मार्कण्डेयजी कहते हैं - विवाह करनेके पश्चात् महातेजस्वी कमललोचन श्रीराम अयोध्यावासियोंका आनन्द बढ़ाते हुए सब प्रकारके भोगोंसे सम्पन्न हो, पिताके संतोषके लिये अयोध्यामें ही रहने लगे । नरेश्वर ! जब रघुकुलनायक श्रीराम प्रसन्नतापूर्वक अयोध्यामें सानन्द निवास करने लगे, तब उनके भाई भरत शत्रुघ्नको साथ लेकर अपने मामाके यहाँ चले गये । तदनन्तर राजा दशरथने अपने ज्येष्ठ पुत्र श्रीरामको अप्रतिम सुन्दर, बलिष्ठ, नवयुवक, विद्वान् और राजा बनाये जानेके योग्य समझकर सोचा कि ' अब श्रीराम को राजपदपर अभिषिक्त करके राज्यका भार इन्हें सौंप दूँ और स्वयं भगवान् विष्णुके धामको प्राप्त करनेके लिये महान् यत्न करुँ ॥१ - ४ १/२॥
यह सोचकर राजा इस कार्यमें तत्पर हो गये और समस्त दिशाओंमें रहनेवाले बुद्धिमान् भृत्यों, अधीनस्थ राजाओं तथा मन्त्रियोंको तुरन्त आज्ञा दी - ' भृत्यगण ! श्रीरामचन्द्रजीके राज्याभिषेकके लिये जो - जो सामान मुनियोंने बताये हैं, वे सब एकत्र करके शीघ्र ही आओ । दूतो और मन्त्रियो ! तुम लोग भी मेरी आज्ञासे सब दिशाओंके राजाओंको बुलाकर, उन्हें साथ ले, शीघ्र यहाँ आ जाओ । पुरवासी जनो ! तुम इस अयोध्यानगरीको उत्तम रीतिसे सजाकर सर्वथा शोभा - सम्पन्न बना दो तथा सर्वत्र नृत्य - गीत आदि उत्सवका ऐसा प्रबन्ध करो, जिससे यह नगर समस्त पुरवासियोंको आनन्ददेनेवाला हो जाय और सम्पूर्ण देशके निवासियोंको मनोहर प्रतीत होने लगे । तुम सब लोग यह जान लो कि कल बड़े समारोहके साथ श्रीरामचन्द्रजीका राज्याभिषेक होगा ' ॥५ - ९ १/२॥
यह सुनकर मन्त्रियोंने राजाको प्रणाम करके उनसे कहा - ' राजन् ! आपने हमारे समक्ष अपना जो यह विचार व्यक्त किया है, बहुत ही उत्तम है । श्रीरामका अभिषेक हम सभीके लिये प्रियकारक है ' ॥१० - ११॥
उनके यों कहनेपर राजा पुनः उन सब लोगोंसे बोले - ' अच्छा, अब मेरी आज्ञासे अभिषेकके सभी सामान शीघ्र लाये जायँ और समस्त वसुधाकी सारभूता इस अयोध्यापुरीको भी आज ही सब ओरसे सुसज्जित कर देना चाहिये । साथ ही एक यज्ञमण्डपकी रचना भी परम आवश्यक है ' ॥१२ - १३॥
राजाके यों कहने और बार - बार प्रेरणा करनेपर उन सब शीघ्रकारी मन्त्रियोंने उनके कथनानुसार सब कार्य पूर्ण कर दिये । राजा इस शुभ दिनकी प्रतीक्षा करते हुए बड़े ही आनन्दित हुए । कौशल्या, सुमित्रा, लक्ष्मण तथा अन्य पुरवासी श्रीरामचन्द्रजीके राज्याभिषेकका शुभ समाचार सुनकर आनन्दके मारे फूले नहीं समाये । सास - ससुरकी सेवामें भलीभाँति लगी रहनेवाली सीता भी अपने पतिके लिये इस शुभ संवादको सुनकर बहुत ही प्रसन्न हुई ॥१४ - १६ १/२॥
आत्मतत्त्वके ज्ञाता अथवा सबके मनकी बात जाननेवाले भगवान् श्रीरामका अभिषेक दूसरे ही दिन होनेवाला था । इसी बीचमें कैकेयीकी कुबड़ी दासी मन्थराने अपनी स्वामिनी कैकेयीके पास जाकर यह बात कही - ' बड़भागिनी रानी ! मैं एक बहुत अच्छी बात सुनाती हूँ, सुनो । तुम्हारे पति महाराज दशरथ अब तुम्हारा नाश करनेपर तुले हुए हैं । शुभे ! वे जो कौशल्या - पुत्र राम हैं, कल ही राजा होंगे । धन, वाहन और कोश आदिके साथ यह सारा राज्य अब रामका हो जायगा; भरतका कुछ भी नहीं रहेगा । देखो, भाग्यकी बात; इस अवसरपर भरत भी बहुत दूर - अपने मामाके घर चले गये हैं । हाय ! यह सब कितने कष्टकी बात है ! तुम मन्दभागिनी हो । अब तुम्हें सौतकी ओरसे बहुत ही कष्ट उठाना पड़ेगा ' ॥१७ - २१ १/२॥
