श्रीसूतजी बोले - द्विजश्रेष्ठ ! अब मैं मारुतोंको उत्पत्तिका वर्णन करुँगा । पूर्वकालमें देवासुर - संग्राममें इन्द्र आदि देवताओंद्वारा दितिके पुत्र दैत्यगण पराजित हो गये थे । उस समय दिति, जिसके पुत्र नष्ट हो गये थे, महेन्द्रके अभिमानको चूर्ण करनेवाले पुत्रकी इच्छा मनमें लेकर अपने पति कश्यप ऋषिकी आराधना करने लगी । तपस्यासे संतुष्ट होकर ऋषिने दितिके भीतर गर्भका आधान किया । फिर वे उससे इस प्रकार बोले - ' यदि तुम पवित्र रहती हुई सौ वर्षोंतक इस गर्भको धारण कर सकोगी तो उसके बाद इन्द्रका दर्प चूर्ण करनेवाला पुत्र तुम्हारे गर्भसे उत्पन्न होगा ।' कश्यपजीके यों कहनेपर दितिने उस गर्भको धारण किया ॥१ - ४॥
इन्द्रको भी जब यह समाचार ज्ञात हुआ, तब वे बूढ़े ब्राह्मणके वेषमें दितिके पास आये और रहने लगे । जब सौ वर्ष पूर्ण होनेमें कुछ ही कमी रह गयी, तब एक दिन दिति ( भोजनके पश्चात ) पैर धोये बिना ही शय्यापर आरुढ़ हो, सो गयी । इधर इन्द्रने भी अवसर प्राप्त हो जानेसे वज्र हाथमें ले, दितिके उदरमें प्रविष्ट हो, वज्रसे उस गर्भके सात टुकड़े कर दिये । उनके द्वारा काटे जानेपर वह गर्भ रोने लगा । तब इन्द्रने ' मा रोदीः ' ( मत रोओ ) - यों कहते हुए पुनः एक - एकके सात - सात टुकड़े कर डाले । इस तरह सात - सात टुकड़ोमें बँटे हुए वे सातों खण्ड ' मारुत ' नामसे विख्यात हुए; क्योंकि जन्म होते ही इन्द्रने उन्हें ' मा रोदीः ' - इस प्रकार कहा था । ये सभी इन्द्रके सहायक ' मरुत् ' नामक देवता हुए ॥५ - ८॥
मुने ! इस प्रकार मैंने तुमसे देवता, असुर, नर, नाग, राक्षस और आकाश आदि भूतोंकी सृष्टिका वर्णन किया । जो इसका भक्तिपूर्वक पाठ अथवा श्रवण करता है, वह विष्णुलोकको प्राप्त होता है ॥९॥
इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ' मरुतोंकी उत्पत्ति ' नामक बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥२०॥