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अध्याय ५१

श्रीनरसिंहपुराण - अध्याय ५१

अन्य पुराणोंकी तरह श्रीनरसिंहपुराण भी भगवान् श्रीवेदव्यासरचित ही माना जाता है ।


मार्कण्डेयजी बोले - हनुमानजीने रावणद्वारा हरी गयी सीताकी खोज करने तथा उनके स्थानका पता लगानेके लिये चारणोंके मार्ग ( आकाश ) - से जानेकी इच्छा की । पूर्वाभिमुख हो, हाथ जोड़कर उन्होंने देवगणोंसहित आत्मयोनि ब्रह्माजीको मन - ही - मन प्रणाम किया तथा श्रीराम और महारथी लक्ष्मणको भी मनसे ही प्रणाम करके सागर तथा सरिताओंको मस्तक नवाया । फिर अपने वानर - बन्धुओंको गले लगाकर उन सबकी प्रदक्षिणा की । तब अन्य सब वानरोंने यह सबकी प्रदक्षिणा की । तब अन्य सब वानरोंने यह आशीर्वाद दिया - ' वीर ! तुम ( सकुशल ) लौट आनेके लिये पवित्र वायुसे सेवित मार्गपर बिना विघ्न - बाधाके जाओ ।' यों कहकर उन्होंने हनुमानजीका सम्मान किया । फिर पराक्रमी पवनकुमार अपनी सहज शक्तिको प्राप्त हुए - उनमें वायुके सदृश बलका आवेश हो गया । दूरतकके मार्गका अवलोकन करते हुए उन्होंने ऊपर दृष्टि डाली । अपने - आपमें षडविध ऐश्वर्यकी पूर्णताका - सा अनुभव करते हुए वे महाबली हनुमान् महेन्द्र पर्वतको पैरोंसे दबाकर उसके शिखरसे आकाशकी ओर उछले ॥१ - ६॥

बुद्धिमान् वायुपुत्र हनुमानजी श्रीरामचन्द्रजीके कार्यसाधनमें तत्पर हो जब अपने पिता वायुके मार्गसे चले जा रहे थे, उस समय उनको थोड़ी देरतक विश्राम देनेके लिये, समुद्रद्वारा प्रेरित हो, मैनाक पर्वत पानीसे बाहर ऊपरकी ओर उठ गया । उसे देख उन्होंने वहाँ थोड़ासा रुककर उससे आदरपूर्वक बातचीत की और फिर उसे अपने वेगसे दबाकर उछलते हुए वे दूर चले गये । मार्गमें सिंहिका नामकी राक्षसी थी । उसने जलमें मुँह फैला रखा था । महाकपि हनुमानजी उसके भीतर घुसकर पुनः बाहर निकल आये । इस प्रकार सिंहिकाके मुखसे निकलवर प्रतापी पवनकुमार उस समुद्र - प्रदेशको लाँघते हुए त्रिकूट पर्वतके सुरम्य शिखरपर एक महान् वृक्षके ऊपर जा उतरे । उसी उत्तम पर्वतपर दिन बिताकर हनुमानजीने वहीं सायंकालकी संध्योपासना की । फिर रातमें धीरे - धीरे वे लङ्काकी ओर चले । मार्गमें मिली हुई ' लङ्का ' नामकी नगर - देवताको जीतकर उन्होंने नाना रत्नोंसे सम्पन्न और अनेक प्रकारके आश्चर्योंसे युक्त लङ्कापुरीमें प्रवेश किया ॥७ - १२ १/२॥

तदनन्तर जब सब राक्षस गहरी नींदमें सो गये, तब नीतिज्ञ हनुमानजीने रावणके समृद्धिशाली भवनमें प्रवेश किया । वहाँ रावण एक बहुत बड़े पलंगपर सो रहा था । हनुमानजीने देखा - साँस छोड़नेवाले बीस भयंकर नासिकाछिद्रोंसे युक्त उसके दसों मुखोंमें बड़ी भयानक दाढ़ें थीं । नाना प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित रावण हजारों स्त्रियोंके साथ वहाँ सोया था । किंतु रावणके उस सुन्दर भवनमें सीताजी कहीं नहीं दिखायी दीं । वह राक्षसराज अपने घरके भीतर गाढ़ निद्रामें सो रहा था । सीताजीका दर्शन न होनेसे वायुनन्दन हनुमानजी बहुत दुःखी हुए । फिर सम्पातिके कथनको याद करके वे अशोकवाटिकामें आये, जो विविध प्रकारके पुष्पोंसे सुशोभित और अत्यन्त सुगान्धित मलयज - चन्दनसे व्याप्त थी ॥१३ - १८॥

