राजा बोले - हो ! आपने श्रीविष्णुकी आराधनासे होनेवाले बहुत बड़े फलका वर्णन किया । मुनिश्रेष्ठ ! जो भगवान् विष्णुकी पूजा नहीं करते, वे अवश्य ही [ मोहनिद्रामें ] सोये हुए हैं । मैंने आपकी कृपासे भगवान् नृसिंहके पूजनका यह क्रम सुना; अब मैं भक्तिपूर्वक उनकी पूजा करुँगा । आप कृपा करके ( लक्षहोम तथा ) कोटिहोमका फल बताइये ॥१ - २॥
मार्कण्डेयजी बोले - नृप ! पूर्वकालमें इसी विषयको बृहस्पतिजीने शौनक ऋषिसे पूछा था, इसके उत्तरमें उनसे शौनकजीने जो कुछ बताया, वही मैं तुमसे कह रहा हूँ । सुखपूर्वक बैठे हुए शौनकजीसे बृहस्पतिजीने इस प्रकार प्रश्न किया ॥३१/२॥
बृहस्पतिजी बोले - विप्रेन्द्र ! लक्षहोम और कोटिहोमके लिये जो भूमि प्रशस्त हो, उसको मुझे बताइये उओर होमकर्मकी विधिका भी वर्णन कीजिये ॥४१/२॥
मार्कण्डेयजी बोले - नृपवर ! बृहस्पतिजीके इस प्रकार कहनेपर शौनकजीने लक्षहोम आदिकी विधिका यथावत् वर्णन आरम्भ किया ॥५१/२॥
शौनकजी बोले - देवपुरोहित ! मैं लक्षहोमके उपयुक्त विस्तृत भूमि और उसकी शुद्धिका विशेषरुपसे यथावत् वर्णन करुँगा, आप सुनें । यज्ञकर्मके लिये प्रशस्त भूमिका उत्तम लक्षण ( संस्कार ) इस प्रकार हैं ॥६ - ७॥
जो भूमि अच्छी तरह संस्कार की हुई हो, बराबर हो और चिकनी हो [ ये सब बातें हों तो परम उत्तम भूमि है; सभी बातें न संघटित हों तो ] पूर्व - पूर्वकी भूमि उत्तम है । [ अर्थात् चिकनीकी अपेक्षा बराबर भूमि अच्छी है और उससे भी सुसंस्कृत भूमि उत्तम है । ] ऐसी उत्तम भूमिको ऊरु ( कमर ) - पर्यन्त खोदकर उसका विशेषरुपसे [ गङ्गजल एवं पञ्चगव्यादि छिड़ककर ] शोधन करे कुण्डके बाहर स्वच्छताके लिये मिट्टी [ तथा गोबर ] डालकर लिपाये । कुण्ड सब ओरसे एक हाथ लम्बा और उतना ही चौड़ा होना चाहिये - यही कुण्डका लक्षण है । एक हाथका सूत लेकर उसीसे माप करके चारों ओरसे बराबर और चौकोरा कुण्ड बनाना चाहिये । कुण्डके ऊपर सब ओरसे बराबर और खूब विस्तृत मेखला बनवाये । उसकी ऊँचाई भी चार अंगुलकी ही हो और वह सूतसे परिवेष्टित हो ॥८ - १०१/२॥
इसके बाद यजमानको चाहिये कि वह ब्राह्मणोचित कर्मका पालन करनेवाले वेदवेत्ता ब्राह्मणोंको शास्त्रोक्त रीतिसे आमन्त्रित करे । यजमान और उन ब्राह्मणोंको तीन रात्रितक विशेषरुपसे ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करना चाहिये ॥११ - १२॥
यजमान एक दिन और एक रात्रि उपवास करके दस हजार गायत्रीका जप करे । [ हवन आरम्भ होनेके दिन ] विप्रगण भी स्त्रान करके शुद्धं एवं श्वेत वस्त्र धारण करें । फिर गन्ध, पुष्प और माला धारण करके पवित्र, संतुष्ट और जितेन्द्रिय होकर, भोजन किये बिना ही कुशके बने हुए आसनपर एकाग्रचित्तसे बैठें । तदनन्तर वे यत्नपूर्वक निरालस्यभावसे हवन आरम्भ करें । पहले गृह्यसूत्रोक्त विधिसे भूमिपर [ कुशोंसे ] रेखा करके उसे सींचे और वहाँ यत्नसे अग्नि - स्थान करे । फिर उस अग्निमें हवनीय पदार्थोंका होम करे । सर्वप्रथम आघार और आज्यभाग ये दो होम करने चाहिये । विद्वान् पुरुष जौ, चावल और तिल [ एवं घृत आदिसे ] मिश्रित प्रथम आहुतिका गायत्रीमन्त्रद्वारा [ अन्तमें ] स्वाहाके उच्चारणपूर्वक एकाग्रचित्तसे हवन करे । गायत्री छन्दोंकी माता और ब्रह्म ( वेद ) - की योनिरुपसे प्रतिष्ठित है । उसके देवता सविता हैं और ऋषि विश्वामित्रजी हैं । ( इस प्रकार गायत्रीका विनियोग बताया गया । ) ॥१३ - १८॥
केवल गायत्रीसे हवन कर लेनेके पश्चात् [ ' भूर्भुवः स्वः '- इन ] तीन व्याहतियोंसहित गायत्री - मन्त्रसे केवल तिलका हवन करे । जबतक हवनकी संख्या एक लाख या एक करोड़ न हो जाय, तबतक भगवान् विष्णुके पूजनपूर्वक तिलद्वारा हवन करते रहना चाहिये और जबतक हवन करे, तबतक यजमानको चाहिये कि वह यत्नपूर्वक दीनों और अनाथोंको भोजन दे । हवन समाप्त होनेपर ऋत्विजोंको श्रद्धापूर्वक लोभ त्यागकर यथोचित दक्षिणा दे । तत्पश्चात् [ प्रथम स्थापित किये हुए ] शान्तिकलशके जलसे उस ग्राममें रहनेवाले सभी मनुष्योंविशेषतः रोगियोंको अभिषेक करे । महाभाग ! इस प्रकार विधिवत् होमका अनुष्ठान करनेपर पुर ( गाँव ), नगर, जनपद ( प्रान्त ) और समस्त राष्ट्रकी सारी बाधाको दूर करनेवाली शान्ति निरन्तर बनी रहती है ॥१९ - २३॥
मार्कण्डेयजी बोले - नृपनन्दन ! इस प्रकार शौनक मुनिका बताया हुआ लक्षहोम - विधिका अनुष्ठान जो समस्त राष्ट्रमें शुभ शान्ति प्रदान करनेवाला हैं, मैंने तुम्हें बताया । यदि ब्राह्मणोंद्वारा यह पूर्वोक्त होम - विधि ग्राममें, घरमें अथवा पुरके बाहर प्रयत्नपूर्वक करायी जाय तो वहाँ भी मनुष्योंको, गौओंको और अनुचरोंसहित राजाको पूर्णतया शान्ति प्राप्त हो सकती हैं ॥२४ - २५॥
इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ' लक्षहोमविधिका वर्णन ' नामक पैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥३५॥