ऐसी बात सुनकर कैकेयीने कुब्जासे कहा - ' बुद्धिमति कुब्जे ! तू मेरी दक्षता तो देख - आज ही मैं ऐसा यत्न करती हूँ, जिससे यह सारा राज्य भरतका हो जाय और रामका वनवास हो ' ॥२२ - २३ १/२॥
मन्थरासे यों कहकर कैकेयीने अपने अङ्गोंके आभूषण उतार दिये । सुन्दर वस्त्र और फूलोंके हार भी उतार फेंके और मोटा वस्त्र पहन लिया । फिर निर्माल्य ( पूजासे उतरे हुए ) पुष्पोंको धारण किया, देहमें राख और धूल लपेट ली और कुरुप वेष बनाकर वह शरीरमें कष्ट और मूर्च्छाका अनुभव करने लगी । वह भामिनी ललाटमें श्वेत वस्त्र बाँध, संध्याके समय दीपक बुझा, अँधेंरमें ही राख और धूलसे भरे भूभागमें अत्यन्त दुःखित हो लेट गयी ॥२४ - २६ १/२॥
इधर मन्त्रियोंके साथ सारे कार्योंके विषयमें मन्त्रणा करके, वसिष्ठ आदि ऋषियोंद्वारा पुण्याहवाचन, स्वस्तिवाचन और मङ्गलपाठादि करवाकर, श्रीरामको यज्ञ - सामग्रीसे युक्त मण्डपमें बिठाया और वृद्धि ( नान्दीश्राद्ध ) एवं जागरण - सम्बन्धी कृत्यके लिये उपयुक्त तथा सब ओर शहनाई एवं शङ्ख, काहल आदिके शब्दोंसे निनादित एवं गान और नृत्यके कार्यक्रमोंसे पूर्ण उस मण्डपमें थोड़ी देरतक स्वयं भी ठहरकर राजा दशरथ वहाँसे लौट आये । राजा कैकेयीसे श्रीरामचन्द्रजीके अभिषेकका शुभ समाचार सुनानेकी इच्छासे कैकेयीके भवनके दरवाजेपर पहुँचे, जहाँ बूढ़े सिपाही पहरा देते थे । कैकेयीके घरको अन्धकारयुक्त देख राजाने कहा ॥२७ - ३१॥
' प्रिये ! आज तुम्हारे मन्दिरमें अन्धकार क्यों है ? आज तो इस नगरके चाण्डालोंने भी श्रीरामचन्द्रके अभिषेकको आनन्दजनक माना है । सभी लोग अपने घरको सुन्दर ढंगसे सजा रहे हैं । तुमने अपने भवनको क्यों नहीं सुसज्जित किया ?' - यों कहकर राजाने घरमें दीप प्रज्वलित कराये; फिर उसके भीतर प्रवेश किया । वहाँ कैकेयी धरतीपर पड़ी सो रही थी । उसका प्रत्येक अङ्ग अशोभन जान पड़ता था । उसे इस अवस्थामें देख राजाने उठाकर हदयसे लगाया और उसको प्रिय लगनेवाले ये वचन कहे - ' प्रिये ! मेरी उत्तम बात सुनो । सुन्दरि ! जो तुम्हारे प्रति अपनी मातासे भी अधिक प्रेम रखते हैं, उन्हीं श्रीरामचन्द्रका कल राज्याभिषेक होगा ' ॥३२ - ३६॥
राजाके इस प्रकार कहनेपर वह सुन्दरी कुछ भी न बोली । बारम्बार क्रोधपूर्वक केवल लम्बी - लम्बी गरम साँसें छोड़ती रही । राजा अपनी भुजाओंसे उसका आलिङ्गन करके बैठ गये और उस रुठी हुई कैकेयीसे बोले - ' सुन्दरी कैकेयि ! बताओ, तुम्हारे दुःखका क्या कारण है ? शुभे ! वस्त्र, आभूषण और रत्न आदि जिन - जिन वस्तुओंकी तुम्हें इच्छा हो, उन सबको बिना किसी आशङ्काके भण्डारघरसे ले लो; परंतु प्रसन्न हो जाओ । कल्याणि ! कल जब श्रीरामका राज्याभिषेक सम्पन्न हो जायगा, उस समय उस भाण्डारसे मेरे मनोरथकी सिद्धि हो जायगी । इस समय तो मैंने भण्डारघरका द्वार उन्मुक्त कर रखा है । श्रीरामके राज्य - शासन करते समय वह फिर पूर्ण हो जायगा । प्रिये ! महात्मा श्रीरामके राज्याभिषेकको तुम इस समय अधिक महत्त्व और सम्मान दो ' ॥३७ - ४१ १/२॥
महाराज दशरथके इस प्रकार कहनेपर कुब्जाके द्वारा पढ़ायी गयी पापिनी, दुर्बुद्धि, दयाहीना और दुष्टा कैकेयीने अपने पति महाराज दशरथसे अत्यन्त क्रूरतापूर्वक निष्ठुर वचन कहा - ' महाराज ! इसमें संदेह नहीं कि आपके जो रत्न आदि हैं, वे सब मेरे ही हैं; किंतु पूर्वकालमें देवासुर - संग्रामके अवसरपर आपने प्रसन्न हो मुझे जो दो वर दिये थे, उन्हें ही इस समय दीजिये ' ॥४२ - ४४ १/२॥
