भरद्वाजजीने पूछा - महामते ! उन महात्मा राजाने किस प्रकार गणेशजीका स्तवन किया ? तथा उन्होंने जिस प्रकार तपस्या की, उसका आप मुझसे वर्णन करें ॥१॥
सूतजी बोले - द्विज ! गणेश - चतुर्थीके दिन राजाने त्रिकाल स्नान करके रक्तवस्त्र धारण किया और लाल चन्दन लगाकर मनोहर लाल फूलों तथा रक्तचन्दनमिश्रित जलसे गणेशजीको स्नान कराके विधिवत् उनका पूजन किया । स्नान करानेके बाद उनके श्रीअङ्गोंमें लाल चन्दन लगाया । फिर रक्तपुष्पोंसे उनकी पूजा की । तदनन्तर उन्हें घृत और चन्दन मिला हुआ धूप निवेदन किया । अन्तमें हल्दी, घी और गुडखण्डके मेलसे तैयार किया हुआ मधुर नैवेद्य अर्पण किया । इस प्रकार सुन्दर विधिपूर्वक भगवान् विनायकका पूजन करके राजाने उनकी स्तुति आरम्भ की ॥२ - ४१/२॥
इक्ष्वाकु बोले - मैं महान् देव गणेशजीको प्रणाम करके उन विघ्नराजका स्तवन करता हूँ, जो महान् देवता एवं गणोंके स्वामी हैं, शूरवीर तथा अपराजित हैं और ज्ञानवृद्धि करानेवाले हैं । जो एक, दो तथा चार दाँतोंवाले हैं, जिनकी चार भुजाएँ हैं, जो तीन नेत्रोंसे युक्त और हाथमें त्रिशूल धारण करते हैं, जिनके नेत्र रक्तवर्ण हैं, जो वर देनेवाले हैं, जो माता पार्वतीके पुत्र हैं, जिनके सूप - जैसे कान हैं, जिनका वर्ण कुछ - कुछ लाल है, जो दण्डधारी तथा अग्निमुख हैं एवं जिन्हें होम प्रिय है तथा जो प्रथम पूजित न होनेपर मनुष्योंके सभी कार्योंमें विघ्नकारी होते हैं, उन भीमकाय और उग्र स्वभाववाले पार्वतीनन्दन गणेशजीको मैं नमस्कार करता हूँ । जो मदसे मत्त रहते हैं, जिनके नेत्र भयंकर हैं और जो भक्तोंके विघ्न दूर करनेवाले हैं, करोड़ों सूर्यके समान जिनकी कान्ति है, खानसे काटकर निकाले हुए कोयलेकी भाँति जिनकी श्याम प्रभा है तथा जो विमल और शान्त हैं, उन भगवान् विनायकको मैं नमस्कार करता हूँ । मेरुगिरिके समान रुप और हाथीके मुख - सदृश मुखवाले, कैलासवासी गणपतिको नमस्कार है । विनायक देव ! आप विरुपधारी ओर ब्रह्मचारी हैं, भक्तजन आपकी स्तुति करते हैं, आपको बारंबार नमस्कार है ॥५ - १२॥
पुराणपुरुष ! आपने पूर्ववर्ती देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये हाथीका स्वरुप धारण करके समस्त दानवोंको भयभीत किया था । शिवपुत्र ! आपने ऋषि और देवताओंपर अपना स्वामित्व प्रकट कर दिया है, इसीसे देवगण आपकी प्रथम पूजा करते हैं । सर्वविघ्नेश्वर ! यदि मनुष्य रक्तवस्त्र धारणकर नियमित आहार करके अपने कार्यकी सिद्धिके लिये लाल पुष्पों और रक्तचन्दन - युक्त जलसे चतुर्थीके दिन तीनों काल या एक कालमें आप कामरुपी सर्वज्ञ गणपतिका पूजन करे तथा आपका नाम जपे तो वह पुरुष राजा, राजकुमार, राजमन्त्रीको राज्य अथवा समस्त राष्ट्रसहित अपने वशमें कर सकता है ॥१३ - १७॥
