भरद्वाजजीने पूछा - सूतजी ! ध्रुव कौन हैं ? किसके पुत्र हैं ? तथा वे सूर्यके आधार कैसे हुए ? ये सब बातें भलीभाँति सोच - विचारकर बताइये । हमारी यह कामना है कि आप हमें कथा सुनाते हुए सैकड़ों वर्षोतक जीवित रहें ॥१॥
सूतजी बोले - विप्रवर ! स्वायम्भुव मनुके एक पुत्र थे राजा उत्तानपाद । उन भूपालके दो पुत्र हुए । एक तो सुरुचिके गर्भसे उत्पन्न हुआ था, जिसका नाम उत्तम था । वह ज्येष्ठ था और दूसरा पुत्र ' ध्रुव ' था, जो सुनीतिके गर्भसे उत्पन्न हुआ था । एक दिन जब राजा राजसभामें बैठे हुए थे, सुनीतिने अपने पुत्र ध्रुवको वस्त्राभूषणसे विभूषित करके राजाकी सेवाके लिये भेजा । विनयशील ध्रुवने धायके पुत्रोंके साथ राजसभामें जाकर राजा उत्तानपादको प्रणाम किया । वहाँ उत्तमको पिताकी गोदमें बैठा देख ध्रुव सिंहासनपर आसीन राजाके पास जा पहुँचा और बालोचित चपलताके कारण राजाकी गोदमें चढ़नेकी इच्छा करने लगा । यह देख सुरुचिने ध्रुवसे कहा ॥२ - ६॥
सुरुचि बोली - अभागिनीके बच्चे ! क्या तू भी महाराजकी गोदमें चढ़ना चाहता है ? बालक ! मूर्खतावश ही ऐसी चेष्टा कर रहा है । तू इसके योग्य कदापि नहीं है; क्योंकि तू एक भाग्यहीना स्त्रीके गर्भसे पैदा हुआ है । बता तो सही, तूने इस सिंहासनपर बैठनेके लिये कौनसा पुण्यकर्म किया है ? यदि पुण्य ही किया होता तो क्या अभागिनीके गर्भसे जन्म लेता ? राजकुमार होनेपर भी तू मेरे उदरकी शोभा नहीं बढ़ा सका है । इसी बातसे जान ले कि तेरा पुण्य बहुत कम है । उत्तम कोखसे पैदा हुआ है - कुमार ' उत्तम ' जो सर्वश्रेष्ठ है; देखो, वह कितने सम्मानके साथ पृथ्वीनाथ महाराजके दोनों घुटनोंपर बैठा है ॥७ - १०१/२॥
सूतजी कहते हैं - राजसभाके बीच सुरुचिके द्वारा इस प्रकार झिड़के जानेपर बालक ध्रुवकी आँखोंसे अश्रुबिन्दु झरने लगे; किंतु वह धैर्यपूर्वक कुछ भी न बोला । इधर राजा भी रानीके सौभाग्य - गौरवसे आबद्ध हो, उसका कार्य उचित था या अनुचित, कुछ भी न कह सके । जब सभासदगण बिदा हुए, तब अपनी शैशवोचित चेष्टाओंसे शोकको दबाकर वह बालक राजाको प्रणाम करके अपने घरको गया ॥११ - १३१/२॥
सुनीतिने अपने नीतिके खजाने बालकको देखकर उसके मुखकी कान्तिसे ही जान लिया कि ध्रुवका राजाके द्वारा अपमान किया गया है । माता सुनीतिको अन्तः पुरके एकान्त स्थानमें देखकर ध्रुव अपने दुःखके आवेगको न रोक सका । वह माताके गलेसे लगकर लम्बी साँस खींचता हुआ फूट - फूटकर रोने लगा । सुनीतिने उसे सान्त्वना देकर कोमल हाथसे उसका मुख पोंछा और साड़ीके अञ्चलसे हवा करती हुई माता अपने लालसे पूछने लगी - ' बेटा ! अपने रोनेका कारण बताओ । राजाके रहते हुए किसने तुम्हारा अपमान किया है ? ॥१४ - १७१/२॥
