपर श्रीरामचन्द्रजी वानरोंके साथ समुद्रके तटपर धरना देते हुए लेट गये । अपार कान्तिमान् भगवान् श्रीरामको वहाँ लेटे - लेटे तीन रातें बीत गयीं; तब कमलनयन जगदीश्वर श्रीरामचन्द्रजीको बड़ा ही क्रोध हुआ और उन्होंने समुद्रके जलको सुखा डालनेके लिये हाथमे अग्निबाण धारण किया । यह देख लक्ष्मणजी तत्काल उठे और कुद्ध हुए भगवान् रामसे यों बोले - ॥९ - १२॥
' महामते ! आपका क्रोध तो समस्त ब्रह्माण्डका प्रलय करनेवाला है, इस समय इस कोपको दबा दें; क्योंकि आपने प्राणियोंकी रक्षाके लिये अवतार धारण किया है । देवदेव ! आप क्षमा करें ', - यों कहकर उन्होंने श्रीरामके उस बाणको पकड़ लिया । इधर तीन रात बीत जानेपर श्रीरामचन्द्रजीको कुपित देख, उनके अग्निबाणसे भयभीत हो, समुद्र मनुष्यरुप धारणकर उनके निकट आया और महान् देवता भगवान् श्रीरामसे बोला - ' भगवान् ! मुझ अपराधीकी रक्षा कीजिये । रघुनन्दन ! अब मैंने आपको जानेका मार्ग दे दिया । आपकी सेनामें वीरवर नल पुल बनानेमें निपुण कहे गये हैं । उनके द्वारा आपको जितना बड़ा अभीष्ट हो, उतने ही बड़े उत्तम पुलका निर्माण करा लीजिये ' ॥१३ - १६ १/२॥
तब भगवान् रामने नल आदि अन्य अमित - तेजस्वी वानरोंद्वारा बहुत बड़ा पुल बनवाया और उसीके द्वारा समुद्रके पार जा, सुवेल नामक पर्वतपर पहुँचकर वहीं वानरोंके साथ डेरा डाल दिया । वहाँसे अङ्गदने देखा - ' दुष्ट रावण महलकी अट्टालिकापर बैठा हुआ है ।' उसे देखते ही वे भगवान् श्रीरामकी आज्ञा ले, दूत - कार्यमें संलग्न हो, उछलकर रावणके मस्तकपर लात मारी । उस समय देवताओंने महान् पराक्रमी अङ्गदजीकी ओर बड़े विस्मयके साथ देखा । इस प्रकार अपनी प्रतिज्ञा पूरी करके वे पुनः सुवेल पर्वतपर चले आये । तदनन्तर प्रतापी भगवान् श्रीरामने असंख्य वानर - सेनाओंके द्वारा रावणकी पुरी लङ्काको चारों ओरसें घेर लिया ॥१७ - २१ १/२॥
तब श्रीरामने चारों ओर देख लक्ष्मणको पास बुलाकर कहा - ' भाई ! हम लोगोंने समुद्र तो पार कर लिया तथा कपिराज सुग्रीवके सैनिकोंने राक्षसोंकी राजधानी लङ्काको आनन - फाननमें अपना ग्रास - सा बना लिया है , वह भाग्य अथवा इस धनुषके अधीन है ' ॥२२ - २३॥
लक्ष्मण बोले - ' भाई ! कातर पुरुषोंके हदयको अवलम्बन देनेवाले भाग्य या दैवसे क्या होनेवाला है ? जबतक हमारी भ्रुकुटि रोषसे तनकर ललाटके ऊपरतक नहीं जाती और जबतक प्रत्यञ्चा धनुषके अग्रभागपर नहीं चढ़ती, तभीतक निशाचराज रावणका दर्प त्रिभुवनका मूलोच्छेदन करनेवाली उसकी भुजाओंके भरोसे बढ़ता रहे ' ॥२४॥
