मार्कण्डेयजी बोले - पूर्वकालमें देवासुर - संग्राममें जब देवगण दैत्योंद्वारा पराजित हो गये, तब वे सभी मिलकर क्षीरसागरनन्दिनी श्रीलक्ष्मीजीके पति भगवान् विष्णुकी शरणमें गये । राजन् ! वहाँ ब्रह्मा आदि सभी देवता जगदीश्वरकी आराधना करके हाथ जोड़ निम्नाङ्कित स्तोत्रसे उनकी स्तुति करने लगे ॥१ - २॥
देवगण बोले - जिनकी नाभिसे कमल प्रकट हुआ है, जो समस्त लोकोंके स्वामी है, उन शार्ङ्ग धनुषधारी आप परमेश्वरको नमस्कार है । सम्पूर्ण विश्व और सारे देवता जिनके स्वरुप हैं, उन मधुकैटभनाशक केशवको बारंबार प्रणाम है । करुणाकर ! भगवान् ! हम सभी देवता बलवान् दैत्योंद्वारा युद्धमें हरा दिये गये हैं, हमें विजय प्राप्त करनेका कोई उपाय बतलाइये; आपको नमस्कार हैं ॥३ - ५॥
मार्कण्डेयजी बोले - देवताओंद्वारा इस प्रकार स्तवन किये जानेपर देवदेव भगवान् जनार्दनने उनके समक्ष प्रकट होकर कहा ॥६॥
श्रीभगवान् बोले - देवगण ! तुम सब लोग वहाँ ( समुद्र - तटपर ) जाकर दानवोंके साथ संधि कर लो और मन्दराचलको मथानी बानकर वासुकि नागसे रस्सीका काम लो । फिर शीघ्रतापूर्वक समस्त ओषधियोंको लाकर समुद्रमें डालो और दानवोंके साथ मिलकर ही क्षीरसागरका मन्थन करो । देवताओ ! इस कार्यमें मैं भी तुम लोगोंकी सहायता करुँगा । समुद्रसे अमृत प्रकट होगा, जिसको पान करके उसके प्रभावसे देवता क्षणभरमें ही अत्यन्त बलशाली हो जायँगे । महाभागो ! उस उत्तम अमृतको प्राप्तकर इन्द्रादि तुम सभी देवता अत्यन्त तेजस्वी, रणमें पराक्रम दिखानेवाले और महान् उत्साहसे सम्पन्न हो जाओगे । तदनन्तर तुम लोग दानवोंको जीतनेमें समर्थ हो सकोगे - इसमें संशय नहीं है ॥७ - ११॥
देवदेव भगवानके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर सभी देवता उन जगदीश्वरको प्रणाम करके अपने स्थानपर आये और दानवोंके साथ संधि करके क्षीरसागरके मन्थके लिये उत्तम उद्योग करने लगे । राजन् ! बलिने अकेले ही ' मन्दर ' नामक महान् पर्वतको उखाड़कर समुद्रमें डाल दिया तथा नृपोतम ! देवता और दैत्योंने समस्त ओषधियोंको लाकर समुद्रमें डाला । राजन् ! भगवान् नारायणकी आज्ञासे वासुकि नाग वहाँ आये और समस्त देवताओंका हित - साधन करनेके लिये स्वयं भगवान् विष्णु भी वहाँ पधारे ॥१२ - १५॥
तदनन्तर सभी देवता और असुरगण वहाँ भगवान् विष्णुके पास आये और सब लोग मित्रभावसे एकत्र होकर क्षीरसागरके तटपर उपस्थित हुए । नृप ! उस समय मन्दराचलको मथानी और वासुकि नागको रस्सी बनाकर अमृत निकालनेके उद्देश्यसे अत्यन्त वेगपूर्वक समुद्रका मन्थन आरम्भ हुआ । भगवान् विष्णुने उस समय समुद्रमन्थनके लिये दानवोंको वासुकिके मुखकी ओर और देवताओंको पुच्छ भागकी ओर नियुक्त किया । राजन् ! इस प्रकार मन्थन आरम्भ होनेपर नीचे कोई आधार न होनेके कारण मन्दराचल जलके भीतर प्रविष्ट होकर डूब गया । पर्वतको डूबा देख भगवान् मधुसूदन विष्णुने समस्त लोकोंके हितके लिये सहसा कूर्मरुप धारण किया और उस रुपमें अपनेको मन्दराचलके नीचे प्रविष्ट करके, आधाररुप हो, उस मन्दर पर्वतको धारण किया तथा दूसरे रुपसे वे भगवान् केशव पर्वतको ऊपरसे भी दबाये रहे और एक अन्यरुपसे वे भगवान् जनार्दन देवताओंके साथ रहकर नागराज वासुकिको खींचते भी रहे । तब वे बलवान् देवता तथा असुर पूर्णशक्ति लगाकर बड़े वेगसे क्षीरसागरका मन्थन करने लगे ॥१६ - २२१/२॥