विनायक ! मैं आपकी स्तुति करता हूँ । आप मेरे द्वारा भक्तिपूर्वक स्तवन एवं विशेषरुपसे पूजन किये जानेपर मेरी तपस्याके विघ्नको दूर कर दें । सम्पूर्ण तीर्थो और समस्त यज्ञोंमें जो फल प्राप्त होता है, उसी फलको मनुष्य भगवान् विनायकका स्तवन करके पूर्णरुपसे प्राप्त कर लेता है । उसपर कभी संकट नहीं आता, उसका कभी तिरस्कार नहीं होता और न उसके कार्यमें विघ्न ही पड़ता है; वह जन्म लेनेके बाद पूर्वजन्मकी बातोंको स्मरण करनेवाला होता है । जो प्रतिदिन इस स्तोत्रका पाठ करता है, वह छः महीनोंतक निरन्तर पाठ करनेसे गणेशजीसे मनोवाञ्छित वर प्राप्त करता है और एक वर्षमें पूर्णतः सिद्धि प्राप्त कर लेता है - इसमे तनिक भी संशय नहीं है ॥१८ - २१॥
सूतजी बोले - द्विजोत्तमगण ! इस प्रकार राजा इक्ष्वाकु पहले गणेशजीका स्तवन करके, फिर तपस्वीका वेष धारणकर तप करनेके लिये वनमें चले गये । साँपकी त्वचाके समान मुलायम एवं बहुमूल्य वस्त्र त्यागकर वे श्रेष्ठ महाराज कमरमें वृक्षोंकी कठोर छाल पहनने लगे । दिव्य रत्नोंके हार और कड़े निकालकर हाथमें अक्षसूत्र तथा गलेमें कमलगट्टोंकी बनी हुई सुन्दर माला धारण करने लगे । इसी प्रकार वे नरेश मस्तकपरसे रत्न तथा सुवर्णसे सुशोभित मुकुट हटाकर वहाँ तपस्याके लिये जटाजूट रखने लगे ॥२२ - २५॥
इस प्रकार वसिष्ठजीके कथनानुसार तापस - वेष धारणकर तपोवनमें प्रविष्ट हो, वे शाक और फलमूलका आहार करते हुए तपस्यामें प्रवृत्त हो गये । महातपस्वी राजा इक्ष्वाकु ग्रीष्म ऋतुमें पञ्चाग्निके बीच स्थित होकर तपस्या करते थे, वर्षाके समय खुले मैदानमें रहते और शीतकालमें सरोवरके जलमें खड़े होकर तप करते थे । इस प्रकार समस्त इन्द्रियोंको मनमें निरुद्ध करके, मनको भगवान् विष्णुमें लीन कर द्वादशाक्षरमन्त्रका जप करते और वायु पीकर रहते हुए उन महात्मा राजाके समक्ष लोक - पितामह भगवान् ब्रह्माजी प्रकट हुए । उन चार मुखोंवाले पद्मयोनि ब्रह्माजीको आया देख राजाने उन्हें भक्तिभावसे प्रणाम एवं उनकी स्तुति करके संतुष्ट किया ॥२६ - ३०॥
( राजा बोले - ) ' संसारकी सृष्टि करनेवाले तथा वेद - शास्त्रोंके मर्मज्ञ, चार मुखोंवाले महात्मा हिरण्यगर्भ ब्रह्माजीको नमस्कार है ।' इस प्रकार स्तुति की जानेपर जगत्स्त्रष्टा ब्रह्माजीने राज्य त्यागकर तपस्यामें लगे हुए उन शान्त एवं महान् सुखी श्रेष्ठ नरेशसे कहा ॥३११/२॥
ब्रह्माजी बोले - राजन् ! समस्त विश्वको प्रकाशित करनेवाले तुम्हारे पितामह सूर्य तथा पिता मनु भी सदा ही सभी मुनियोंके मान्य हैं । तुम्हारे पिता और पितामहने भी पूर्वकालमें तीव्र तपस्या की थी । ( उन्हींके समान आज तुम भी तप कर रहे हो । ) महामते नृपश्रेष्ठ ! सारा राज्य - भोग छोड़कर किसलिये यह घोर तप कर रहे हो ? इसका कारण बताओ ॥३२ - ३४॥
ब्रह्माजीके इस प्रकार पूछनेपर राजने उनको प्रणाम करके कहा - ' ब्रह्मन् ! मैं तपोबलसे शङ्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान् मधुसूदनका प्रत्यक्ष दर्शन करनेकी इच्छा लेकर ही ऐसा तप कर रहा हूँ । ' राजाके यों कहनेपर कमलजन्मा ब्रह्माजीने हँसते हुए - से उनसे कहा ॥३५ - ३६॥