ध्रुव बोला - माँ ! मैं तुमसे एक बात पूछता हूँ, मेरे आगे तुम ठीक - ठीक बताओ । जैसे सुरुचि राजाकी धर्मपत्नी है, वैसे ही तुम भी हो; फिर उन्हें सुरुचि ही क्यों प्यारी है ? माता, तुम उन नरेशको क्यों प्रिय नहीं हो ? सुरुचिका पुत्र उत्तम क्यों श्रेष्ठ है ? राजकुमार होनेमें तो हम दोनों एक समान हैं । फिर क्या कारण है कि मैं उत्तम नहीं हूँ ? तुम क्यों मन्दभागिनी हो और सुरुचि क्यों उत्तम कोखवाली है ? राजसिंहासन क्यों उत्तमके ही योग्य है ? मेरे योग्य क्यों नहीं है ? मेरा पुण्य तुच्छ और उत्तमका पुण्य उत्तम कैसे है ? ॥१८ - २११/२॥
सुनीति अपने पुत्रके इस नीतियुक्त वचनको सुनकर धीरेसे थोड़ी लम्बी साँस खींच बालकका दुःख शान्त करनेके लिये स्वभावतः मधुर वाणीमें बोलने लगी ॥२२ - २३॥
सुनीति बोली - तात ! तुम बड़े बुद्धिमान् हो । तुमने जो कुछ पूछा है, वह सब शुद्ध हदयसे मैं निवेदन करती हूँ; तुम अपमानकी बात मनमें न लाओ । सुरुचिने जो कुछ कहा है, वह सब ठीक ही है, अन्यथा नहीं है । यदि वह पटरानी है तो सभी रानियोंसे बढ़कर राजाकी प्यारी है ही । राजकुमार उत्तमने बहुत बड़े पुण्योंका संग्रह करके उस पुण्यवती रानीके उत्तम गर्भमें निवास किया था, अतः वही राजसिंहासनपर बैठनेके योग्य है । चन्द्रमाके समान निर्मल श्वेत छत्र, सुन्दर युगल चँवर, उच्च सिंहासन, मदमत्त गजराज, शीघ्रगामी तुरग, आधिव्याधियोंसे रहित जीवन, शत्रुरहित सुन्दर राज्य - ये वस्तुएँ भगवान् विष्णुकी कृपासे प्राप्त होती हैं ॥२४ - २८॥
सूतजी बोले - माता सुनीतिके इस उत्तम वचनको सुनकर सुनीतिकुमार ध्रुवने उन्हें उत्तर देनेके लिये बोलना आरम्भ किया ॥२९॥
ध्रुव बोला - जन्मदायिनी माता सुनीते ! आज मेरे शान्तिपूर्वक कहे हुए वचन सुनो । शुभे ! आजतक मैं यही समझता था कि पिता उत्तानपादसे बढ़कर और कुछ नहीं है । परंतु अम्ब ! यदि अपने आश्रितजनोंकी कामना पूर्ण करनेवाला कोई और भी है तो यह जानकर आज मैं कृतार्थ हो गया । माँ ! तुम ऐसा समझो कि उन सर्वाराध्य जगदीश्वरको आराधना करके जो - जो स्थान दूसरोंके लिये दुर्लभ है, वह सब मैंने आज ही प्राप्त कर लिया । माता ! तुम्हें मेरी एक ही सहायता करनी चाहिये । केवल आज्ञा दे दो, जिससे मैं भगवान् विष्णुकी आराधना करुँ ॥३० - ३२१/२॥
सुनीति बोली - बेटा ! उत्तानपादनन्दन ! मैं तुम्हें आज्ञा नहीं दे सकती । मेरे बच्चे ! इस समय तुम्हारी सात - आठ वर्षकी अवस्था है । अभी तो तुम खेलने - कूदनेके योग्य हो । तात ! एकमात्र तुम्हीं मेरी संतान हो; मेरा जीवन एक तुम्हारे ही आधारपर टिका हुआ है । कितने ही कष्ट उठाकर, अनेक इष्ट देवी - देवताओंकी प्रार्थना करके मैंने तुम्हें पाया है । तात ! तुम जब - तब मेरे प्राण तुम्हारे पीछे - ही - पीछे लगे रहते हैं ॥३३ - ३५॥
ध्रुव बोला - माँ ! अबतक तो तुम और राजा उत्तानापाद ही मेरे माता - पिता थे; परंतु आजसे मेरे माता और पिता दोनों भगवान् विष्णु ही हैं, इसमें संदेह नहीं है ॥३६॥
सुनीति बोली - मेरे सुयोग्य पुत्न ! मैं भगवान् विष्णुकी आराधना करनेसे तुम्हें रोकती नहीं । यदि रोकूँ तो मेरी जिह्वाके सैकड़ों टुकड़े हो जायँ ॥३७॥