ऐसा विचार प्रकट करके लक्ष्मणने उसी समय भगवान् श्रीरामके कानमें मुँह लगाकर कहा - ' अब इस समय इस बातकी परीक्षा तथा जानकारीके लिये कि यह अङ्गद अपने पिता वालीके वैरजनित वधका स्मरण करके भी आपमें कितनी भक्ति रखता है, इसमें कितना पराक्रम है तथा इसके अब कैसे लक्ष्मण ( रंग - ढंग ) है, आप अङ्गदको पुनः दूतकर्म करनेका आदेश दीजिये ।' श्रीरामचन्द्रजी ' बहुत अच्छा ' कहकर अङ्गदकी ओर बड़े आदरसे देखकर उन्हें आदेश देने लगे - ' अङ्गद ! तुम्हारे पिता वालीने दशकण्ठ रावणके प्रति जो पुरुषार्थ किया था, उसका हम भी वर्णन नहीं कर सकते । उसकी याद आते ही हर्षके कारण हमारे शरीरमें रोमाञ्च हो आता है । वही वाली आज तुम्हारे रुपमें प्रकट है । तुम पुत्ररुपमें उत्पन्न हो, अपने पुरुषार्थसे पिताको भी पीछे छोड़ रहे हो; अतः तुम्हारे विषयमें क्या कहना है । तुम पुत्र - पदवीको मस्तकका तिलक बना रहे हो ' ॥२५ - २६॥
अङ्गदने अपने मस्तकपर दोनों हाथ जोड़ भगवानको प्रणाम करके कहा - ' जैसी आज्ञा; भगवान् इधर ध्यान दें । रघुपते ! क्या मैं चहारदीवारी, विहार - स्थल और नगरद्वारसहित लङ्कापुरीको यहीं उठा लाऊँ ? या अपनी सारी सेनाको ही उस पुरीमें आक्रमणके लिये पहुँचा दूँ ? अथवा इस अत्यन्त तुच्छ सागरको अविरल कुलाचलोंद्वारा पाट दूँ ? भगवन् ! आज्ञा दीजिये, क्या करुँ ? मेरे भुजदण्डोंद्वार सब कुछ सिद्ध हो सकता है ' ॥२७ - २८॥
भगवान् रामने अङ्गदके कथनसे ही उनकी भक्ति और शक्तिका अनुमान लगाकर कहा - ' वीर ! तुम दशमुख रावणके पास जाकर कहो - ' रावण ! तुम अज्ञानसे या प्रभुत्वके अभिमानमें आकर हम लोगोंके पीठ - पीछे चोरकी भाँति जिस सीताको ले गये हो, उसे छोड़ दो; नही तो लक्ष्मणके छोड़े हुए बाणोद्वारा बेधे जाकर छलकते हुए रक्तकी धाराओंसे छत्रकी भाँति दिगन्तको आच्छादित करके तुम अपने पुत्रोंके साथ ही यमपुरीको प्रस्थान करोगे ' ॥२९ -३०॥
अङ्गदने कहा - ' देव ! मुझ दूतके रहते हुए रावण संधि करे या विग्रह, दोनों ही अवस्थाओंमें उसके दसों मस्तक पृथ्वीतलपर गिरकर लोटेंगे । हाँ, इतना अन्तर अवश्य होगा कि संधि कर लेनेपर उसके मस्तक बिना कटे ही ( आपके सामने प्रणामके लिये ) गिरेंगे और विग्रह करनेपर कटकर गिरेंगे ।' तब श्रीरामचन्द्रजीने अङ्गदकी प्रशंसा करके उन्हें भेजा और वे भी वहाँ जा, वाद - प्रतिवादकी चातुरीसे शत्रुको हराकर लौट आये ॥३१ - ३३॥
दशानन रावणने भी अपने गुप्तचरोंद्वारा श्रीराचन्द्रजीका, उनके भाई लक्ष्मणका और वानरोंका बल जानकर भयभीत होनेपर भी निडरकी भाँति लङ्कापुरीकी रक्षाके लिये राक्षसोंको आज्ञा दी । सम्पूर्ण दिशाओंमें राक्षसोंको जानेकी आज्ञा दे उसने अपने पुत्रोंसे और धूम्राक्ष तथा धूम्रपानसे भी कहा - ' राक्षसो ! तुम लोग नगरमें जाओ और उन दोनों मनुष्य - कुमारोंको पाशसे बाँध लाओ । शत्रुओंके लिये यमराजके समान पराक्रमी मेरा भाई कुम्भकर्ण भी इस समय वाद्योंके शब्दसे जगा लिया गया है ॥३४ - ३६॥