यह सुनकर राजाने उस अशुभा कैकेयीसे कहा - ' शुभे ! और किसीकी बात तो मैं नहीं कहता, परंतु तुम्हारे लिये तो जिसे नहीं देनेको कहा है, वह वस्तु भी दे दूँगा । फिर जिसको देनेके लिये मैंने पहले प्रतिज्ञा कर ली है, वह वस्तु तो दी हुई ही समझो । कल्याणि ! अब सुन्दर वेष धारण करो और यह व्यर्थका कोप छोड़ दो । उठो, श्रीरामके राज्याभिषेकके आनन्दोत्सवमें भाग लो और सुखी हो जाओ ' ॥४५ - ४७॥
नृपश्रेष्ठ दशरथके यों कहनेपर कलहप्रिया कैकेयीने ऐसी कठोर बात कही, जो आगे चलकर राजाकी मृत्युका कारण बन गयी । उसने कहा - ' प्रभो ! यदि आप पहलेके दिये हुए दोनों वर मुझे देना चाहते हों तो ( पहला वर मैं यही माँगती हूँ कि ) ये कौशल्यानन्दन श्रीराम कल सबेरा होते ही वनको चले जायँ और आपकी आज्ञासे ये बारह वर्षोंतक दण्डकारण्यमें निवास करें तथा मेरा दूसरा अभीष्ट वर यह है कि अब राज्य और राज्याभिषेक भरतका होगा ' ॥४८ - ५०॥
कैकेयीके इस घोर अप्रिय वचनको सुनकर राजा दशरथ मूर्च्छित हो पृथ्वीपर गिर पड़े और कैकेयीने ( प्रसन्नतापूर्वक ) अपने आपको सुन्दर वस्त्राभूषणोंसे विभूषित कर लिया । शेष रात बिताकर प्रातः काल कैकेयीने आनन्दित हो राजदूत सुमन्त्रसे कहा - ' श्रीरामको यहाँ बुलाकर लाया जाय ।' उस समय राम ब्राह्मणोंद्वारा पुण्याहवाचन और स्वस्तिवाचन कराकर, शङ्ख और तूर्य आदि वाद्योंका शब्द सुनते हुए यज्ञमण्डपमें विराजमान थे ॥५१ - ५३॥
दूत सुमन्त्र उस समय श्रीरामचन्द्रजीके पास पहुँचकर उन्हें प्रणाम करके सामने खड़े हो गये और बोले - ' राम ! महाबाहु श्रीराम ! तुम्हारे पिताजीका आदेश है, जल्दी उठो और जहाँ तुम्हारे पिता विद्यमान हैं, वहाँ चलो ।' दूतके यों कहनेपर श्रीरामचन्द्रजी शीघ्र ही उठे और ब्राह्मणोंसे आज्ञा ले कैकेयीके भवनमें जा पहुँचे ॥५४ - ५५ १/२॥
श्रीरामको अपने भवनमें प्रवेश करते देख दयाहीना कैकेयीने कहा - ' वत्स ! तुम्हारे पिताका यह विचार मैं तुम्हें बता रही हूँ । महाबाहो ! तुम बारह वर्षोंतक वनमें जाकर रहो । वीर ! वहाँ तपस्या करनेका निश्चय मनमें लिये तुम आज ही चले जाओ । बेटा ! तुम्हें अपने मनमें कोई अन्यथा विचार नही करना चाहिये । मेरे वचनका आदरपूर्वक पालन करो ' ॥५६ - ५८॥
कैकेयीके मुखसे पिताका यह वचन सुनकर कमललोचन श्रीरामने ' तथास्तु ' कहकर पिताकी आज्ञा शिरोधार्य की और उन दोनों - माता - पिताको प्रणाम करके उनके भवनसे निकलकर उन्होंने अपना धनुष सँभाला । फिर कौशल्या और सुमित्राको प्रणाम करके वे घरसे जानेको तैयार हो गये ॥५९ - ६०॥
यह समाचार सुनते ही समस्त पुरवासीजन दुःख शोकमें डूब गये और बड़ी व्यथाका अनुभव करने लगे इधर सुमित्राकुमार लक्ष्मण कैकेयीके प्रति कुपित हो उठे । परम बुद्धिमान धर्मज्ञ श्रीरामने लक्ष्मणको क्रोधसे लाल आँखे किये देख धर्मयुक्त वचनोंद्वारा उन्हें शान्त किया । तत्पश्चात् वहाँ जो बड़े - बूढ़े उपस्थित थे, उनको तथा मुनियोंको प्रणाम करके श्रीरामचन्द्रजी वनकी यात्राके लिये रथपर आरुढ़ हुए । उस रथका सारथि बहुत दुःखी था । उस समय राजकुमार श्रीरामने अपने पासके समस्त द्रव्य और नाना प्रकारके वस्त्र अत्यन्त श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणोंको दान कर दिये ॥६१ - ६४॥