'' राजन् ! सर्वत्र व्यापक भगवान् नारायणका दर्शन तुम केवल तपस्यासे नहीं कर सकोगे । ( औरोंकी तो बात ही क्या है, ) हमारे - जैसे लोगोंको भी क्लेशनाशन भगवान् केशवका दर्शन नहीं हो पाता । महामते ! मैं तुम्हें एक पुरातन पवित्र कथा सुनाता हूँ, सुनो - ' प्रलयकी रातमें कमललोचन भगवान् विष्णुने समस्त लोकोंको अपनेमें लीन कर लिया और सनन्दन आदि मुनियोंसे अपनी स्तुति सुनते हुए वे ' अनन्त ' नामक शेषनागकी शय्यापर योगनिद्राका आश्रय ले सो गये । राजन् ! उन सोये हुए भगवानकी नाभिसे प्रकाशमान एक बहुत बड़ा कमल उत्पन्न हुआ । पूर्वकालमें उस प्रकाशमान कमलपर सर्वप्रथम मुझ वेदवेत्ता ब्रह्माका ही आविर्भाव हुआ । तत्पश्चात् नीचेकी ओर दृष्टि करके मैंने खानसे काटकर निकाले हुए कोयलेके समान श्यामवर्णवाले भगवान् विष्णको शेषनागकी शय्यापर सोते देखा । उनके श्रीअङ्गोंकी कान्ति अलसीके फूलकी भाँति सुन्दर जान पड़ती थी, दिव्य रत्नोंके आभरणोंसे उनके श्रीविग्रहकी विचित्र शोभा हो रही थी और उनका मस्तक मुकुटसे शोभायमान था ॥३७ - ४२॥
' महामते ! उस समय मैंने उन अनन्तदेव शेषनागका भी दर्शन किया, जिनका आकार कुन्द और चन्द्रमाके समान श्वेत था तथा जो हजारों फणोंकी मणियोंसे अत्यन्त देदीप्यमान हो रहे थे । नृपश्रेष्ठ ! क्षणभर ही वहाँ उन्हें देखकर मैं फिर उनका दर्शन न पा सका, इससे अत्यन्त दुःखी हो गया । तब मैं कौतुहलवश निरामय भगवान् नारायणका दर्शन करनेके लिये कमलनालका सहारा ले वहाँसे नीचे उतरा; परंतु राजेन्द्र ! उस समय जलके भीतर बहुत खोजनेपर भी मैं उन लक्ष्मीपतिका पुनः दर्शन न पा सका । तब मैं फिर उसी कमलका आश्रय ले वासुदेवके उसी रुपका चिन्तन करता हुआ उनके दर्शनके लिये बड़ी भारी तपस्या करने लगा । तत्पश्चात् अन्तरिक्षके भीतरसे किसी अव्यक्त शरीरवाली वाणीने मुझसे कहा ॥४३ - ४७॥
'' ब्रह्मन् ! क्यों व्यर्थ क्लेश उठा रहे हो ? इस समय मेरी बात मानो । बहुत बड़ी तपस्यासे भी तुम्हें भगवान् विष्णुका दर्शन नहीं हो सकेगा । यदि यहाँ शुद्ध स्फटिकमणिके समान श्वेत नाग - शय्यापर शयन करनेवाले भगवान् विष्णुका दर्शन करना चाहते हो तो उनके आज्ञानुसार सृष्टि करो । महामते ! तुमने ' शार्ङ्ग ' धनुष धारण करनेवाले उन भगवानका, जो अञ्जन - पुञ्जके समान श्याम सुषमासे युक्त तथा स्वभावतः प्रतिभाशालीरुप विमान ( शेषशय्या ) - पर स्थित देखा है, उसीका आलस्यरहित होकर भजन - ध्यान करो, तब उन माधवको देख सकोगे ॥४८ - ५०१/२॥
'' राजन् ! उस आकाशवाणीद्वारा इस प्रकार प्रेरित हो मैंने निरन्तर की जानेवाली तीव्र तपस्याका अनुष्ठान त्यागकर इस जगतके प्राणियोंकी सृष्टि की । सृष्टि करके स्थित होनेपर मेरे हदयमें प्रजापति विश्वकर्माका प्राकट्य हुआ । उन्होंने ' अनन्त ' नामक शेषनाग और भगवान् विष्णुकी दो चमकीली प्रतिमाएँ बनायीं । नरेश्वर ! मैंने पहले जलके भीतर शेष - शय्यापर जिस रुपमें देख चुका था, उसी रुपमें भगवान् श्रीहरिकी वह प्रतिमा बनायी गयी थी । तब मैं उन श्रीहरिके उस श्रीविग्रहकी भक्तिपूर्वक पूजा करके और उन्हींके प्रसादसे श्रेष्ठ तपरुप परम उत्तम ज्ञान प्राप्त करके विकाररहित नित्यानन्दमय मोक्ष - सुखका अनुभव करने लगा ॥५१ - ५४१/२॥