इस प्रकार आज्ञा - सी पाकर ध्रुव माताके चरणकमलोंकी परिक्रमा और उन्हें प्रणाम करके तपस्याके लिये प्रस्थित हुआ । सुनीतिने धैर्यपूर्वक सूत्रमें नील कमलकी माला गूँथकर पुत्रको उपहार दिया । मार्गमें पुत्रकी रक्षाके लिये माताने अपने शत - शत आशीर्वाद, जिनका प्रभाव शत्रु भी नहीं रोक सकते थे, उसके पीछे लगा दिये ॥३८ - ४०॥
[ वह बोली - ] ' पुत्र ! शङ्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाले दयासागर जगद्व्यापी भगवान् नारायण सर्वत्र तुम्हारी रक्षा करें ' ॥४१॥
सूतजी बोले - बालोचित पराक्रम करनेवाले बालक ध्रुवने अपने महलसे निकलकर अनुकूल वायुके द्वारा दिखायी हुई राह पकड़कर उपवनमें प्रवेश किया । माताको ही देवता माननेवाला और केवल राजमार्गको ही जाननेवाला वह राजकुमार वनके मार्गको नहीं जानता था, अतः एक क्षणतक आँखे बंद करके कुछ सोचने लगा ॥४२ - ४३॥
नगरके उपवनमें आकर बालक ध्रुव इस प्रकार चिन्ता करने लगा - ' क्या करुँ ? कहाँ जाऊँ ? कौन मुझे सहायता देनेवाला होगा ? ' ऐसा विचार करते हुए उसने ज्यों ही आँखें खोलकर देखा, त्यों ही उस उपवनमें अप्रत्याशित गतिवाले सप्तर्षि उसे दिखायी दिये । उन सूर्यतुल्य तेजस्वी सप्तर्षियोको, जो मानो भाग्यसूत्रसे ही खिंचकर ले आये गये थे, देखकर ध्रुव बहुत प्रसन्न हुआ । उनके सुन्दर ललाटमें तिलक लगे थे । उन्होंने अँगुलियोंमें कुशकी पवित्री पहन रखी थी तथा यज्ञोपवीतोंसे विभूषित होकर वे काले मृगचर्मपर बैठे हुए थे । उनके पास जाकर ध्रुवने गर्दन झुका दी, दोनों हाथ जोड़ लिये और प्रणाम करके मधुर वाणीमें उन्हें अपना अभिप्राय निवेदित किया ॥४४ - ४८॥
ध्रुव बोला - मुनिवरो ! आप मुझे सुनीतिके गर्भसे उत्पन्न राजा उत्तानपादका पुत्र ध्रुव जानें । इस समय मेरा चित्त जगतकी ओरसे विरक्त है ॥४९॥
सूतजी कहते हैं - अमूल्य नीति ही जिसका भूषण है - ऐसे मधुर और गम्भीर भाषण करनेवाले एवं स्वभावतः मनोहर आकृतिवाले उस तेजस्वी बालकको देखकर ऋषियोंने अत्यन्त विस्मित्त हो उसे अपने पास बिठाया और कहा - ' वत्स ! अभीतक तुम्हारे वैराग्य या निवेदका कारण हम नहीं जान सके । वैराग्य तो उन मनुष्योंको होता है, जिनकी मनः कामनाएँ पूर्ण नहीं हो पातीं । तुम तो सातों द्वीपोंके अधीश्वर सम्राटके पुत्र हो; तुम अपूर्णमनोरथ कैसे हो सकते हो ? हमसे तुम्हें क्या काम है ? तुम्हारी मनोवाञ्छा क्या है ' ॥५० - ५२१/२॥
ध्रुव बोला - ' मुनिगण ! मेरे जो उत्तमोत्तम बन्धु उत्तमकुमार हैं - उनके ही लिये पिताका दिया हुआ शुभ सिंहासन रहे । उत्तम व्रतका पालन करनेवाले मुनीश्वरो ! मैं आपलोगोंसे इतनी ही सहायता चाहता हूँ कि जिस स्थानका किसी दूसरे राजाने उपभोग न किया हो, जो अन्य सभी स्थानोंसे उत्कृष्ट हो और इन्द्रादि देवताओंके लिये भी दुर्लभ हो, वह स्थान मुझे किस उपायसे प्राप्त हो सकता है, यह बता दें ।' उस समय उस बालककी ये बातें सुनकर मरीचि आदि ऋषियोंने उसे यथार्थ ही उत्तर दिया ॥५३ - ५६॥
मरीचि बोले - जिसने गोविन्द - चरणारविन्दोंके परागके रसका आस्वादन नहीं किया, वह मनोरथ - पथसे अतीत ( ध्यानमें भी न आ सकनेवाले ) परमोज्ज्वल फलको नहीं प्राप्त कर सकता ॥५७॥