तदनन्तर सीताजी भी अपनी तीनों सासुओंसे तथा नेत्रोंसे शोकाश्रुकी धारा बहाते हुए संज्ञाशून्य श्वशुर महाराज दशरथसे आज्ञा ले सब ओर देखती हुई रथपर आरुढ़ हुईं । सीताके साथ श्रीरामचन्द्रको रथपर चढ़कर वनमें जाते देख सुमित्रा अत्यन्त दुःखित हो लक्ष्मणसे बोलीं - ' सदुगुणोंकी खान बेटा लक्ष्मण ! तुम आजसे श्रीरामको ही पिता दशरथ समझो, सीताको ही मेरा स्वरुप मानो तथा वनको ही अयोध्या जानो । उन दोनोंके साथ ही सेवाके लिये तुम भी जाओ ' ॥६५ - ६७ १/२॥
स्नेहवश जिनके स्तनोंसे दूध बहकर समस्त शरीरको भिगो रहा था, उन माता सुमित्राके इस प्रकार कहनेपर लक्ष्मण उन्हें प्रणाम करके स्वयं भी उस सुन्दर रथपर जा बैठे । महामते ! इस प्रकार नगरसे बनमें जाते हुए श्रीरामचन्द्रजीके पीछे धीर - वीर भ्राता लक्ष्मण तथा सुस्थिर हदया पतिव्रता सीता - दोनों ही चले ॥६८ - ६९ १/२॥
दुर्दैवने जिनके राज्याभिषेकको बीचमें ही छिन्नभिन्न कर दिया था, वे कमलनयन श्रीराम जब अयोध्यापुरीसे निकले, उस समय पुरोहित, मन्त्री और प्रधान - प्रधान पुरवासी भी बहुत दुःखी होकर उनके पीछे - पीछे चले तथा वनकी ओर जाते हुए श्रीरामके निकट पहुँचकर उनसे यों बोले - ' राम ! राम ! महाबाहो ! तुम्हें वनमें नहीं जाना चाहिये । शोभाशाली नरेश्वर ! नगरको लौट चलो; हमें छोड़कर कहाँ जा रहे हो ?' ॥७० - ७२ १/२॥
उनके यों कहनेपर दृढ़प्रतिज्ञ श्रीराम उनसे बोले - ' मन्त्रियो ! पुरवासियो ! और पुरोहितगण ! आप लोग लौट जायँ । मुझे अपने पिताजीकी आज्ञाका पालन करना है, इसलिये मैं वनमें अवश्य जाऊँगा । वहाँ दण्डकारण्यमें बारह वर्षोंतक वनवासके नियमको पूर्ण करनेके पश्चात् मैं पिता और माताओंके चरण - कमलोंको दर्शन करनेके लिये शीघ्र ही यहाँ लौट आऊँगा ' ॥७३ - ७५॥
नगर - निवासियोंसे यों कहकर सत्यपरायण श्रीराम आगे बढ़ गये । उन्हें जाते देख पुनः सब लोग दुःखी हो उनके पीछे - पीछे चलने लगे । तब ककुत्स्थनन्दन श्रीरामने फिर कहा - महाभागगण ! आपलोग इस अयोध्यापुरीको लौट जाइये और मेरे पिता - माताओंकी, भरत - शत्रुघ्नकी, इस अयोध्यानगरीकी, यहाँके समस्त प्रजाजनोंकी तथा इस राज्यकी भी रक्षा कीजिये । मैं वनमें तपस्याके लिये जाता हूँ ' ॥७६ - ७८॥
तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजीने उस समय लक्ष्मणसे यह बात कही - ' लक्ष्मण ! तुम सीताको ले जाकर मिथिलापति राजा जनकको सौंप आओ और स्वयं पिता - माताके अधीन रहो । लौट जाओ, लक्ष्मण ! मैं वनको अकेला ही जाऊँगा ।' उनके यों कहनेपर भ्रातृवत्सल धर्मात्मा लक्ष्मणने कहा - ' प्रभो ! करुणानिधान ! आप मुझे ऐसी कठोर आज्ञा न दीजिये । आप जहाँ भी जाना चाहते हैं, वहाँ मैं अवश्य चलूँगा ।' लक्ष्मणके यों कहनेपर श्रीरामचन्द्रजीने सीतासे कहा - ' शोभने सीते ! तुम मेरी आज्ञासे अपने पिताके यहाँ चली जाओ अथवा माता कौशल्या और सुमित्राके भवनमें जाकर रहो । सुन्दरि ! तुम तबतकके लिये वहाँ लौट जाओ, जबतक कि मैं वनसे फिर यहाँ आ न जाऊँ ' ॥७९ - ८३॥
श्रीरामचन्द्रजीके इस प्रकार आदेश देनेपर सीता भी हाथ जोड़कर बोली - ' महाबाहो ! हे शत्रुदमन ! आप वनमें जहाँ जाकर निवास करेंगे, वहाँ चलकर मैं भी आपके ही साथ रहूँगी । राजन् ! सत्यव्रतका पालन करनेवाले आप पतिदेवका वियोग मैं क्षणभरके लिये भी नहीं सह सकती; इसलिये प्रभो ! मैं प्रार्थना करती हूँ, मुझपर दया करें । प्राणनाथ ! आप जहाँ जाना चाहते हैं, वहाँ मैं भी अवश्य ही चलूँगी ' ॥८४ - ८६॥