इतना ही नहीं, रावणने बड़े बलवान् - बलवान् राक्षसोंको युद्धके लिये आदेश दिया और वे भी उसकी आज्ञा शिरोधार्य कर वानरोंके साथ जूझने लगे । अपनी शक्तिभर युद्ध करते हुए करोड़ों राक्षस वानरोंके हाथ मारे गये । और - तो - और, दशमुख रावणने जिन दूसरे - दूसरे अपार - तेजस्वी राक्षसोंको पूर्वद्वारपर युद्धके लिये आदेश किया था, वे सब भी नील आदि वानरोंसे युद्ध करते हुए मृत्युको प्राप्त हुए । इसके बाद रावणने दक्षिण दिशामें लड़नेके लिये जिन राक्षसोंको नियुक्त किया था, वे भी श्रेष्ठ वानरोंद्वारा अपने अङ्गोंके विदीर्ण कर दिये जानेपर यमलोकको चले गये । फिर पश्चिम द्वारपर जो पर्वताकार राक्षस थे, वे भी अत्यन्त गर्वीले अङ्गदादि वानर वीरोंद्वारा यमपुरीको पहुँचा दिये गये । फिर उत्तर द्वारपर रावणके द्वारा ठहराये हुए क्रूर राक्षस मैन्द आदि वानरोंके हाथ मारे जाकर धराशायी हो गये । तदनन्तर वानरगण लङ्काकी ऊँची चहारदीवारी फाँदकर उसके भीतर रहनेवाले बलाभिमानी राक्षसोंका भी संहार करके पुनः शीघ्रतापूर्वक अपनी सेनामें लौट आये ॥३७ - ४३ १/२॥
इस प्रकार सब राक्षसोंके मारे जानेपर उनकी स्त्रियोंको रोदन करते देख दशानन रावण क्रोधसे मूर्च्छित होकर निकला । वह प्रतापी वीर हाथमें धनुष ले बहुसंख्यक राक्षसोंके घिरा हुआ पश्चिम द्वारपर आया और बोला - ' कहाँ है वह राम ' तथा रथपर बैठे - बैठे वानरोंपर बाणोंकी वर्षा करने लगा । उसके बाणोंसे अङ्ग छिन्न - भिन्न हो जानेके कारण वानर इधर - उधर भागने लगे । उस समय वानरोंको भागते देख श्रीरामने पूछा - ' वानरोंमें क्यों भगदड़ पड़ गयी है ? इनपर कौन - सा भय आ पहुँचा ?' ॥४४ - ४९॥
विभीषणके यों कहनेपर श्रीरामचन्द्रजीने कुपित होकर धनुष उठाया और प्रत्यञ्चाकी टंकारसे समस्त दिशाओं तथा आकाशको गुँजा दिया । तत्पश्चात् कमलनयन श्रीरामचन्द्रजी रावणसे युद्ध करने लगे और सुग्रीव, जाम्बवान्, हनुमान, अङ्गद, विभीषण, पराक्रमी लक्ष्मण तथा अन्यान्य महाबली वानर पहुँचकर हाथी, घोड़े और रथोंसे युक्त रावणकी चतुरङ्गिणी सेनाको, जो सब प्रकारके बाणोंकी वर्षा कर रही थी, मारने लगे । वहाँ भी श्रीराम और रावणका युद्ध बड़ा ही भयकंर हुआ । रावण जिन - जिन अस्त्र - शस्त्रोंका प्रयोग करता था , उन सबका बाणोंद्वारा छेदन करके महाबली श्रीरामचन्द्रजीने एक बाणसे सारथिको तथा दस बाणोंसे उसके बड़े - बड़े घोड़ोंको धराशायी करके एक भल्ल नामक बाणद्वारा रावणके धनुषको भी काट डाला । फिर महान् पराक्रमी रामने पंद्रह बाणोंसे उसके मुकुट बेधकर सुवर्णकी पाँखवाले दस बाणोंसे उसके मस्तकोंको भी बेध दिया । उस समय देवताओंका मान - मर्दन करनेवाला रावण श्रीरामके बाणोंसे अत्यन्त पीड़ित हो गया और मन्त्रियोंद्वारा ले जाया जाकर वह अपनी पुरी लङ्काको लौट गया ॥५० - ५७॥