'' राजराजेश्वर ! इस समय मैं तुम्हारे हितकी बात बता रहा हूँ, सुनो - राजन् ! इस घोर तपस्याको छोड़कर अब अपनी पुरीको लौट जाओ । प्रजाओंका पालन करना ही राजाओंका धर्म तथा तप है । मैं सिद्धों और ब्राह्मणोंसहित उस विमानको, जिसपर भगवानकी प्रतिमा है, तुम्हारे पास भेजूँगा । उसीमें तुम सुन्दर बाह्य उपचारोंद्वारा उन देवेश्वरकी आराधना करो । नृपश्रेष्ठ ! तुम यज्ञोंद्वारा ' अनन्त ' नामक शेषनागकी शय्यापर शयन करनेवाले भगवान् नारायणका निष्कामभावसे यज्ञोंद्वारा आराधन करते हुए धर्मपूर्वक प्रजाका पालन करो । नृप ! भगवान् वासुदेवकी कृपासे अवश्य ही तुम्हारी मुक्ति हो जायगी । '' राजासे यों कहकर लोकपितामह ब्रह्माजी अपने धामको चले गये ॥५५ - ५९॥
द्विज ! ब्रह्माजीके चले जानेपर राजा इक्ष्वाकु उनकी बातोंपर विचार ही कर रहे थे, तबतक उनके समक्ष वह विष्णु और अनन्तकी प्रतिमाओंका शुभ विमान, जिसे ब्रह्मजीने दिया था , सिद्ध ब्राह्मणोंसहित प्रकट हो गया । उन भगवान् पुरुषोत्तमका दर्शन करके उन्होंने बड़ी भक्तिके साथ उन्हें प्रणाम किया तथा साथमें आये हुए ऋषियों एवं ब्राह्मणोंको भी नमस्कर करके वे उस विमानको लेकर अपनी पुरीको गये । वहाँ नगरके सभी शोभायमान स्त्री - पुरुषोने राजाका दर्शन किया और लावा छींटते हुए वे उन्हें राजभवनमें ले गये । राजाने अपने विशाल मन्दिरमें उस सुन्दर वैष्णव - विमानको स्थापित किया और साथ आये हुए उन ब्राह्मणोंद्वारा पूजित भगवान् विष्णुकी वे आराधना करने लगे । उनकी सुन्दरी रानियाँ चन्दन घिसकर और सुगन्धित फूलोंका हार गूँथकर अर्पण करती थीं, इससे राजाको बड़ी प्रसन्नता होती थी । इसी प्रकार नगर - निवासी जन कपूर, श्रीखण्ड, कुङ्कुम, अगुरु आदि सभी उपचार और विशेषतः वस्त्र, गुग्गुल तथा श्रीविष्णुके योग्य पुष्प ला - लाकर राजाको अर्पित करते थे ॥६० - ६६॥
राजा तीनों संध्याओंमें विमानपर विराजमान भगवान् श्रीहरिकी क्रमशः गन्ध - पुष्प आदि उपचारोंद्वारा बड़ी भक्तिसे पूजा करते थे । श्रीविष्णुके नामोंका जप, उनके स्तोत्रोंका पाठ, उनके गुणोंका गान और शङ्ख आदि वाद्योंका शब्द करते - कराते थे । शास्त्रोक्त विधिसे प्रेमपूर्वक सजायी हुई भगवानको झाँकियों तथा रात्रिमें जागरण आदिके द्वारा वे सदा ही देरतक भगवत्सम्बन्धी उत्सव कराया करते थे । निष्कामभावसे किये गये यज्ञ, दान, तथा धर्माचरणोंद्वारा उन सर्वदेवमय भगवान् विष्णुको संतुष्ट करके राजाने परम उत्तम ज्ञान प्राप्त कर लिया । यज्ञोंका अनुष्ठान, पृथ्वीका पालन और भगवान् केशवका पूजन करते हुए राजाने पितृगणोंकी तृप्तिके निमित्त श्राद्ध आदि कर्म करनेके लिये पुत्रोंको उत्पन्न किया और केवल ब्रह्मका चिन्तन करते हुए ध्यानके द्वारा ही शरीरका त्यागकर भगवान् विष्णुके धामको प्राप्त कर लिया । इस प्रकार राजा इक्ष्वाकु अनन्त दुःखोंसे पूर्ण संसारका त्याग करके अज, अशोक, अमल, विशुद्ध, शान्त एवं सच्चिदानन्दमय विष्णुपदको प्राप्त हो गये ॥६७ - ७२॥
इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणके अन्तर्गत ' इक्ष्वाकुचरित्र ' विषयक पचीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥२५॥