अत्रि बोले - जिसने अच्युतके चरणोंकी अर्चना नहीं की है, वह पुरुष उस पदको, जो इन्द्रादि देवताओंके लिये भी दुर्लभ और मनुष्योंके लिये तो अत्यन्त दुष्प्राय है, कैसे पा सकता है ? ॥५८॥
अङ्गिरा बोले - जो भगवान् कमलाकान्तके कमनीय चरणकमलोंका अनुशीलन ( चिन्तन ) करता है, उसके लिये त्रिभुवनकी सारी सम्पदाओंका स्थान दूर ( दुर्लभ ) नहीं हैं ॥५९॥
पुलस्त्य बोले - ध्रुव ! जिनके स्मरणमात्रसे महापातकोंकी परम्परा अत्यन्त नाशको प्राप्त हो जाती है, वे भगवान् विष्णु ही सब कुछ देनेवाले हैं ॥६०॥
पुलह बोले - जिन्हें प्रधान ( प्रकृति ) और पुरुष ( जीव ) - से विलक्षण परमब्रह्म कहते हैं, जिनकी मायास्से समस्त प्रपञ्च रचा गया है, उन भगवान् विष्णुका यदि कीर्तन किया जाय तो वे अपने भक्तके अभीष्ट मनोरथको पूर्ण कर देते हैं ॥६१॥
क्रतु बोले - जो यज्ञपुरुष भगवान् विष्णु वेदोंके द्वारा जाननेयोग्य हैं तथा जो जनार्दन इस समस्त जगतके अन्तरात्मा हैं, वे प्रसन्न हों तो क्या नहीं दे सकते ? ॥६२॥
वसिष्ठ बोले - राजकुमार ! जिनकी भौंहोंके नर्तनमात्रमें आठों सिद्धियाँ वर्तमान है, उन भगवान् हषीकेशकी आराधना करनेसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष - ये चारों पुरुषार्थ दूर नहीं रहते ॥६३॥
ध्रुव बोले - द्विजवरो ! भगवान् विष्णुकी आराधनाके सम्बन्धमें आपलोगोंने जो विचार प्रकट किया, वह सत्य है । अब मुझे यह बताइये कि उन भगवानकी पूजा कैसे करनी चाहिये ? उसकी विधिका मुझे उपदेश कीजिये । जो बहुत कुछ दे सकते हैं, उनकी आराधना भी कठिन ही होगी । मैं राजकुमार हूँ और बालक हूँ; मुझसे विशेष कष्ट नहीं सहा जा सकता ॥६४ - ६५॥
मुनिगण बोले - खड़े होते - चलते, सोते - जागते, लेटते और बैठते हुए प्रतिक्षण भगवान् नारायणका स्मरण करना चाहिये । भगवान् वासुदेवके नामका जप करनेवाला मनुष्य पुत्र, स्त्री, मित्र, राज्य, स्वर्ग तथा मोक्ष - सब कुछ पा लेता है - इसमें संशय नहीं है । वासुदेवस्वरुप द्वादशाक्षर मन्त्र ( ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ) - के द्वारा चार भुजाधारी भगवान् विष्णुका ध्यान और जप करके किसने सिद्धि नहीं प्राप्त कर ली ? राजकुमार ! पितामह ( ब्रह्माजी ) - ने भी इस महामन्त्रकी उपासना की थी । विष्णुभक्त मनुने भी राज्यकी कामनासे इस मन्त्रद्वारा भगवानकी आराधना की थी । सत्पुरुषशिरोमणे ! तुम भी इस मन्त्रद्वारा भगवान् वासुदेवकी आराधनामें लग जाओ । इससे बहुत शीघ्र ही अपनी मनोवाञ्छित समृद्धि प्राप्त कर लोगे ॥६६ - ७०॥
सूतजी कहते हैं - यों कहकर वे सभी महात्मा मुनीश्वर वहीं अन्तर्हित हो गये और ध्रुव भी भगवान् वासुदेवमें मन लगाकर तपस्याके लिये चला गया । द्वादशाक्षर मन्त्र सम्पूर्ण मनोरथोंको देनेवाला है । ध्रुव मधुवनमें यमुनाके तटपर मुनियोंकी बतायी हुई पद्धतिसे उस मन्त्रका जप करने लगा । श्रद्धापूर्वक उस मन्त्रका जप करते हुए राजकुमार ध्रुवने तपके प्रभावसे तत्काल ही हदयमें भगवान् कमलनयनको प्रकट