तदनन्तर वाद्योंके घोषसे जगाया गया कुम्भकर्ण लङ्काके परकोटेको लाँघकर धीरे - धीरे गजसमूहकी - सी मन्द गतिसे बाहर निकला । उसका शरीर बहुत ही ऊँचा और मोटा था, आँखें बड़ी ही भयानक थीं । वह महाबली दुष्ट राक्षस भूखसे व्याकुल हो वानरोंको अपना आहार बनाता हुआ रणभूमिमें विचरने लगा । उसे देख सुग्रीवने उछलकर उसकी छातीमें शूलसे प्रहार किया तथा अपने दोनों हाथोंसे उसके दोनों कानोंको और मुखसे उसकी नासिकाको काट लिया ॥५८ - ६०॥
तत्पश्चात् श्रीरामचन्द्रजीने रणमें सब ओर युद्ध करते हुए बहुसंख्यक राक्षसाधिपतियोंको चारों ओरसे वानरोंद्वारा मरवाकर अपने तीखे बाणोंसे कुम्भकर्णका भी गला काट लिया । फिर वहाँ आये हुए साक्षात् गरुडके द्वारा इन्द्रजितको भी जीतकर वानरोंसे घिरे हुए श्रीरामचन्द्रजी लक्ष्मणसहित बड़ी शोभा पाने लगे । इन्द्रजितका उद्योग व्यर्थ होने और कुम्भकर्णके मारे जानेपर लङ्कापति रावणने क्रुद्ध हो अपने पुत्र त्रिशिरा, अतिकाय, महाकाय, देवान्तक और नरान्तकसे कहा - ' पुत्रवरो ! तुम उन दोनो मनुष्यों - राम और महापार्श्व नामक राक्षसोंसे कहा - ' तुम दोनों इस संग्राममें शत्रुओंका वध करनेके लिये उद्यत ही बहुत बड़ी सेनाओंको साथ जाओ ' ॥६१ - ६६॥
रणभूमिमें उपर्युक्त शत्रुओंको आकर युद्ध करते देख लक्ष्मणने छः तीखे बाणोंसे मारकर उन्हें यमलोक भेज दिया । इसके बाद वानरगणने शेष राक्षसोंको मार डाला । सुग्रीवने बलाभिमानी कुम्भ नामक राक्षसको मारा, हनुमानजीने देवताओंके लिये कण्टकरुप निकुम्भका वध किया । युद्ध करते हुए विरुपाक्षको विभीषणने गदासे मार डाला । वानरश्रेष्ठ भीम और मैन्दने श्वपतिका दूसरे निशाचरोंका संहार किया । नरेश्वर ! युद्धमें लगे हुए श्रीरामचन्द्रजीने भी संग्रामभूमिमें बाणोंकी वर्षा करनेवाले महालक्ष और महाचल नामक राक्षसोंको मौतके घाट उतार दिया ॥६७ - ७१॥
तत्पश्चात इन्द्रजित् मन्त्रशक्तिसे प्राप्त हुए रथपर आरुढ़ हो समस्त वानरोंपर बाण - वृष्टि करने लगा । रात्रिके समय समस्त वानर - सेना तथा श्रीरामचन्द्रजीको मेघनादके बाणोंसे विद्ध हो सर्वथा तथा श्रीरामचन्द्रजीको मेघनादके बाणोंसे विद्ध हो सर्वथा निश्चेष्ट पड़े देख पवनकुमार हनुमानजी जाम्बवानके द्वारा प्रेरित हो अपने पराक्रमसे औषध ले आये । उन्होंने उस औषधके प्रभावसे भूमिपर पड़े हुए श्रीरामचन्द्रजी तथा वानरगणोंको उठाया और प्रज्वलित उल्का हाथमें लिये उन्हीं वानरोंके साथ रातमें जाकर हाथी, रथ और घोड़ोंसे युक्त राक्षसोंकी लङ्कामें आग लगा दी । तदनन्तर भगवान् रामने बादलके समान समस्त दिशाओंमें बाणोंकी वर्षा करते हुए मेघनादका अपने भाई लक्ष्मणके द्वारा वध करा दिया ॥७२ - ७६॥