नृपश्रेष्ठ ! तदनन्तर उस मथे जाते हुए क्षीरसागरसे अत्यन्त दुस्सह ' कालकूट ' नामक विष प्रकट हुआ । उस विषको सभी सर्पोने ग्रहण कर लिया । उनसे बचे हुए विषको भगवान् विष्णुकी आज्ञासे शङ्करजीने पी लिया । इससे कण्ठमें काला दाग पड़ जानेके कारण उनकी ' नीलकण्ठ ' संज्ञा हुई । इसके बाद द्वितीय बारके मन्थनसे ऐरावत गजराज और उच्चैः श्रवा घोड़ा - ये दोनों प्रकट हुए, यह बात हमारे सुननेमें आयी है । तृतीय आवृत्तिसे परमसुन्दरी अप्सरा ( उर्वशी ) - का आविर्भाव हुआ और चौथी बार महान वृक्ष पारिजात प्रकट हुआ । पाँचवों आवृत्तिमें क्षीरसागरसे चन्द्रमा प्रकट हुए । नरेश्वर ! चन्द्रमाको भगवान शिव अपने मस्तकपर धारण करते हैं; ठीक उसी तरह जैसे नारी ललाटमें स्वस्तिक ( बेंदी या आभूषण ) धारण करती हैं । इसी प्रकार क्षीरसागरसे नाना प्रकारके दिव्य रत्न, आभूषण और हजारों गन्धर्व प्रकट हुए । इन अत्यन्त विस्मयजनक वस्तुओंकी उस प्रकार उत्पन्न देख सभी देवता और असुर बहुत प्रसन्न हुए ॥२३ - २९१/२॥
तदनन्तर भगवान् विष्णुकी आज्ञासे मेघगण देवताओंके दलमें स्थित हो मन्द - मन्द वर्षा करने लगे और देव - वृन्दको सुख देनेवाली वायु बहने लगी । [ इस कारण देवता थके नहीं । ] किंतु महामते ! वासुकिके विषमिश्रित श्वासकी वायुसे कितने ही दैत्य मर गये और जो बचे, वे भी तेज एवं पराक्रमसे हीन हो गये ॥३० - ३११/२॥
तत्पश्चात उस समुद्रसे हाथमें कमल धारण किये हुए श्रीलक्ष्मीजी प्रकट हुईं । राजेन्द्र ! वे अपने तेजसे सम्पूर्ण दिशाओंको प्रकाशमान कर रही थीं । शत्रुसूदन ! उन्होंने तीर्थके जलसे स्नान किया, शरीरमें दिव्य गन्धका अनुलेप लगाया और वे कमलालया लक्ष्मी दिव्य वस्त्र, पुष्पहार और सुन्दर भूषणॊसे विभूषित हो देवपक्षमें जाकर क्षणभर खड़ी रहीं; फिर भगवान् विष्णुके वक्षः स्थलमें विराजमान हुईं ॥३२ - ३४१/२॥
नरेश्वर ! इसके बाद क्षीरसागरसे अमृतपूर्ण घटका दोहन करके हाथमें लिये भगवान् धन्वन्तरि प्रकट हुए । उनके प्राकट्यसे देवता बहुत प्रसन्न हुए । किंतु राजन् ! लक्ष्मीद्वारा त्याग दिये जानेके कारण असुरगण बहुत दुःखी हुए और उस भरे हुए अमृतघटको लेकर इच्छानुसार चल दिये । नृपवर ! तब भगवान् विष्णुने देवताओंका हित करनेके लिये अपनेको सम्पूर्ण शुभ लक्षणोंसे युक्त स्त्रीरुपमें प्रकट किया । इसके बाद भगवान् उस नारीरुपसे ही असुरोंकी ओर गये । उस दिव्य रुपवाली नारीको देख दैत्यगण मोहित हो गये । साधुशिरोमणे ! वे असुर तत्काल मोहके वशीभूत हो कामपीड़ित हो गये और उन्होंने मोहवश वह अमृतका घड़ा भूमिपर रख दिया । अवनीपते ! इस प्रकार असुरोंको मोहित करके भगवानने वह अमृत ले देवताओंको दे दिया । देवदेव भगवानकी कृपासे अमृत पीकर बली और महावीर्यवान् हो देवता संग्राममें आ डटे और असुरोंको युद्धमें जीतकर उन्होंने अपने राज्यपर अधिकार कर लिया । राजन् ! भगवानके इस ' कूर्म ' नामक अवतारको कथा मैंने तुमसे कह दी । यह पढ़ने और सुननेवाले मनुष्योंको पुण्य देनेवाली है ॥३५ - ४३॥
अद्भुत कर्म करनेवाले भगवान नारायणने केवल देवताओंके हितके लिये अनन्त तेजस्वी परमपावन कूर्मरुप प्रकट किया था, सो इस प्रसङ्गका वर्णन मैंने तुमसे कर दिया ॥४४॥
इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ' कूर्मावतार ' नामक अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥३८॥