प्रत्यक्षवत् देखा । उनकी मन्त्रका जप करने लगा । उस समय भूख, प्यास, वर्षा, आँधी और अधिक गर्मी आदि दैहिक दुःखोंमेंसे कोई भी उसे नहीं व्यापा । उस राजकुमारका मन अनुपम आनन्द - महासागरमें गोता लगा रहा था । अतः उस समय उसे अपने शरीरकी भी सुध नहीं रह गयी थी । कहते हैं, उसकी तपस्यासे शङ्कित हुए देवताओंने कितने ही विघ्न खड़े किये; परंतु उस तीव्र तपस्वी बालकके लिये वे सभी निष्फल, ही सिद्ध हुए । शीत और धूप आदिकी ही तरह ये एकदेशीय विघ्न भी उस विष्णुस्वरुप मुनिको व्यथित नहीं कर पाते थे ॥७१ - ७५॥
कुछ समयके बाद भक्तजनोंके प्रियतम वरदाता भगवान् विष्णु बालक ध्रुवके ध्यान - बलसे संतुष्ट होकर पक्षिराज गरुडपर सवार हो, अपने उस भक्तको देखनेके लिये आये । मणिसमूहद्वारा निर्मित मुकुटसे मण्डित और शोभाशाली कौस्तुभरत्नसे समलंकृत, महामेघके समान श्यामकान्तिवाले वे भगवान् श्रीहरि ऐसी शोभा पा रहे थे, मानो उदयाचलके प्रति डाह रखनेके कारण अपने श्रृङ्गपर बालरविको धारण किये साक्षात् कज्जलगिरि प्रकाशित हो रहा हो । निश्चल और स्नेहपूर्ण दृष्टिवाले वे भगवान् अपने दाँतोंकी किरणरुप जलके अमित प्रवाहद्वारा तपस्यामें लगे हुए राजकुमार ध्रुवके शरीरकी धूलिको धोते हुए - से उससे इस प्रकार बोले ॥७६ - ७८॥
' वत्स ! मैं तुम्हारी तपस्या, ध्यान, इन्द्रिय - निग्रह और दुस्साध्य मनः संयमसे तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ । अतः तुम्हारे मनमें जो अभीष्ट हो, वह उत्तम वर मुझझे माँग लो ' ॥७९॥
भगवानकी वह सम्पूर्ण गम्भीर वाणी सुनते ही ध्रुवने सहसा आँखें खोल दीं । उस समय उन्हीं चतुर्भुज ब्रह्मको, जिनका वह अपने हदयमें चिन्तन कर रहा था, उसने सामने मूर्तिमान् होकर खड़ा देखा ॥८०॥
उन परम पूजनीय त्रिभुवनपतिको सहसा सामने देख वह राजकुमार सकपका गया और ' मैं यहाँ इनसे क्या कहूँ ? क्या करुँ ?' इत्यादि बातें सोचता हुआ क्षणभर न तो कुछ बोला और न कुछ कर ही सका । उसके नेत्रोंमें आनन्दके आँसू भरे थे, शरीरके रोएँ खड़े हो गये थे । वह भगवानके सामने उच्चस्वरसे ' हे त्रिभुवननाथ !' यों कहता हुआ दण्डवत् - प्रणाम करनेके लिये पृथ्वीपर पड़ गया । उस समय उसकी भौंहे काँप रही थीं । दण्डकी भाँति प्रणाम करके जगदगुरु भगवानकी ओर एकटक दृष्टि लगाये वह आनन्दतिरेकसे चारों ओर लोट - पोट होकर देरतक रोता रहा । नारद, सनन्दन, सनक और सनत्कुमार आदि तथा अन्य योगी जिन योगीश्वरका श्रवण - कीर्तन एवं स्तवन किया करते हैं और जिनके नेत्र करुणाके आँसुओंसे भीगे हुए थे, उन्हीं कमललोचन भगवानको आज ध्रुवने प्रत्यक्ष देखा । उस समय चक्रधर भगवानने आज ध्रुवने प्रत्यक्ष देखा । उस समय चक धर भगवानने अपने ध्रुवने प्रत्यक्ष देखा । उस समय चक्रधर भगवानने अपसे हाथसे पकड़कर ध्रुवको उठा लिया । इतना ही नहीं, उन्होंने अपने दोनों कोमल हाथोंसे उसके धूलिधूसरित शरीरको सब ओरसे पोंछा और उसे हदयसे लगाकर कहा ॥८१ - ८६॥
