सूतजी कहते हैं - भरद्वाज ! भगवान् नरसिंह जिस प्रकार ब्रह्मा होकर जगतकी सृष्टिके कार्यमें प्रवृत्त होते हैं, उसका मैं आपसे वर्णन करता हूँ, सुनिये । विद्वन् ! ' नारायण ' नामसे प्रसिद्ध लोकपितामह भगवान् ब्रह्मा नित्य - सनातन पुरुष हैं, तथापि वे ' उत्पन्न हुए हैं ' - ऐसा उपचारसे कहा जाता है । उनके अपने परिमाणसे उनकी आयु सौ वर्षकी बतायी जाती है । उस सौ वर्षका नाम ' पर ' हैं । उसका आधा ' परार्ध ' कहलाता है । निष्पाप महर्षे ! साधुशिरोमणे ! मैंने तुमसे भगवान् विष्णुके जिस कालस्वरुपका वर्णन किया था, उसीके द्वारा उस ब्रह्माकी तथा दूसरे भी जो पृथ्वी, पर्वत और समुद्र आदि पदार्थ एवं चराचर जीव हैं, उनकी आयुका परिमाण नियत किया जाता है । अब मैं आपसे मनुष्योंकी ' काल - गणना ' का ज्ञान बता रहा हूँ, सुनिये ॥१ - ५१/२॥
अठारह निमेषोंकी एक ' काष्ठा ' कही गयी है, तीस काष्ठाओंकी एक ' कला ' समझनी चाहिये तथा तीस कलाओंका एक ' मुहूर्त ' होता है । तीस मुहूर्तोका एक मानव ' दिन - रात ' माना गया है । उतने ही ( तीस ही ) दिन - रात मिलकर एक ' मास ' होता है । इसमें दो पक्ष होते हैं । छः महीनोंका एक ' अयन ' होता है । अयन दो हैं - ' दक्षिणायन ' और ' उत्तरायण ' । दक्षिणायण देवताओंकी रात्रि है और उत्तरायण दिन । दो अयन मिलकर मनुष्योंका एक ' वर्ष ' कहा गया है । मनुष्योंका एक मास पितरोंका एक दिन - रात बताया गया है और मनुष्योंका एक वर्ष वसु आदि देवताओंका एक दिन - रात कहा गया है । देवताओंके बारह हजार वर्षोंका त्रेता आदि नामक चतुर्युग होता है । उसका विभाग आपलोग मुझसे समझ लें ॥६ - ११॥
पुराण - तत्त्ववेत्ताओंने कृत आदि युगोंका परिमाण क्रमशः चार, तीन, दो और एक हजार दिव्य वर्ष बतलाया है । ब्रह्मन् ! प्रत्येक युगके पूर्व उतने पीछे उतने ही परिमाणवाले ' संध्यांश ' होते हैं । विप्र ! संध्या और संध्यांशके बीचका जो काल है, उसे सत्ययुग और त्रेता आदि नामोंसे प्रसिद्ध युग समझना चाहिये । ' सत्ययुग ', ' त्रेता ', ' द्वापर ' और ' कलि ' - ये चार युग मिलकर ' चतुर्युग ' कहलाते हैं । द्विज ! एक हजार चतुर्युग मिलकर ' ब्रह्माका एक दिन ' होता है । ब्रह्मन् ! ब्रह्माके एक दिनमें चौदह मनु होते हैं । उनका कालकृत परिमाण सुनिये । सप्तर्षि, इन्द्र, मनु और मनु - पुत्र - ये पूर्व कल्पानुसार एक ही समय उत्पन्न किये जाते हैं तथा इनका संहार भी एक ही साथ होता है । ब्रह्मन् ! इकहत्तर चतुर्युगसे कुछ अधिक काल एक ' मन्वन्तर ' कहलाता है । यही मनु तथा इन्द्रादि देवोंका काल है । इस प्रकार दिव्य वर्ष - गणनाके अनुसार यह मन्वन्तर आठ लाख बावन हजार वर्षोंका समय कहा गया है । महामुने ! द्विजवर ! मानवीय वर्ष - गणनाके अनुसार पूरे तीस करोड़ सरसठ लाख, बीस हजार वर्षोंका काल एक मन्वन्तरका परिमाण है, इससे अधिक नहीं ॥१२ - २१॥
इस कालका चौदह गुना ब्रह्माका एक दिन होता है । ब्रह्माजीने विश्व - सृष्टिके आदिकालकें प्रसन्न मनसे देवताओं तथा पितरोंकी सृष्टि करके गन्धर्व, राक्षस, यक्ष, पिशाच, गुह्यक, ऋषि, विद्याधर, मनुष्य, पशु, पक्षी, स्थावर ( वृक्ष, पर्वत आदि ), पिपीलिका ( चींटी ) और साँपोंकी रचना की हैं । फिर चारों वर्णोंकी सृष्टि करके वे उन्हें यज्ञकर्ममें नियुक्त करते हैं । तत्पश्चात् दिन बीतनेपर वे अविनाशी प्रभु त्रिभुवनका उपसंहार करके दिनके ही बराबर परिमाणवाली रात्रिमें शेषनागकी शय्यापर सोते हैं । उस रात्रिकें बीतनेपर ' ब्राह्य ' नामक विख्यात महाकल्प हुआ, जिसमें भगवानका मत्स्यावतार और समुद्र - मन्थन हुआ । इस ब्राह्य - कल्पके ही समान तीसरा ' वाराह - कल्प ' हुआ, जिसमें कि भगवती वसुंधरा ( पृथ्वी ) - का उद्धार करनेके लिये साक्षात् भगवान् विष्णुने प्रसन्नतापूर्वक वाराहरुप धारण किया । उस समय महर्षिगण उनकी स्तुति करते थे । स्थलचर और आकाशचारी जीवोंके द्वारा जिनकी इयत्ताको जान लेना नितान्त असम्भव है, वे आदिदेव भगवान् विष्णु समस्त प्रजाओंकी सृष्टि कर ' नैमित्तिक प्रलय ' में सबका संहार करके शयन करते हैं ॥२२ - २८॥
इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ' सृष्टिरचनाविषयक ' दूसरा अध्याय पूरा हुआ ॥२॥