इस प्रकार जब पुत्र - मित्रादि समस्त राक्षस - बन्धु मारे गये तथा होम - जप आदि अभिचार - कर्मोंमें वानरोंद्वारा विघ्न डाल दिया गया, तब कुपित हो दशाशीश रावण वेगशाली सुशिक्षित अश्वोंसे युक्त विचित्र रथमें बैठकर लङ्काके द्वारपर निकल आया और कहने लगा - ' तपस्वीका वेष बनाये वह मनुष्य राम कहाँ है, जो वानरोंके बलपर योद्धा बना हुआ है ?' राक्षसराज रावणने यह बात बड़े जोरोंसे कही । यह सुन भगवान् रामने दशानन रावणको आते देख उससे कहा - ' दुष्टात्मा रावण ! मैं ही राम हूँ और यहाँ खड़ा हूँ, तू मेरी ओर चला आ ' ॥७७ - ८०॥
उनके यों कहनेपर लक्ष्मणने कमलनयन श्रीरामचन्द्रजीसे कहा - ' महाबल ! आप अभी ठहरें, मैं इस राक्षसके साथ युद्ध करुँगा ।' तदनन्तर लक्ष्मणने आगे बढ़कर बाणोंकी वृष्टिसे रावणको ढक दिया । फिर दशग्रीव रावणने भी अपनी बीस भुजाओंद्वारा छोड़े हुए शस्त्रास्त्रोंसे लक्ष्मणको संग्राममें आच्छादित कर दिया । इस प्रकार उन दोनोंमें महान् युद्ध हुआ । विमानपर आरुढ़ देवतागण इस महान संग्रामको देख [ कौतुहलवश ] आकाशमें स्थित हो गये ॥८१ - ८३॥
तत्पश्चात् लक्ष्मणने अपने अपने तीखे बाणोंद्वारा रावणके अस्त्र - शस्त्र काटकर उसके सारथिको मार डाला और भल्ल नामक बाणोंसे उसके घोड़ोंको भी नष्ट कर दिया । फिर तीखे बाणोंसे रावणका धनुष और उसकी ध्वजा काटकर शत्रु - वीरोंका नाश करनेवाले महान् पराक्रमी लक्ष्मणजीने उसके वक्षः स्थलको बेध दिया । तब राक्षसराज रावण रथसे नीचे गिर पड़ा । किंतु शीघ्र ही उठकर कुपित हो उसने हाथमें शक्ति उठायी, जो सैकड़ों घड़ियालोके समान आवाज करनेवाली थी । उसकी धार अग्निकी ज्वालाके समान प्रज्वलित थी तथा उसकी कान्ति महती उल्काके समान प्रेतीत होती थी । उसने दृढ़तापूर्वक मुट्ठी बाँधकर उस शक्तिको लक्ष्मणकी छातीपर फेंका । वह शक्ति उनकी छाती छेदकर भीतर घुस गयी । इससे आकाशमें स्थित देवतागण भयभीत हो गये । लक्ष्मणको गिरा देख रोते हुए वानराधिपतियोंके साथ दुःखी हो भगवान् श्रीराम शीघ्र ही उनके पास आये और कहने लगे - ' मेरे मित्र पवनकुमार हनुमान् कहाँ चले गये ? पृथ्वीपर पड़ा हुआ मेरा भाई लक्ष्मण जिस - किसी प्रकार भी जीवित हो सके, वह उपाय होना चाहिये ' ॥८४ - ८९ १/२॥
राजन् उनके इस प्रकार कहनेपर, विख्यात पराक्रमी वीर हनुमानजी हाथ जोड़कर बोले - ' देव ! आज्ञा दें, मैं सेवामें उपस्थित हूँ ' ॥९० १/२॥
श्रीरामने कहा - ' महावीर ! मुझे ' विशल्यकरणी ' ओषधि चाहिये । महाबली ! उसे लाकर मेरे भाईको शीघ्र ही नीरोग करो ॥९१ १/२॥