' बच्चा ! तुम्हारे मनमें जो भी इच्छा है, उसके अनुसार वर माँग लो । मैं निस्संदेह वह सब तुम्हें दे दूँगा । तुम्हारे लिये कोई भी वस्तु अदेय नहीं हैं ' ॥८७॥
तब राजकुमारने भगवान् विष्णुसे यही वर माँगा कि ' मुझे आपकी स्तुति करनेकी शक्ति प्राप्त हो ।' यह सुनकर भगवानने मूर्तिमान् विज्ञानके समान निर्मल शङ्खसे ध्रुवके मुखको छुआ दिया । मरीचि आदि देवर्षियोंके दिये हुए ज्ञानरुपी चन्द्रमाकी किरणोंसे क्षालित होकर ध्रुवका चित्त पूर्णतया निर्मल हो गया था । फिर त्रिभुवनगुरु भगवानके शङ्ख - स्पर्शसे उसके अन्तः करणमें ज्ञानरुपी सूर्यका उदय हो जानेपर उसमें पूर्ण प्रकाश हो गया । इससे वह आनन्दित होकर भगवानकी सुन्दर स्तुति करने लगा ॥८८ - ८९॥
ध्रुव बोला - समस्त मुनिगण जिनके चरणकमलोंकी वन्दना करते हैं, जो खर राक्षस अथवा गर्दभरुपधारी धेनुकासुरका संहार करनेवाले हैं, जिनकी बाललीलाएँ चपलतासे पूर्ण हैं, देवगण जिनके चरणोदक ( गङ्गाजी ) - की आराधना करते हैं, सजल मेघके समान जिनका श्याम वर्ण है, सौभ विमानके अधिपति शाल्वके धाम ( तेज ) - को जिन्होंने सदाके लिये शान्त कर दिया है, जिन्होंने सुन्दर गोपवनिताओंके अत्यन्त विनयवश नूतन प्रेमरसमय रासलीलाको प्रकट किया और उससे मोहित होनेवाली देववनिताओंके अन्तः करणमें भी आनन्दका संचार किया, जिनका आदि और अन्त नहीं है, जिन्होंने अपने निर्धन मित्र सुदामा नामक ब्राह्मणका धीरतापूर्वक दैन्यदुःखसे उद्धार किया, देवराज इन्द्रकी प्रार्थनासे जिन्होंसे उनके शत्रुपक्षको पराजित किया, ऋक्षराज जाम्बवानकी गुहामें प्रवेश करके खोयी हुई स्यमन्तक मणिको लाकर जिन्होंने अपने ऊपर लगे हुए कलङ्करुप दुरितको दूर करके त्रिभुवनका भार हल्का किया है, जो द्वारकापुरीमें नित्य निवास करते हैं, जो अपनी मधुर मु ली बजाकर श्रुतिमधुर अतीन्द्रिय - ज्ञानको प्रकट करते तथा यमुनातटपर विचरते हैं, जिनके वंशीनादको सुननेके लिये पक्षी, गौ और भृङ्गण अपना - अपना आहार त्याग देते हैं, जिनके चरणकमल दुस्तर संसार - सागरसे पार करनेके लिये जहाजरुप हैं, जिन्होंने अपनी प्रतापाग्रिमें कालयवनको होम दिया है, जो वनमालाधारी हैं, जिनके श्रवण सुन्दर मणिमय कुण्डलोंसे अलंकृत हैं, जिनके अनेक प्रसिद्ध नाम हैं, जो वेदवाणी तथा देवता और मुनियोंके भी मन - वाणीके अगोचर हैं, जो भगवान् सुवर्णके समान पीत रेशमी वस्त्र धारण करते हैं, जिनका वक्षः स्थल भृगुजीके चरण - चिह्न तथा कौस्तुभमणिसे अलंकृत है, जो अपने प्रिय भक्त अक्रूर, माता देवकी और गोकुलके पालक हैं तथा जो अपनी चारों भुजाओंमें शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म धारण किये नूतन तुलसीदलकी माला, मुक्ताहार, केयूर, कड़ा और मुकुट आदिसे विभूषित हैं, सुनन्दन आदि भगवद्भक्त जिन विश्वरुप हरिकी उपासना करते हैं, जो पुराण - पुरुषोत्तम हैं, पुण्ययशवाले हैं तथा समस्त लोकोंके आवास - स्थान वासुदेव हैं, जो देवकीके उदरसे प्रकट हुए हैं, भूतनाथ शिव तथा तथा ब्रह्मजीने जिनके चरणारविन्दोंपर मस्तक झुकाया है, जो वृन्दावनमें की गयी लीलासे थकी हुई गोपियोंके श्रमको दूर करनेवाले हैं, सज्रनोंके मनोरथोंको जो सर्वदा पूर्ण किया करते हैं, ऐसी महिमावाले हे सर्वेश्वर ! जो कुन्दके समान उज्ज्वल शङ्ख धारण करते हैं, जिसका चन्द्रमाके समान सुन्दर मुख हैं, सुन्दर नेत्र हैं तथा अत्यन्त मनोहर मुसकान है, ऐसे अत्यन्त हदयहारी आपके इस रुपको, जो ज्ञानियोंद्वारा वन्दित है, मैं प्रणाम करता हूँ ।