इसके बाद श्रीरामचन्द्रजीने देखा कि मेरे पीछे बहुतसे पुरुष नाना प्रकारके वाहनोंपर चढ़कर आ गये हैं तथा झुंड - की - झुंड स्त्रियाँ भी आ गयी हैं; तब धर्मवेता श्रीरामने उन सबको साथ चलनेसे मना किया और कहा - ' पुरुषो ! और स्त्रियो ! आप सब लोग लौटकर अयोध्यामें स्वच्छन्दतापूर्वक रहें । मैं तपस्याके लिये चित्त एकाग्र करके दण्डकारण्यको जा रहा हूँ । वहाँ कुछ ही वर्षोंतक रहनेके बाद मैं अपनी पत्नी सीता और भाई लक्ष्मणके साथ यहाँ लौट आऊँगा, यह मैंने सच्ची बात बतायी है । इसे अन्यथा नहीं मानना चाहिये ' ॥८७ - ८९॥
इस प्रकार अयोध्यावासी लोगोंको लौटाकर श्रीरामने गुहके आश्रमपर पदार्पण किया । गुह स्वभावसे ही वैष्णव तथा श्रीरामचन्द्रजीका परम भक्त था । भगवान रामको देखते ही वह उनके सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और बोला - ' भगवान ! मैं क्या सेवा करुँ ' ॥९० १/२॥
[ यों कहकर गुहने सीता और लक्ष्मणसहित श्रीरामका सादर पूजन एवं सत्कार किया । इसके बाद सबेरे सारथि और रथको लौटाकर वे गङ्गाजीके तटपर गये और पुनः कहने लगे - ] राजन् ! जिन्हें आपके पूर्वज महाराज भगीरथ पूर्वकालमें बड़ी तपस्या करके पृथ्वीपर ले आये थे, जो समस्त पापहारिणी और कल्याणकारिणी हैं, अनेकानेक मुनिजन जिनका सेवन करते हैं, जिनमें कूर्म और मत्स्य आदि जल - जन्तु भरे रहते हैं, जो ऊँची - ऊँची लहरोंसे सम्पन्न एवं स्फटिकमणिके समान स्वच्छ जल बहानेवाली है, उन पुण्यसलिला गङ्गाजीको गुहके द्वारा लायी हुई नावसे पार करके महान् कान्तिमान् भगवान् श्रीराम भरद्वाज मुनिके शुभ आश्रमपर गये ॥९१ - ९३ १/२॥
वह आश्रम प्रयागमें था । श्रीरामचन्द्रजीने सीता तथा भाई लक्ष्मणके साथ उस प्रयागतीर्थमें विधिवत् स्नन करके, वहीं भरद्वाज ऋषिके आश्रममें उनसे सम्मान प्राप्तकर रात्रिमें विश्राम किया । फिर निर्मल प्रभातकाल होनेपर श्रीराम तपस्वीवेष धारणकर, भरद्वाज मुनिसे आज्ञा ले, उन्हींके बताये हुए मार्गसे गङ्गाके पार हो धीरे - धीरे नाना प्रकारके वृक्ष और लताओंसे आच्छन्न परम उत्तम पावन तीर्थ चित्रकूटको गये ॥९४ - ९७॥
राजन् ! इधर सीता - लक्ष्मण और सारथिके सहित रामचन्द्रजीके चले जानेपर अयोध्यावासीजन बहुत दुःखी होकर शोभाशून्य अयोध्यानगरीमें रहने लगे । राजा दशरथ तो कैकेयीके मुखस्से निर्गत श्रीरामको वनवास देनेवाले अप्रिय वचनको सुनते ही मूर्च्छित हो गये थे । कुछ देर बाद जब राजाको होश हुआ, तब वे उच्चस्वरसे ' राम ! राम ! ' पुकारने लगे । तब कैकेयीने भूपालसे कहा - ' राम ! तो सीता और लक्ष्मणके साथ वनमें चले गये; अब आप भरतका राज्याभिषेक कीजिये ।' यह सुनते ही राजा दशरथ पुत्रशोकसे संतप्त हो, दुःखके मारे शरीर त्यागकर देवलोकको चले गये ॥९८ - १०१ १/२॥
शत्रुदमन ! तब उनकी महानगरी अयोध्यामें रहनेवाले सभी स्त्री - पुरुष दुःख और शोकसे पीड़ित हो विलाप करने लगे । कौशल्या, सुमित्रा तथा कष्टकारिणी कैकेयी भी अपने मृत पतिको चारों ओरसे घेरकर रोने लगीं ॥१०२ - १०३ १/२॥