वाटिकामें प्रवेश करके हनुमानजीने अशोकवृक्षके नीचे बैठी हुई जनकनन्दिनी श्रीरामपत्नी सीताको देखा, जो राक्षसियोंसे सुरक्षित थीं । वह अशोकवृक्ष सुन्दर मृदुल पल्लवोंसे विलसित और पुष्पोंसे सुशोभित था । कपिवर हनुमानजी उस वृक्षपर चढ़ गये और ' ये ही सीता हैं ' - यह सोचते हुए वहीं बैठ गये । सीताजीका दर्शन करके वे पवनकुमार ज्यों ही वृक्षके शिखरपर बैठे, त्यों ही रावण बहुत - सी स्त्रियोंसे घिरा हुआ वहाँ आया । आकर उसने सीतासे कहा - ' प्रिये ! मैं कामपीड़ित हूँ, मुझे स्वीकार करो । वैदेहि ! अब श्रृङ्गार धारण करो और श्रीरामकी ओरसे मन हटा लो ।' इस प्रकार कहते हुए रावणसे भयवश काँपती हुई सीताजी बीचमें तिनकेकी ओट रखकर धीरे - धीरे बोलीं - ' परस्त्रीसेवी दुष्ट रावण ! तू चला जा । मैं शाप देती हूँ - भगवान् श्रीरामके बाण शीघ्र ही रणभूमिमें तुम्हारा रक्त पीये ' ॥१९ - २४॥

सीताजीका यह उत्तर और फटकार पाकर राक्षसराज रावणने राक्षसियोंसे कहा - ' तुम लोग इस मानव - कन्याको दो महीनेके भीतर समझाकर मेरे वशीभूत कर दो । यदि इतने दिनोंतक इसका मन मेरी ओर न झुके तो इस मानुषीको तुम खा डालना ।' यों कहकर दुष्ट रावण अपने महलमें चला गया । तब रावणके डरसे डरी हुई राक्षसियोंने जनकनन्दिनी सीतासे कहा - ' कल्याणि ! रावण बहुत धनी है, इसे स्वीकार कर लो और सुखसे रहो ।' राक्षसियोंके यों कहनेपर सीताने उनसे कहा - ' महापराक्रमी भगवान् श्रीराम युद्धमें रावणको उसके सेवकगणोंसहित मारकर मुझे ले जायँगे । मैं रघुकुलश्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजीके सिवा दूसरेकी भार्या नहीं हो सकती । वे ही आकर रावणको मारकर मेरी रक्षा करेंगे ' ॥२५ - २९॥

सीताकी यह बात सुनकर राक्षसियोंने उन्हें भय दिखाते हुए कहा - ' अरी ! इसे मार डालो, मार डालो; खा जाओ, खा जाओ ।' उन राक्षसियोंमें एकका नाम त्रिजटा था । वह उत्तम विचार रखनेवाली - साध्वी स्त्री थी । उसने उन सभी राक्षसियोंको स्वप्नमें देखी हुई बात बतायी । वह बोली - ' अरी दुष्टा राक्षसियो ! सुनो; मैंने एक शुभ स्वप्न देखा है, जो रावणके लिये विनाशकारी है, समस्त राक्षसोंके साथ रावणको मौतके मुँहमें डालनेवाला है, भ्राता लक्ष्मणके साथ श्रीरामचन्द्रजीकी विजयका सूचक है और सीताको पतिसे मिलानेवाला है ।' त्रिजटाकी बात सुनकर वे सभी राक्षसियाँ सीताके पाससे हटकर दूर चली गयीं । तब अञ्जनीनन्दन हनुमानजीने अपनेको सीताके सामने प्रकट किया और ' श्रीराम - नाम ' का कीर्तन करते हुए उन्होंने श्रीरामचन्द्रजीकी अँगूठी दी । फिर उनसे श्रीराम और लक्ष्मणके शरीरके लक्षण बताये और कहा - ' सुमुखि ! वानरोंके राजा सुग्रीव बहुत बड़ी सेनाके स्वामी हैं । उन्हींके साथ आपके पतिदेव भगवान् श्रीरामचन्द्रजी तथा आपके देवर महावीर लक्ष्मणजी यहाँ पधारेंगे और रावणको सेनासहित मारकर आपको यहाँसें ले जायँगे ' ॥३० - ३७॥

हनुमानजीके यह कहनेपर सीताजीका उनपर विश्वास हो गया । वे बोलीं - ' वीर ! तुम किस तरह महासागरको पार करके यहाँ चले आये ? ' उनका यह वचन सुनकर हनुमानजीने पुनः उनसे कहा - ' वरानने ! मैं इस समुद्रको उसी प्रकार लाँघ गया, जैसे कोई गौके खुरसे बने हुए गङ्गेको लाँघ जाय । जो ' राम - राम ' का जप करता है, उसके लिये समुद्र गौके खुरके चिह्नके समान हो जाता है । शुभानने वैदेहि ! आप दुःखमग्ना दिखायी देती हैं, अब धैर्य धारण कीजिये । मैं आपसे सत्य - सत्य कह रहा हूँ, आप बहुत शीघ्र श्रीरामचन्द्रजीका दर्शन करेंगी ।' इस प्रकार दुःखमें डूबी हुई पतिव्रता जनकनन्दिनी सीताको आश्वासन दे, उनसे पहचानके लिये चूड़ामणि पाकर और श्रीरामके प्रभावसे काकरुपी जयन्तके पराभवकी कथा सुनकर, वहाँसे चल देनेका विचार करके हनुमानजीने सीताको नमस्कर करनेके पश्चात् प्रस्थान किया ॥३८ - ४२॥