मैं उत्तम स्थान प्राप्त करनेकी इच्छासे तपस्यामें प्रवृत्त हुआ और बड़े - बड़े मुनीश्वरोंके लिये भी जिनका दर्शन पाना असम्भव है, उन्हीं आप परमेश्वरका दर्शन पा गया ठीक उसी तरह, जैसे काँचकी खोज करनेवाला कोई मनुष्य भाग्यवश दिव्य रत्न हस्तगत कर ले । स्वामिन् ! मैं कृतार्थ हो गया, अब मैं कोई वर नहीं माँगता । हे नाथ ! जिनका दर्शन अपूर्व है - पहले कभी उपलब्ध नहीं हुआ है, उन आपके चरणकमलोंका दर्शन पाकर अब मैं इन्हें छोड़ नहीं सकता । मैं अब भोगोंकी याचना नहीं करुँगा; ऐसा कोई मूर्ख ही होगा, जो कल्पवृक्षसे केवल भूसी पाना चाहेगा ? देव ! आज मैं मोक्षके कारणभूत आप परमेश्वरकी शरणमें आ पड़ा हूँ, अब बाह्य विषय - सुखोंको मैं नहीं भोग सकता । जब रत्नोंकी खान समुद्र अपना मालिक हो जाय, तब काँचका भूषण पहनना कभी उचित नहीं हो सकता । अतः ईश ! अब मैं दूसरा कोई वर नहीं माँगता;आपके चरण - कमलोंमें मेरी सदा भक्ति बनी रहे, देववर ! मुझे यही वर दीजिये । मैं बारंबार आपसे यही प्रार्थना करता हूँ ॥९० - ९३॥
श्रीसूतजी कहते हैं - इस प्रकार अपने दर्शनमात्रसे दिव्य ज्ञान प्राप्त करके स्तुति करते हुए धुव्रको देखकर भगवानने उससे कहा ॥९४॥
श्रीभगवान् बोले - 'ध्रुवने विष्णुकी आराधना करके क्या पा लिया ? ' तरह तरहका अपवाद लोगोंमें न फैल जाय । इसके लिये तुम अपने अभीष्ट सर्वोत्तम स्थानको ग्रहण करो, पुनः समय आनेपर शुद्धभाव हो तुम मुझे प्राप्त कर लोगे । मेरे प्रसादसे समस्त ग्रहोंके आधारभूत, कल्पवृक्ष और सब लोगोंके वन्दनीय होकर तुम और तुम्हारी माता आर्या सुनीति मेरे निकट निवास करोगे ॥९५ - ९६॥
श्रीसूतजी कहते हैं - इस प्रकार प्रत्यक्ष प्रकट हो, उपर्युक्त वरदानोंसे ध्रुवका मनोरथ पूर्ण करके, भगवान् मुकुन्द धीरेसे अपना वह दिव्य रुप छिपा, बारंबार घूमकर उस भक्तकी ओर देखते हुए अपने वैकुण्ठधामको चले गये । इसी बीचमें देवताओंका समुदाय भगवान् विष्णु और उनके भक्तके उस अविनाशी ध्रुवका स्तवन भी करने लगा । सुनीतिकुमार ध्रुव आज श्री और सम्मान - दोनोंसे सम्पन्न होकर देवताओंका भी वन्दनीय हो, शोभा पा रहा है । यह अपने दर्शन तथा गुणकीर्तनसे मनुष्योंकी आयु, यश तथा लक्ष्मीकी भी वृद्धि करता रहेगा ॥९७ - ९९॥