तब सब धर्मोंको जाननेवाले पुरोहित वसिष्ठजीने वहाँ आकर सबको शान्त किया और राजाके मृत शरीरको तेलसे भरी हुई नौकामें रखवाकर, मन्त्रिगणोंके साथ विचार करके, भरत - शत्रुघ्नको बुलानेके लिये दूत भेजा । वह दूत जहाँ शत्रुघ्नके साथ भरतजी थे, वहाँ गया और जितना उसे बताया गया था, उतना ही संदेश सुनाकर, उन दोनों राजकुमारोंको वहाँसे लौटाकर, उन्हें साथ ले, शीघ्र ही अयोध्यामें लौट आया । राजा भरत मार्गमें घोर अपशकुन देख मन - ही - मन यह जान गये कि ' अयोध्यामें कोई विपरीत घटना घटित हुई है । ' फिर जो कैकेयीरुपी अग्निसे दग्ध होकर शोभाहीन, निस्तेज और दुःख - शोकसे परिपूर्ण हो गयी थी, उस अयोध्यापुरीमें भरतजीने प्रवेश किया । उस समय भरत और शत्रुघ्नको देख सभी लोग दुःखी हो ' हा तात ! हा राम ! हा सीते ! हा लक्ष्मण ! ' इस प्रकार बारम्बार पुकारते हुए बहुत विलाप करने लगे । यह देख भरत और शत्रुघ्न भी दुःखी होकर रोने लगे ॥१०४ - ११०॥
उस समय कैकेयीके मुखसे तत्कल सारा वृत्तान्त सुनकर भरतजी उसके ऊपर बहुत ही कुपित हुए और बोले - ' अरी ! तू तो बड़ी दुष्टा है । तेरे चित्तमें दुष्टतापूर्ण विचार भरा हुआ है । हाय ! जिसने श्रीरामको वनवास दे दिया, जिसके कारण भाई लक्ष्मण और देवी सीताके साथ श्रीरघुनाथजीको वनमें जानेको विवश होना पड़ा, उससे बढ़कर दुष्टा कौन स्त्री होगी ? अरी दुष्टे ! ओ मन्दभागिनी ! तूने तत्काल ऐसा दुस्साहस कैसे किया ? तूने सोचा होगा कि महात्मा लक्ष्मण और साध्वी सीताके साथ रामको घरसे निकालकर महाराजा दशरथ मेरे ही पुत्रको राजा बना देंगे । ( धिक्कार है तेरी इस कुबुद्धिको ! ) आह ! मैं कितना भाग्यहीन हूँ, जो तुझ - जैसी अभागिनी दुष्टा स्त्रीका पुत्र हुआ । किंतु तू निश्चय जान, मैं अपने ज्येष्ठ भ्राता श्रीरामसे अलग रहकर राज्य नहीं करुँगा । जहाँ मनुष्योममें श्रेष्ठ, धर्मज्ञ, सम्पूर्ण शास्त्रोंके ज्ञाता, बुद्धिमान् तथा भाइयोंपर स्त्रेह रखनेवाले पूज्य भ्राता कमलदललोचन करनेवाली, समस्त शुभलक्षणोमसे युक्त, अत्यन्त सौभाग्यशालिनी पतिव्रता विदेहराजकुमारी सीताजी विद्यमान हैं और जहाँ भाईमें रखनेवाले, सदगुणसम्पन्न, महान् पराक्रमी लक्ष्मणजी गये हैं, वहीं मैं भी जाऊँगा । कैकेयि ! तूने रामको वनवास देकर महान् पाप किया है । दुष्टहदये ! बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजी ही मेरे ज्येष्ठ भ्राता है, वे ही राजा होनेके अधिकारी हैं । मैं तो सदा उनका दास हूँ ' ॥१११ - ११८॥
मातासे यों कहकर भरतजी अत्यन्त दुःखी हो, वहाँ फूट - फूटकर रोने लगे और विलाप करने लगे - ' हा राजन् ! हा वसुधाप्रतिपालक ! हा तात ! मुझ अत्यन्त दुःखी बालकको छोड़कर आप कहाँ चले गये ? बताइये, मैं अब यहाँ क्या करुँ ? पिताके तुल्य दया करनेवाले मेरे ज्येष्ठ भ्राता श्रीराम कहाँ हैं ? माताके समान पूजनीया सीता कहाँ हैं और मेरा प्यारा भाई लक्ष्मण कहाँ चला गया ? ' ॥११९ - १२० १/२॥
भरतको इस प्रकार विलाप करते देख काल और कर्मके विभागको जाननेवाले भगवान् वसिष्ठजी मन्त्रियोंके साथ वहाँ आकर बोले - ' बेटा ! उठो, उठो; तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये । भद्र ! काल और कर्मके वशीभूत होकर ही तुम्हारे पिता स्वर्गवासी हुए हैं; अब तुम उनके अन्त्येष्टिसंस्कार आदि कर्म करो । भगवान् श्रीराम साक्षात् लक्ष्मीपति नारायण हैं । वे जगदीश्वर दुष्टोंका नाश और साधुपुरुषोंका पालन करनेके लिये ही अपने अंशसे इस पृथ्वीपर अवतीर्ण हुए हैं । वनमें श्रीराम और लक्ष्मणके द्वारा बहुत - से कार्य होनेवाले हैं । वहाँ वीरवर कमललोचन श्रीरामचन्द्रजी उन्हीं कर्तव्यकर्मोंसे प्रेरित होकर रहेंगे और उन्हें पूर्ण करके यहाँ लौट आयेंगे ' ॥१२१ - १२५ १/२॥