तत्पश्चात् कुछ सोचकर पराक्रमी हनुमानजीने रावणके उस सम्पूर्ण क्रीडावन ( अशोकवाटिका ) - को नष्ट - भ्रष्ट कर डाला और वनके द्वारपर स्थित हो, उच्चस्वरसे सिंहनाद करते हुए बोले - ' भगवान् श्रीरामचन्द्रजीकी जय हो !' फिर तो युद्धके लिये सामने आये हुए अनेक राक्षसोंको मारकर सेना और सेनापतियोंका संहार किया । इसके बाद रावणके सेनापति अक्षकुमारको अश्व तथा सारथिसहित यमलोक पहुँचा दिया । इसपर रावणपुत्र इन्द्रजितने वरके प्रभावसे उन्हें बंदी बना लिया । इसके बाद वे रावणके सेनापति अक्षकुमारको अश्व तथा सारथिसहित यमलोक पहुँचा दिया । इसपर रावणपुत्र इन्द्रजितने वरके प्रभावसे उन्हें बंदी बना लिया । इसके बाद वे रावणके सम्मुख उपस्थित किये गये । वहाँसे छूटकर उन्होंने श्रीराम, लक्ष्मण और महाबली सुग्रीवके यशका कीर्तन करते हुए सम्पूर्ण लङ्कापुरीको जलाकर भस्म कर दिया । तदनन्तर दुष्टात्मा रावणको डॉट बताकर पुनः सीताजीके दर्शनका समाचार सुनाकर सबसे सम्मानित हुए ॥४३ - ४७॥

तत्पश्चात् हनुमानजी सभी वानरोंके साथ मधुवनमें आये । उसके रखवालोंको मारकर उन्होंने वहाँ सब साथियोंको मधु - पान कराया और स्वयं भी पीया । इस कार्यमें बाधा देनेवाले दधिमुख नामके वानरको सबने धरतीपर दे मारा । इसके बाद हनुमानजी सब वानरोंके साथ आनन्दित हो, आकाशमें उछलते हुए श्रीराम और लक्ष्मणके निकट जा पहुँचे । वहाँ उन दोनोंके चरणोंमें प्रणाम कर, विशेषतः सुग्रीवको मस्तक झुकाकर उन्होंने समुद्र लाँघनेसे लेकर सारा समाचार आद्योपान्त सुनाया और यह भी कहा कि ' मैंने अशोक - वाटिकाके भीतर सीतादेवीका दर्शन किया । उन्हें राक्षसियाँ घेरे हुए थीं और वे बहुत दुःखी होकर निरन्तर आपका ही स्मरण कर रही थीं । उनके मुखपर आँसुओंकी धारा बह रही थी और वे बड़ी दीन अवस्थामें थीं । रघुनन्दन ! आपकी धर्मपत्नी सुमुखी सीता वहाँ भी शील और सदाचारसे सम्पन्न हैं । मैंने सब जगह ढूँढ़ते हुए पतिव्रता जानकीको अशोकवनमें पाया, उनसे वार्तालाप किया और उन्होंने भी मेरा विश्वास किया । प्रभो ! उन्होंने आपको देनेके लिये अपना श्रेष्ठ मणिमय अलङ्कार भेजा है ' ॥४८ - ५४॥

यह कहकर हनुमानजीने भगवान् श्रीरामको वह उत्तम चूड़ामणि दे दी और कहा - ' प्रभो ! आपकी धर्मपत्नी श्रीसीताजीने यह संदेश भी कहला भेजा है, सुनिये - ' महान् व्रतका पालन करनेवाले महाराज ! चित्रकूट पर्वतपर जब आप मेरी गोदमें [ सिर रखकर ]

सो गये थे, उस समय काकवेषधारी जयत्नका जो आपने मानमर्दन किया था, उसे स्मरण करें । राजेन्द्र ! प्रभो ! उस कौएके थोड़ेसे ही अपराधपर उसे दण्ड देनेके लिये आपने जो अद्भुत कर्म किया था ,उसे देवता और असुर भी नहीं कर सकते । उस समय तो आपने ब्रह्मास्त्रका प्रयोग किया था ? क्या इस समय इस रावणको पराजित नहीं करेंगे ?' इस प्रकार बहुत - सी बातें कहकर सीताजी रोने लगी थीं । यह है दुःखिनी सीताका वृत्तान्त ! आप उन्हें उस दुःखसे मुक्त करनेका प्रयत्न कीजिये ।' पवनकुमार हनुमानजीके इस प्रकार कहनेपर सीताजीका वह संदेश सुन और उनके उस सुन्दर आभूषणको देख, भगवान् श्रीराम उन कपिवर हनुमानजीको गलेसे लगाकर रोने लगे और धीरे - धीरे वहाँसे प्रस्थित हुए ॥५५ - ५९॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ' श्रीरामावतारकी कथाविषयक ' इक्यावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥५१॥

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Last Updated : October 02, 2009

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