तब हनुमानजी बड़े वेगसे उछले और द्रोणगिरिपर जाकर शीघ्र ही वहाँसे दवा बाँधकर ले आये और उसका प्रयोग करके देवदेवेश्वरों तथा रामचन्द्रजीके देखते - देखते क्षणभरमें लक्ष्मणको नीरोग कर दिया ॥९२ - ९३॥
तदनन्तर जगदीश्वर कमलनयन श्रीराम बहुत ही कुपित हुए और रावणकी बची हुई सेनाको हाथी, घोड़े, रथ तथा राक्षसोंसहित क्षणभरमें मार गिराया । उन्होंने तीखे बाणोंसे रावणका शरीर जर्जर कर दिया और रणभूमिमें वानरोंसे धिरे हुए खड़े रहे । रावण निश्चेष्ट होकर गिर पड़ा । फिर धीरे - धीरे होशमें आनेपर वह उठकर कुपित हो सिंहनाद करने लगा । उसकी गर्जना सुनकर आकाशवर्ती देवतालोग दहल गये ॥९४ - ९६ १/२॥
इसी समय रावणके प्रति वैर बाँधे महामुनि अगस्त्य श्रीरामचन्द्रजीके पास आये और शत्रुओंपर विजय दिलानेवालें ' आदित्यहदय ' नामक स्तोत्र - मन्त्रका उपदेश किया । महाबली श्रीरामचन्द्रजीने भी अगस्त्यमुनिके बताये हुए उस विजयदायक मन्त्रका जप करके उनके द्वारा अर्पित किये गये उत्तम डोरीवाले, सुदृढ़ एवं अनुपम वैष्णव - धनुषको सादर ग्रहण किया और उसपर प्रत्यञ्चा चढ़ायी । फिर प्रतापी रघुनाथजी शत्रुओंका मर्म - भेदन करनेमें समर्थ सोनेकी पाँखवाले तीक्ष्ण बाणोंद्वारा राक्षसराज रावणके साथ युद्ध करने लगे ॥९७ - १०० १/२॥
महामते ! नृपश्रेष्ठ ! उन दोनों भयंकर शक्तिवाले श्रीराम और रावणके परस्पर युद्ध करते समय एक - दूसरेपर छोड़ी हुई अग्निकी ज्वाला उठ - उठकर वहाँ आकाशमें फैलने लगी । इस वर्तमान संग्राममें अवर्णनीय पराक्रमवाले वीर दशरथनन्दन श्रीराम पैदल ही युद्ध कर रहे थे । यह देख देवराज इन्द्रने अपने सारथि मातालिसहित एक महान् लोकविख्यात दिव्य रथ भेजा, जिसमें एक हजार घोड़े जुते थे । प्रतापी श्रीरामचन्द्रजी श्रेष्ठ देवोंद्वारा प्रशंसित होकर उस रथपर आरुढ़ हुए और मातालिके उपदेशसे उस दुष्ट दशाननका, जिसे ब्रह्माजीने वरदान दिया था, ब्रह्मास्त्रद्वारा वध किया । इस प्रकार प्रतापी भगवान् श्रीरामने अपने क्रूर वैरी रावणका संहार किया ॥१०१ - १०६॥
श्रीरामचन्द्रजीके द्वारा शत्रु रावणका उसके गणोंसहित वध हो जानेपर इन्द्र आदि सभी देवता परस्पर कहने लगे - '' साक्षात भगवान् विष्णुने ही श्रीरामवतार लेकर हमारे वैरी रावणका, जो दूसरोंके लिये अवध्य था, युद्धमें वध किया है । इसलिये हम लोग आकाशसे उतरकर इन अनन्त पराक्रमी तथा किसीसे भी पराजित न होनेवाले ' श्रीराम ' नामक परमेश्वरकी पूजा करें ।'' ऐसी सम्मति करके वे रुद्र, इन्द्र, वसु और चन्द्र आदि देवतागण अनेक कान्तिमान् विमानोंद्वारा पृथ्वीपर उतरे । वे जगतके रचयिता, विश्वमूर्ति, सनातन पुरुष, विजयशील भगवान् विष्णुके स्वरुपभूत अविनाशी परमात्मा श्रीरामका लक्ष्मणसहित विधिवत् पूजन करके उन्हें सब ओरसे घेरकर खड़े हो गये ॥१०७ - १११॥