उन महात्मा वसिष्ठजीके यों कहनेपर भरतजीने शास्त्रोक्त विधिके अनुसार पिताका और्ध्वदैहिक संस्कार शवका विधिपूर्वक दाह किया । फिर सरयूके जलमे स्त्रान करके श्रीमान् भरतने भाई शत्रुघ्न, सब माताओं तथा अन्य बन्धुजनोंके साथ परलोकगत पिताके लिये तिलसहित जलकी अञ्जलि दी ॥१२६ - १२८॥
इस प्रकार पिताका और्ध्वदैहिक संस्कार करके मन्त्रियोंके अधिपति साधुश्रेष्ठ महाबुद्धिमान् भरतजी अपने मन्त्रियों तथा हाथी, घोड़े, रथ एवं पैदल, सेनाओंके साथ ( माताओं तथा बन्धुजनोंको भी साथ ले ) श्रीरामचन्द्रजीका अन्वेषण करनेके लिये जिसे मार्गसे वे गये थे, उसी मार्गसे चले । उस समय भरत ( और शत्रुघ्न ) - को इतनी बड़ी सेनाके साथ आते देख, उन्हें श्रीरामचन्द्रजीका विरोधी शत्रु समझकर रामभक्त गुहने युद्धके लिये सुसज्जित हो, अपनी सेना गोलाकार खड़ी की और कवच धारणकर, रथारुढ़ हो, उस विशाल सेनासे घिरे हुए उसने मार्गमें भरतको रोक दिया । उसने कहा - ' दुष्ट ! दुरात्मन् ! दुर्बुद्धे ! तूने मेरे श्रेष्ठ स्वामी श्रीरामको भाई और पत्नीसहित वनमें तो भिजवा ही दिया; क्या अब उन्हें मारना भी चाहते हो, जो ( इतनी बड़ी ) सेनाके साथ वहाँ जा रहे हो ? ' ॥१२९ - १३३ १/२॥
गुहके यों कहनेपर राजकुमार भरत श्रीरामके उद्देश्यसे हाथ जोड़कर विनययुक्त होकर उससे बोले - ' गुह ! जैसे तुम श्रीरामचन्द्रजीके भक्त हो, वैसे ही मैं भी उनमें भक्ति रखता हूँ । महामते ! मैं नगरसे बाहर ( मामाके घर ) चला गया था, उस समय कैकेयीने यह अनर्थ कर डाला । महाबुद्धे ! आज मैं श्रीरामचन्द्रजीको लौट लानेके लिये जा रहा हूँ । तुमसे यह सत्य बात बताकर वहाँ जाना चाहता हूँ । तुम मुझे मार्ग दे दो' ॥१३४ - १३६ १/२॥
इस प्रकार विश्वास दिलानेपर गुह उन्हें गङ्गातटपर ले आया और झुंड - की - झुंड नौकाएँ मँगाकर उनके द्वारा उन सबको पार कर दिया । फिर गङ्गाजीके जलमें स्नान करके भरतजी भरद्वाजमुनिके आश्रमपर पहुँचे और उन महामुनिके चरणोंमें मस्तक झुका, प्रणाम करके उन्होंने उनसे अपना यथार्थ वृत्तान्त कह सुनाया ॥१३७ - १३८ १/२॥
भरद्वाजजीने भी उनसे कहा - ' भरत ! कालके ही प्रभावसे ऐसा काण्ड घटित हुआ है । अब तुम्हें श्रीरामके लिये भी खेद नहीं करना चाहिये । सत्यपराक्रमी वे श्रीरामचन्द्रजी इस समय चित्रकूटमें हैं । वहाँ तुम्हारे जानेपर भी वे प्रायः नहीं आ सकेंगे; तथापि तुम वहाँ जाओ और जैसे वे कहें, वैसे ही करो । श्रीरामचन्द्रजी सीताके साथ एक सुन्दर वनखण्डीमें निवास करते हैं और महान् पराक्रमी लक्ष्मण दुष्ट जीवोंपर दृष्टि रखते हैं - उनकी रक्षामें तत्पर रहते हैं ' ॥१३९ - १४२॥
बुद्धिमान् भरद्वाजजीके यों कहनेपर भरतजी यमुना पार करके महान् पर्वत चित्रकूटपर गये । वहाँ खड़े हुए लक्ष्मणजीने दूरसे उत्तर दिशामें धूल उड़ती देख श्रीरामचन्द्रजीको सूचित किया । फिर उनकी आज्ञासे वृक्षपर चढ़कर बुद्धिमान् लक्ष्मणजी प्रयत्नपूर्वक उधर देखने लगे । तब उन्हें वहाँ बहुत बड़ी सेना आती दिखायी दी, जो हर्ष एवं उत्साहसे भरी जान पड़ती थी । हाथी, घोड़े और रथोसे युक्त उस सेनाको देखकर लक्ष्मणजी श्रीरामसे बोले - ' भैया ! तुम सीताके पास स्थिरतापूर्वक बैठे रहो । महाबाहो ! कोई महाबली राजा हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सैनिकोंसे युक्त चतुरङ्गिणी सेनाके साथ आ रहा है ' ॥१४३ - १४६ १/२॥