इस प्रकार ध्रुव भगवान् विष्णुके प्रसादसे दुर्लभ पद पा गया - यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं हैं । उन गरुडवाहन भगवानके प्रसन्न हो जानेपर भक्तोंके लिये कुछ भी दुर्लभ नहीं रह जाता । सूर्यमण्डलका जितना मान है, उससे दूना चन्द्रमण्डलका मान है । चन्द्रमण्डलसे पूरे दो लाख योजन दूर ऊपर नक्षत्रमण्डल है, नक्षत्रमण्डलसे भी दो लाख योजन ऊँचे बुधका स्थान है और बुधके भी स्थानसे उतनी हई दूरीपर शुक्रकी स्थिति है । शुक्रसे भी दो लाख योजन दूर मङ्गल है और मङ्गलसे दो लाख योजनपर देवपुरोहित बृहस्पतिका निवास है । बृहस्पतिसे भी दो लाख योजन ऊपर सप्तर्षियोंका मण्डल है । सप्तर्षि - मण्डलसे एक लाख योजन ऊपर ध्रुव स्थित है । साधुशिरोमणे ! वह समस्त ज्योतिर्मण्डलका केन्द्र है ॥१०० - १०५॥
विप्रवर ! सूर्यदेव स्वभावतः अपनी किरणोंद्वारा नीचे तथा ऊपरके लोकोंमें ताप पहुँचाते हैं । वे ही प्रत्येक युगमें त्रिभुवनकी कालसंख्या निश्चित करते हैं । द्विजोत्तम ! मुनिश्रेष्ठ ! ब्रह्माजीके द्वारा विष्णुभक्तीसे अभ्युदयको प्राप्त होकर सूर्य अपनी ऊर्ध्वगत किरणोंसे ऊपरके जन, तप तथा सत्य लोकोंमें गर्मी पहुँचाते हैं और अधोगत किरणोंसे भूलोकको प्रकाशित करते हैं ॥१०६ - १०८॥
समस्त पापोंको हरनेवाले सूर्यदेव त्रिभुवनकी सृष्टि करते हैं । वे छत्रकी भाँति स्थित हो एक मण्डलसे दूसरे मण्डलको दर्शन देते और प्रकाशित करते हैं । सूर्यमण्डलके नीचे भुवलोंक प्रतिष्ठित है । तीनों भुवनोंका आधिपत्य भगवान् विष्णुने शतक्रतु इन्द्रको दे रखा है । वे समस्त लोकपालोंके साथ धर्मपूर्वक लोकोंकी रक्षा करते हैं । महाभाग ! वे यशस्वी देवेन्द्र स्वर्गलोकमें निवास करते हैं । महाभाग ! वे यशस्वी देवेन्द्र स्वर्गलोकमें निवास करते हैं । मुने ! इन सात लोकोंसे नीचे यह प्रभापूर्ण पाताल लोक स्थित है, ऐसा आप जानें । वहाँ न सूर्यका ताप है, न चन्द्रमाका प्रकाश, [ न दिन है ] न रात । द्विजश्रेष्ठ ! पातालवासी जन दिव्यरुप धारण करके सदा अपने तेजसे प्रकाशित होते हुए तपते हैं । स्वर्गलोकसे करोड़ योजन ऊपर महर्लोक स्थित है । हे विप्र ! उससे दूने दो करोड़ योजनपर मुनिसेवित जनलोक, जो पाँचवाँ लोक है, स्थित है । उससे चार करोड़ योजन ऊपर तपोलोककी स्थिति है । उससे चार करोड़ योजन ऊपर तपोलोककी स्थिति है । तपोलोकसे ऊपर आठ करोड़ योजनपर सत्यलोक ( ब्रह्मलोक ) स्थित है । ये सभी भुवन एक - दूसरेके ऊपर छत्रकी भाँति स्थित हैं । ब्रह्मलोकसे सोलह करोड़ योजनपर विष्णुलोककी स्थिति है । लोकचिन्तकोंने वाराहपुराणमें उसके माहात्म्यका वर्णन किया है । द्विजश्रेष्ठ ! इसके आगे परम पुरुषकी स्थिति है, जो ब्रह्माण्डसे विलक्षण साक्षात् परमात्मा है । इस प्रकार जाननेवाला मनुष्य तप और ज्ञानसे युक्त होकर पशुपाश ( अविद्या - बन्धन ) - से मुक्त हो जाता है ॥१०९ - ११८१/२॥
अनघ ! इस प्रकार मैंने तुम्हें भूगोलकी स्थिति बतलायी । जो पुरुष सम्यक् प्रकारसे इसका ज्ञान रखता है, वह परम गतिको प्राप्त होता है । मनुष्यों और देवताओंसे पूजित नृसिंहस्वरुप अप्रमेय भगवान् विष्णु लोककी रक्षा करनेवाले हैं । वे अनादि मूर्तिमान् परमेश्वर प्रत्येक युगमें शरीर धरणकर दृष्टोंका वध करके विश्वका पालन करते हैं ॥११९ - १२०॥
इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥३१॥