सब देवता परस्पर कहने लगे - ' देवगण ! देखो - ये श्रीरामचन्द्रजी हैं, ये लक्ष्मणजी खड़े हैं, ये सूर्यनन्दन सुग्रीव हैं, ये वायुनन्दन हनुमानजी खड़े हैं और ये अङ्गद आदि सभी वानर वीर विराजमान हैं ।' तत्पश्चात् श्रीरामचन्द्रजी और लक्ष्मणके मस्तकपर देवाङ्गनाओंके हाथसे छोड़े गये फूलोंकी वर्षा हुई । उस समय वहाँकी सब दिशाएँ उन दिव्य पुष्पोंकी सुगन्धसे सुवासित हो रही थीं और उन पुष्पोंपर भ्रमरगण मँड़रा रहे थे ॥११२ - ११४॥
तदनन्तर ब्रह्माजी हंसकी सवारीसे वहाँ आये और ' अमोघ ' नामक स्तोत्रसे भगवान् श्रीरामकी स्तुति करके तब उनसे बोले ॥११५॥
ब्रह्माजीने कहा - आप समस्त प्रणियोंके आदिकारण, अविनाशी, ज्ञानदृष्टि भगवान् विष्णु हैं; आप ही वेदान्त - विख्यात सनातन परब्रह्म हैं । आपने आज जो सम्पूर्ण लोकोंको रुलानेवाले रावणका वध किया है, इससे समस्त लोकों तथा देवताओंका भी कार्य सद्यः सिद्ध हो गया ॥११६ - ११७॥
ब्रह्माजीके इस प्रकार कहनेके पश्चात् भगवान् शङ्करने भी पहले श्रीरामचन्द्रजीको प्रेमपूर्वक प्रणाम किया । फिर उन्हें राजा दशरथका दर्शन कराया । उसके बाद यह कहकर कि ' श्रीसीताजी निष्कलङ्ग और शुद्ध चरित्रवाली हैं ' - भगवान् शंकर चले गये ॥११८ १/२॥
तदनन्तर पवित्रात्मा सीताजीको अपने बाहुबलसे प्राप्त सुन्दर पुष्पक - विमानपर चढ़ाकर भगवानने हनुमानजी को चलनेका आदेश दिया । तब समस्त वानरेन्द्रोंद्वारा वन्दित शोकरहित जानकीदेवीको आभूषणॊंसे विभूषितकर महाबली रामचन्द्रजी समुद्रके पुलपर महादेवजीकी स्थापना की और शङ्करजीकी कृपासे उन्होंने उन शिवजीमें परमभक्ति प्राप्त की । वहाँ स्थापित हुए पिनाकधारी महादेवजी ' रामेश्वर ' नामसे विख्यात हुए । उनके दर्शनमात्रसे शिवजी सब प्रकारके हत्यादि दोषोंको दूर कर देते हैं ॥११९ - १२२ १/२॥
इस प्रकार प्रतिज्ञा पूर्ण करके श्रीरामचन्द्रजी अपना चित्त भरतजीकी ओर लगा रहनेके कारण वहाँसे दिव्यपुरी अयोध्याको गये । फिर भरतजीके मनानेपर श्रीरामचन्द्रजीने वसिष्ठ आदि उत्तम ब्राह्मणोंके द्वारा अपना राज्याभिषेक कराया । तत्पश्चात् प्रतापी भगवान् श्रीरामने चिरकालतक धर्मपर्वक राज्य किया तथा राजोचित यागादि कर्मोंका अनुष्ठान करके वे पुरवासीजनोंके साथ ही स्वर्गलोक ( साकेतधाम ) - को चले गये । राजन् ! पृथ्वीपर महात्मा श्रीरामचन्द्रजीके किये हुए चरित्रोंका मैंने तुमसे संक्षेपतः वर्णन किया । जो लोग इसको भक्तिपूर्वक पढ़ते और सुनते हैं, उन्हें जगत्पति भगवान् श्रीराम अपना धाम प्रदान करते हैं ॥१२३ - १२५॥
इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें श्रीरामावतारकी कथाविषयक बावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥५२॥