महात्मा लक्ष्मणके ऐसे वचन सुनकर सत्यपराक्रमी वीरवर श्रीराम अपने उस वीर भ्रतासे बोले - ' लक्ष्मण ! मुझे तो प्रायः यही जान पड़ता है कि भरत ही हम लोगोंसे मिलनेके लिये आ रहे हैं । ' विदितात्मा भगवान् श्रीराम जिस समय यों कह रहे थे, उसी समय विनयशील भरतजी वहाँ पहुँचे और सेनाको कुछ दूरीपर ठहराकर स्वयं ब्राह्मणों और मन्त्रियोंके साथ निकट आ , सीता और लक्ष्मणसहित भगवान् श्रीरामके चरणोंपर रोते हुए गिर पड़े । फिर मन्त्री, माताएँ, स्नेही बन्धु तथा मित्रगण श्रीरामको चारों ओरसे घेरकर शोकमग्न हो रोने लगे ॥१४७ - १५१॥
तदनन्तर महामति श्रीरामने अपने पिताके स्वर्गगामी होनेका समाचार पाकर भ्राता लक्ष्मण और जानकीके साथ वहाँके पापनाशक तीर्थमें स्नान करके जलाञ्जलि दी । राजन् ! फिर माता आदि गुरुजनोंको प्रणाम करके रामचन्द्रजी दुःखी हो अत्यन्त खेदमें पड़े हुए भरतसे बोले - ' महामते भरत ! तुम अब यहाँसे शीघ्र अयोध्याको चले जाओ और राजासे हीन हुई उस अनाथ नगरीका पालन करो । ' उनके यों कहनेपर भरतने कमललोचन रामसे कहा - ' पुरुषश्रेष्ठ ! यह निश्चय है कि मैं आपको साथ लिये बिना यहाँसे नहीं जाऊँगा । जहाँ आप जायँगे, वहीं सीता - लक्ष्मणकी भाँति मैं भी चलूँगा ' ॥१५२ - १५६॥
यह सुनकर श्रीरामने अपने सामने खड़े हुए भरतसे पुनः कहा - ' साधुश्रेष्ठ भरत ! अपने धर्मका पालन करनेवाले मनुष्योंके लिये ज्येष्ठ भ्राता पिताके समान पूज्य है । जिस प्रकार मुझे पिताके मुखसे निकले हुए वचनका उल्लघ्न नहीं करना चाहिये, वैसे ही तुम्हें भी मेरे वचनोंका उल्लङ्घन नहीं करना चाहिये । अब तुम यहाँ मेरे निकटसे जाकर प्रजाजनका पालन करो । पिताके मुखसे कहा हुआ जो यह बारह वर्षोंके वनवासका व्रत मैंने स्वीकार किया है, उसका वनमें पालन करके मैं पुनः तुम्हारे पास आ जाऊँगा । जाओ, मेरी आज्ञाके पालनमें लग जाओ; तुम्हें खेद नहीं करना चाहिये ' ॥१५७ - १६०॥
उनके यों कहनेपर भरतने आँखोंमें आँसू भरकर कहा - ' भैया ! इसके सम्बन्धमें मुझे कोई विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है कि मेरे लिये जैसे पिताजी थे, वैसे ही आप हैं । अब मैं आपके आदेशके अनुसार ही कार्य करुँगा; किंतु आप अपनी दोनों चरणपादुकाएँ मुझे दे दें । मैं इन्हीं पादुकाओंका आश्रय ले नन्दिग्राममें निवास करुँगा और आपकी ही भाँति बारह वर्षोंतक व्रतका पालन करुँगा और आपकी ही भाँति बराह वर्षोंतक व्रतका पालन करुँगा । अब आपके वेषके समान ही मेरा वेष होगा और आपका जो व्रत है, वही मेरा भी महान् व्रत होगा । साधुशिरोमणे ! यदि आप बारह वर्षोंके व्रतका पालन करनेके बाद तुरंत नहीं पधारेंगे तो मैं अग्निमें हविष्यकी भाँति अपने शरीरको होम दूँगा ।' अत्यन्त दुःखी भरतजीने इस प्रकार शपथ करके भगवान् रामकी अनेक बार प्रदक्षिणा की, बारंबार उन्हें प्रणाम किया और उनकी चरणपादुकाएँ अपने सिरपर रखकर वे वहाँसे धीरे - धीरे चल दिये ॥१६१ - १६५॥
भरतजी अपनी इन्द्रियोंको वशमें करके, शाक और मूल - फलादिका नियमित आहार करते हुए, तपोनिष्ठ हो, भ्राताके आदेशका पालन करते हुए नन्दिग्राममें रहने धारण किये और अङ्गोंमे वल्कल पहने, वन्य फलोंका ही आहार करते थे । वे मन - ही - मन श्रीरामचन्द्रजीके वचनोंमें श्रद्धा रखनेके कारण अपने ऊपर पड़े पृथ्वीके शासनका भार ढोने लगे ॥१६६ - १६७॥
इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें श्रीरामावतारविषयक अड़तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥४८॥